Friday, June 13, 2008
ख़बरों में सड़क के बच्चे
श्री प्रशांत झा
रिपोर्टर हिंदुस्तान दैनिक
१८-२०,के जी मार्ग, नई दिल्ली।
महोदय ! आपका लेख "......और यह है बच्चा पार्टी का अपना बैंक "(हिंदुस्तान २ अप्रैल २००८) पढ़ा। यह सही बात है कि सड़क के कामकाजी बच्चों का एक बैंक होना अपने आप में एक आश्चर्य की बात है, लेकिन उतनी नहीं जितने आश्चर्य के साथ आपने लिखा है। आपने अपने लेख में लिखा कि -(१) यह बच्चों का अपना बैंक है ,(२) इस बैंक (बाल विकास बैंक) के मैनेजर ,प्रबंधक कमिटी और जमाकर्ता सड़कों पर जीवनयापन करने वाले बच्चे ही हैं,(३) वे जब चाहें रुपये निकाल सकते हैं और लोन भी ले सकते हैं।
मैं आपको बताना चाहता हूँ कि आपको यह जानकारी जहाँ कहीं से भी मिली हो पूरी हकीकत के साथ नहीं मिली। यह बैंक बच्चों का अपना बैंक है, पर सिर्फ़ इसलिए कि इस तरह का और किसी संस्था के पास बैंक नहीं है। इसलिए संस्था ने इस बैंक को (जिसे ख़ुद संस्था के स्टाफ चलाते हैं)बच्चों के बैंक का नाम दे रखा है।
कागज के रिकार्डों पर ही सिर्फ़ बच्चों की प्रबंधक कमिटी और लोन कमिटी है। हकीकत में बच्चों को प्रबंधक का मतलब भी नहीं मालूम। लोन कमिटी, जिसके सदस्य बच्चे हैं(कागजों पर) , किसी को लोन नहीं दे सकती क्योंकि लोन की स्वीकृति के लिये डॉ सुमन सचदेवा (बैंक डवलपमेंट मैनेजर) की स्वीकृति ज़रूरी है। डॉ सुमन सचदेवा का कहना है कि "बैंक चलाने का मुख्य उद्देश्य बच्चों की शिक्षा के साथ-साथ उनमें बचत की आदत विकसित करना है" मगर संस्था पिछले सात सालों में (२००१ से अबतक) कितने बच्चों को शिक्षित कर पाई है और कितने बच्चों में बचत की आदत विकसित कर पाई है -इसका संतोषजनक जवाब उनके पास नहीं होगा।
आप सोच रहे हैं कि मैं इतनी सारी बातें कैसे जानता हूँ ? महोदय जब बाल विकास बैंक की शुरुआत हुई थी तो मैं उसका पहला बैंक मैनेजर था। बैंक शुरू करने के लिये एन एफ आई (नेशनल फाउनडेशन फॉर इंडिया) ने ५०-५० हजार की किस्तों में दो साल के अन्दर दो लाख रुपये बटरफ्लाइज संस्था को दिए। संस्था की पहले से बचत योजना होने के कारण संस्था ने सोचा कि क्यों न बच्चों का बैंक बना दिया जाए। जबकि एन एफ आई का ऐसा कोई उद्देश्य नहीं था। उनके पैसा देने का कारण था कि सड़क पर रह रहे बच्चों को कुछ काम मिल जाए। मगर जब संस्था ने उसके सामने अपना लुभावना प्रोजेक्ट रखा तो उन्हें पसंद आ गया। एन एफ आई से मिला पैसा (दो लाख रुपये) संस्था ने १० बच्चों को काम के लिये देकर, स्टाफ की तनख्वाह देकर और मीटिंग्स का खर्चा लिखकर खर्च कर दिया। बच्चों को जो काम दिया गया वह सिर्फ़ संस्था की पब्लिसिटी के लिये। इस प्रकार उन दो लाख रुपयों का क्या हुआ पता नहीं चला। हाँ, इस काम से संस्था को शिवा(CIVA) नामक फंडिंग एजेंसी ने पैसा देना शुरू कर दिया था। लेकिन जब उसे संस्था की करतूतों का पता चला तो उसने अपना सारा फंड चाइल्ड होप नामक फंडिंग एजेंसी को दे दिया जो अभी बटरफ्लाइज को बैंक के लिये पैसा दे रही है। लेकिन अभी चाइल्ड होप को भी संस्था की करतूतों का पता चला है इसलिए संस्था मीडिया को माध्यम बनाकर प्रचार करा रही है।
एमिल जोला ने अपने एक प्रसिद्ध लेख में कहा था "यदि सच्चाई छुपाई जायेगी , उसे पोशीदा रखा जाएगा, तो यह इकट्ठी होती जायेगी और जब यह फटेगी तो अपने साथ हर चीज़ को उड़ा देगी। बटरफ्लाईज हकीकत को जितना भी छिपा ले मगर एक दिन तो उसे विस्फोट होना ही है। संस्था अपने बचाव के लिये चाहे जितना भी तर्क दे दे कि कुछ व्यक्ति और युवा उसे बदनाम कर रहे हैं मगर हकीकत एकदम विपरीत है. संस्था को अपनी सच्चाई का बाहर आना बदनामी लग रही है.
मैं संस्था के अन्दर १९९५ से २००५ तक रहा यानि पूरे दस साल. आठ साल की उम्र में मैंने अपना घर छोड़ा था. जब दिल्ली आया तो सड़क पर रहकर कबाड़ चुनता था और पढ़ाई करता था. संस्था ने दस साल तक विदेशी लोगों के सामने मुझे हीरो बनाकर पेश किया और जब मैं बड़ा हो गया तो यह कहकर कि अब तुम बड़े हो गए हो- संस्था से बाहर निकल दिया. सिर्फ़ मुझे ही नहीं इन दस सालों के अन्दर संस्था ने सैकड़ों बच्चों का अपने फायदे के लिये इस्तेमाल कर बाहर फेंक दिया. हमे इस बात का दुःख नहीं है कि हम संस्था से बाहर निकल दिए गए, दुःख इस बात का है कि संस्था ने पहले हमे सपने दिखाए और फ़िर अचानक उन सपनों को चूर-चूर कर दिया. हमारा सपना था कि हम भी संस्था के अन्दर रहकर अपना विकास करेंगे और अपने जैसे बच्चों के लिये कुछ कर पाएंगे, मगर हमे क्या पता था कि ऐसी संस्थाएं सिर्फ़ पैसों के लिये काम करती हैं और वास्तव में बच्चों के विकास से इन्हें कोई मतलब नहीं होता. इन बातों पर गहराई से सोचने के बाद हमने तय किया कि हम बच्चे और युवा मिलकर एक अख़बार निकालेंगे . आज हम बाल मजदूर की आवाज नाम से बच्चों का एक अखबार निकलते हैं।
महोदय हम चाहते हैं कि आप पूरी हकीकत के साथ लिखें और यदि सम्भव हो तो आप मिलकर बटरफ्लाईज संस्था के बारे में और भी जानकारी हमसे ले सकते हैं.आज बाल मजदूरी एक ऐसा मुद्दा बन गया है जिसे अपनी रोटी सेंकने के लिये हर कोई इस्तेमाल करने लगा है. जितना पैसा बाल मजदूरी ख़त्म करने के लिये भारत में आता है यदि वो पैसा एक तय योजना के साथ खर्च किया जाए तो जरूर कुछ नतीजा निकल सकता है मगर संस्था के माध्यम से आने वाला पैसा क्या सही मायनों में बच्चों पर खर्च हो रहा है? सच्चाई क्या है सब जानते हैं पर कोई आगे बढ़कर सवाल नहीं करता. सरकार इन बातों पर क्यों खामोश है क्या इस बात को समझ पाना इतना मुश्किल है?
अगर आप हमसे बात करके एक रिपोर्ट लिख सकें तो हमे अच्छा लगेगा.
भवदीय,
अनुज चौधरी
प्रतिलिपि- श्रीमती मृणाल पण्डे जी,प्रधान संपादक हिंदुस्तान.
बाल मजदूर की आवाज से साभार
Wednesday, June 11, 2008
एड्स पर स्वीकारोक्ति
www.rashtriyasahara.com से साभार
Tuesday, May 13, 2008
फोर्ड फाउन डेशन : विदेशी फंडिंग के परिप्रेक्ष्य में एक अध्ययन
फोर्ड भारत में
फोर्ड फाउनडेशन की नई दिल्ली ऑफिस के वेब पेज के अनुसार -"भारत के प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू के आमंत्रण पर फाउनडेशन ने 1952 में भारत में एक ऑफिस की स्थापना की।" वास्तव में चेस्टर बाउल्स जो 1951 में भारत में अमरीका के राजदूत थे, ने इस प्रक्रिया की शुरुआत की थी। अमरीकी विदेश नीति की स्थापना में लगे बाउल्स को गहरा धक्का तब लगा जब 'चीन हाथ से निकल गया' (राष्ट्रीय स्तर पर वहां 1949 में कम्युनिस्ट सत्ता में आ गए थे)। इसी तरह वे इस बात से भी दुखी थे कि तेलंगाना में कम्युनिस्टों के नेतृत्व में हुए हथियारबंद आन्दोलन को कुचलने में भरतीय सेना नाकाम रही थी (1946-51) " जब तक कि कम्युनिस्टों ने स्वयं ही हिंसा का रास्ता बदल नहीं लिया। "भारतीय किसानों की अपेक्षा थी कि अंग्रेजी राज की समाप्ति के बाद उनकी इस दीर्घकालीन मांग को पूरा किया जाएगा कि जमीन जोतने वाले को मिलनी चाहिए। और यह दबाव तेलंगाना आन्दोलन की समाप्ति के बाद भी आज भारत में हर कहीं महसूस किया जा सकता है।
पॉल हॉफमैन को जो फोर्ड फाउनडेशन के तत्कालीन अध्यक्ष थे, बाउल्स ने लिखा-"स्थितियां चीन में बदल रही हैं पर यहाँ भारतीय परिस्थितियां स्थिर हैं.....अगर आने वाले चार-पाँच वर्षों में वैषम्य बढ़ता है , या फ़िर अगर चीनी भारतीय सीमाओं को धमकाए बगैर अपना उदारवादी और तर्कसंगत रवैया बनाये रखते हैं .... भारत में कम्युनिस्म का बड़ा भारी विकास हो सकता है। नेहरू की मृत्यु अथवा उनके रिटायरमेंट के पश्चात् यदि एक अराजक स्थिति बनती है तो सम्भव है यहाँ एक ताक़तवर कम्युनिस्ट देश का जन्म हो।" हॉफमैन ने अपने विचार व्यक्त करते हुए एक मज़बूत भारतीय राज्य की जरूरत पर बल दिया -"एक मज़बूत केन्द्र सरकार का गठन होगा , उग्र कम्युनिस्टों को नियंत्रित किया जाएगा....प्रधानमंत्री पंडित नेहरू को जनता तथा दूसरे स्वतंत्र (बीमार) देशों से तालमेल, सहानुभूति और मदद की अत्यन्त आवश्यकता है। "
नई दिल्ली ऑफिस फौरन स्थापित किया गया , और फोर्ड फाउन डेशन ने कहा- "यह अमरीका से बाहर फाउन डेशन का पहला कार्यक्रम है और नई दिल्ली ऑफिस इसकी क्षेत्रीय कार्रवाइयों का काफ़ी बड़ा हिस्सा पूरा करेगा। इसका प्रभाव क्षेत्र नेपाल और श्रीलंका तक व्याप्त है।
"फोर्ड फाउन डेशन की गतिविधियों का क्षेत्र तय कर दिया गया ( अमरीकी स्टेट डिपार्टमेंट द्वारा) है "- जॉर्ज रोजेन लिखते हैं ,- " हमारा अनुभव है कि एक विदेशी (अमरीकी) सरकारी एजेंसी का ...................में काम करना अत्यन्त संवेदनशील मसला है .......दक्षिण एशिया बड़ी तेजी से फाउनडेशन की गतिविधियों के लिए एक संभावित क्षेत्र के रूप में सामने आया है.........भारत और पाकिस्तान दोनों ही चीन की ज़द में हैं और कम्युनिज्म द्वारा निशाने पर लिए हुए प्रतीत होते हैं। इसलिए वे अमरीकी नीतियों के सन्दर्भ में अत्यन्त महत्वपूर्ण बन गए हैं..... । " फोर्ड फाउन डेशन ने भारतीय नीतियों पर आधिपत्य जमा लिया है। रोजेन कहते हैं कि "1950 से लेकर 1960 के बीच विदेशी विशेषज्ञों ने भारतीयों के बनिस्बत उच्च अधिकार हासिल कर लिए हैं ", और फोर्ड फाउनडेशन तथा (फोर्ड फाउनडेशन/सी आई ए फंडेड) एमआईटी सेंटर फॉर इंटरनेशनल स्टडीज "योजना आयोग के आधिकारिक सलाहकार" की तरह कार्य कर रहे हैं। बाउल्स लिखते हैं कि " डगलस एन्समिन्जर के नेतृत्व में , भारत में फोर्ड के कर्मचारी योजना आयोग के साथ घनिष्ठ रूप से जुड़े हुए हैं जो पंचवर्षीय योजनाओं का संचालन करता है। जहाँ भी दरार दिखती है , वे उसे भरते हैं, चाहे वह खेती का, स्वास्थ्य शिक्षा का अथवा प्रशासनिक मामला हो। वे ग्रामीण स्तर के कार्यकर्ता प्रशिक्षण विद्यालयों में साथ जाते हैं, संचालन करते हैं और वित्तीय मदद देते हैं।"
Saturday, May 3, 2008
फोर्ड फाउनडेशन-विदेशी फंडिंग के परिप्रेक्ष्य में एक अध्ययन
फोर्ड फाउनडेशन द्वारा विश्व सामाजिक मंच को दिए जा रहे अकूत धन के प्रवाह ने इस संस्थान की पृष्ठभूमि और इसकी वैश्विक गतिविधियों को जगजाहिर कर दिया है। यह न सिर्फ़ इसके बल्कि इस जैसी दूसरी संस्थाओं के अध्ययन की दृष्टि से भी काफी महत्वपूर्ण है। फोर्ड फाउनडेशन (एफ एफ) की स्थापना 1936 में फोर्ड के विशाल साम्राज्य के हित में कर बचाने की जुगत के तौर पर हुई थी लेकिन इसकी गतिविधियाँ स्थानीय तौर पर मिशिगन के स्टेट को समर्पित थीं। 1950 में जब अमरीकी सरकार ने इसका ध्यान "कम्युनिस्ट धमकियों" से मुठभेड़ पर केंद्रित किया , फोर्ड फाउनडेशन एक राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय फाउनडेशन में तब्दील हो गया।
फोर्ड और सी आई ए
सच तो यह है कि अमरीका की केन्द्रीय गुप्तचर संस्था लम्बे समय से अनेकानेक लोकोपकारी फाउनडेशनों (खासकर फोर्ड फाउनडेशन) के माध्यम से कार्य करती आ रही थी। जेम्स पेत्रास के शब्दों में फोर्ड और सी आई ए का अंतर्सम्बंध " अमरीका के साम्राज्यवादी सांस्कृतिक वर्चस्ववाद को मजबूती देने और वामपंथी राजनीतिक एवं सांस्कृतिक प्रभावों की जड़ें खोदने के लिये एक सोची-समझी और सजग संयुक्त पहलकदमी थी। " फ्रांसिस स्टोनर इस दौर पर अपने एक अध्ययन में कहते हैं - इस समय फोर्ड फाउनडेशन ऐसा प्रतीत होता है मानो वह अंतर्राष्ट्रीय सांस्कृतिक दुष्प्रचार के क्षेत्र में सरकार का ही एक विस्तार हो। फाउनडेशन के पास इसका पूरा ब्योरा है कि उसने यूरोप में मार्शल प्लान और सी आई ए अधिकारियों के विशिष्ट अभियानों में कितनी प्रतिबद्धता और अंतरंगता के साथ कार्य किया है। "
रिचर्ड बिशेल ,जो 1952 -54 के दरम्यान फाउनडेशन के प्रमुख रहे, तत्कालीन सी आई ए प्रमुख एलन ड्यूल्स के साथ खुले तौर पर मिलते-जुलते रहे थे। उन्होंने फोर्ड फाउनडेशन को सी आई ए की विशेष मदद के लिये प्रेरित किया। ड्यूल्स के बाद जॉन मैकक्लॉय फोर्ड के प्रमुख बने। इससे पहले का उनका कैरिअर वार (War) के सहायक सचिव, विश्व बैंक के अध्यक्ष, अधिकृत जर्मनी के उच्चायुक्त, रौकफेलर के चेज मैनहट्टन बैंक के अध्यक्ष और सात बड़ी तेल कंपनियों के वाल स्ट्रीट अटोर्नी के तौर पर काफी विख्यात रहा था। मैकक्लॉय ने सी आई ए और फोर्ड की साझेदारी को तीखा किया - फाउनडेशन के अंतर्गत एक प्रशासनिक इकाई गठित की जो खास तौर से सी आई ए के साथ तालमेल बिठा सके और उन्होंने निजी तौर पर भी एक परामर्शदात्री समिति का नेतृत्व किया ताकि फोर्ड फाउनडेशन फंड के लिए एक आवरण और (Conduit) वाहक के तौर पर अपनी भूमिका का निर्वहन कर सके। 1966 में मैक जॉर्ज बंडी , जो उस वक्त अमरीकी राष्ट्रपति के राष्ट्रीय सुरक्षा मामलों में विशेष सहायक थे, फोर्ड फाउनडेशन के प्रमुख बने।
यह फाउन डेशन और सी आई ए के बीच एक व्यस्त और सघन साझेदारी थी। "सी आई ए के बहुसंख्य "दस्तों" ने फोर्ड फाउनडेशन से भारी अनुदान प्राप्त किया। बड़ी संख्या में सी आई ए प्रायोजित तथाकथित " स्वतन्त्र " सांस्कृतिक संगठनों, कलाकारों और बुद्धिजीवियों ने सी आई ए /फोर्ड फाउन डेशन से अनुदान प्राप्त किया। फोर्ड फाउन डेशन द्वारा दिए गए सबसे बड़े दानों में एक वह था जो सी आई ए प्रायोजित सांस्कृतिक आज़ादी (स्वायत्तता ) कांग्रेस को 1960 में दिया गया था - सात मिलियन यानि सत्तर लाख डॉलर। सी आई ए से जुड़कर काम करने वाले बहुतेरे लोगों को फोर्ड फाउनडेशन में पक्की नौकरी मिलती रही और यह घनिष्ठ साझेदारी परवान चढ़ती रही।"
बिशेल के अनुसार फोर्ड फाउनडेशन का मकसद "केवल इतना भर नहीं था कि वह वामपंथी बुद्धिजीवियों को वैचारिक समर में हरा दे बल्कि यह भी था कि प्रलोभन देकर उन्हें उनकी जगह से च्युत कर दे। " सो 1950 के सांस्कृतिक स्वायत्तता कांग्रेस (सीसीएफ) को सी आई ए ने फोर्ड फाउनडेशन की कीप से फण्ड दिया। सी सी एफ की सबसे प्रसिद्ध गतिविधियों में से एक थी वैचारिक पत्रिका "एनकाउन्टर "। बड़ी संख्या में बुद्धिजीवी जैसे बिकने को तैयार बैठे थे। सी आई ए और फाउन डेशन ने विशिष्ट कलात्मक परम्पराओं , जो अमूर्त अभिव्यक्तियों पर आधारित थीं, को प्रोत्साहित करना शुरू किया - ताकि वह उस कला को जो सामाजिक सरोकारों को वाणी देती है - कड़ी चुनौती दे सके।
अमरीकी फाउनडेशनों में सी आई ए की अत्यन्त व्यापक घुसपैठ थी। अमरीकी सीनेट द्वारा 1976 में गठित एक कमिटी ने यह रहस्योद्घाटन किया कि 1973-76 के दरम्यान दस हज़ार डॉलर से अधिक के 700 अनुदान जो 164 फाउनडेशनों के माध्यम से बांटे गए थे , उनमे से 108 आंशिक तौर पर अथवा शत प्रतिशत सी आई ए पोषित थे। पेत्रास के अनुसार, "फोर्ड फाउनडेशन के शीर्ष पदाधिकारियों और अमरीकी सरकार के बीच का सम्बन्ध सुस्पष्ट है और यह जारी है। हाल के दिनों के कुछ फंडेड प्रोजेक्ट का एक अध्ययन भी साफ बताता है कि फोर्ड फाउनडेशन ने किसी भी ऐसे बड़े प्रोजेक्ट को फण्ड नहीं किया है जो अमरीकी नीतियों की खिलाफत करता हो।"
फोर्ड फाउनडेशन कबूल करता है (अपने नयी दिल्ली ऑफिस की वेबसाइट पर) कि सन् 2000 की शुरुआत में इसने ७.५ विलियन डॉलर ग्रांट के रूप में दिया है और 1999 में इस क्षेत्र में कुल मिलाकर 13 विलियन डॉलर दान में दिया है। वह यह भी दावा करता है कि "सरकारों अथवा अन्य श्रोतों से फण्ड प्राप्त नहीं करता," पर वास्तव में, जैसा कि हमने देखा है, यह एक उल्टी बात है।
क्रमशः अगले अंक में जारी
Monday, April 28, 2008
रीटा पणिक्कर के नाम तीसरा पत्र
सेवा में,
निदेशक ,
बटरफ्लाइज, यू-4,ग्रीनपार्क एक्सटेंशन , नई दिल्ली -110016।
महोदया,
03-12-2007 के मेरे पत्र के जवाब में आपने कल जो सामूहिक सर्कुलर जारी किया है उसमें एक बार फिर से पूरे घटनाक्रम को यथार्थ और वस्तुपरक तरीके से न देखकर उससे जैसे-तैसे पीछा छुड़ाने की कोशिश की है जो आपकी प्रतिष्ठा के अनुरूप नहीं कहा जा सकता। संगठन के प्रमुख की हैसियत से जिस फैसले पर आपको पहले दिन ही पहुँच जाना था, वहाँ तक पहुँचने से बचाने वाले रास्तों की तलाश ने आपको उस मनःस्थिति तक ला खड़ा किया है कि अब आपको अपने ही संगठन और उसकी एकजुटता पर भरोसा नहीं रहा। आपको यह स्वीकार करना चाहिये कि आप अपने ही संगठन के खिलाफ खड़ी हो गई हैं। सर्कुलर से मुख्यतः जो बातें उभरकर आ रही हैं वे इशारा करती हैं कि -
(क) आप इस बात से अत्यंत दुखी हैं कि संगठन में सब आपके हिसाब से क्यों नहीं सोचते। संभवतः आप यह मानती हों कि वेतनभोगी कर्मचारी होने के कारण इस संगठन में किसी को अलग विचार रखने अथवा असहमति व्यक्त करने का क्या अधिकार हो सकता है।
(ख) विगत दिनों के घटनाक्रम को देखते हुए आपको इस बात पर संदेह है कि यह संगठन एकजुट रह गया है, इसलिये आप जब एकजुटता की बात कर रही हैं तो उसमें आत्मविश्वास की कमी झलक रही है। पिछले 23 अक्टूबर की घटना के बाद से पूरा संगठन अन्याय के खिलाफ संगठित और एकजुट हुआ जो कि आप जानती हैं। क्यों यह एकजुटता आपको निराश या हतोत्साहित करती है ? क्या इसलिये कि इसे राजधर्म के साथ खड़ा होना चाहिये था न कि न्याय के पक्ष में ?
(ग) आप कहती हैं कि हमारे पास वह मंच उपलब्ध था जहाँ हम शिकायतों को सुलझा सकते थे। फिर क्यों उसका उपयोग नहीं हुआ ? क्या इसलिये नहीं कि आपको मालूम था कि उस मंच से खासकर इस मसले पर मनमाफिक निर्णय लेना संभव नहीं होगा ?
(घ) आपको जिस एक और बात पर बहुत ज्यादा ऐतराज है वह यह कि आपको मेरे द्वारा भेजे गये पत्र संगठन के और लोगों की जानकारी में क्यों हैं। सार्वजनिक फण्ड से सामुदायिक सहभागिता के आधार पर काम करते हुए अपने सहकर्मी बाल अधिकार कार्यकर्ताओं के प्रति ऐसा गैरबराबरी वाला नजरिया रखना क्या आपको उचित लगता है ? क्या आप यह नहीं मानतीं कि इस कार्यक्रम में भागीदारी निभा रहे सभी व्यक्ति एक समान और महत्वपूर्ण हैं तथा उनके बीच पूरी पारदर्शिता होनी चाहिये ? फिर इस दुराव-छिपाव का क्या अर्थ है ?
(च) आपने यह बताया है कि इस पूरे मसले की जाँच हेतु आप किसी बाहरी व्यक्ति को नियुक्त करने जा रही हैं। यह अत्यंत दुखद स्थिति है। जब 23 अक्टूबर को मेरे साथ हुए अमानवीय दुर्व्यवहार का संगठित होकर विरोध करते हुए संगठन के पच्चीस से अधिक सहकर्मियों ने स्वहस्ताक्षरित मांग-पत्र में आपसे यह माँग की कि पी॰ एन॰ राय को इस आपराधिक कृत्य के लिये कड़ी सजा दी जाए, ताकि फिर कोई इस संगठन में महिलाओं या बच्चों के साथ हिंसक व्यवहार करने और उनकी मानवीय गरिमा को नष्ट करने की हिम्मत न कर सके, तो यह अपने आप में पूरे संगठन का निर्णय था, जिसपर आपको केवल अपनी सहमति की मुहर लगाने की औपचारिकता पूरी करनी थी। उसके बाद भी संगठन के इस बहुमत के निर्णय को दरकिनार कर किसी बाहरी जाँच की बात करना न सिर्फ हास्यास्पद है बल्कि एक लोकतांत्रिक संगठन में बहुमत की अवहेलना भी है। दूसरी बात यह कि जब संगठन के 95 प्रतिशत सदस्यों के निर्णय पर आपको विश्वास नहीं है, तो आपके द्वारा मनोनीत किसी बाहरी व्यक्ति की जाँच या उसके निष्कर्षों की विश्वसनीयता क्यों होनी चाहिये ?
मेरा विश्वास पहले भी संगठन में था और अब भी उतना ही है। इस पूरे मामले को संगठन से बाहर के किसी भी व्यक्ति को सौंपने से मेरा पूरा विरोध है और मैं इसे कतई स्वीकार नहीं कर सकती। उम्मीद तो यही थी कि आप मानवाधिकार हनन और स्त्री-उत्पीड़न के इस मसले पर संगठन के निर्णय के पक्ष में खड़ी होंगी और पी॰ एन॰ राय जैसे मानव-विरोधी व्यक्ति के लिये इस संगठन में कोई जगह नहीं रहने देंगी, परन्तु अब तक आपने जो भी कदम उठाये हैं उससे यही जाहिर होता है कि आप एक दोषी व्यक्ति को हर कीमत पर बचाना चाहती हैं। एक बाहरी व्यक्ति या संगठन से जाँच कराने की आपकी घोषणा भी आपके इसी प्रयास का एक हिस्सा है। दुनिया के इतिहास में जाँच कमिटियों ने ज्यादातर सच को झुठलाने या उसे निलम्बित करने में ही अपनी महारत साबित की है। न्याय के लिये अपने इस संघर्ष में मैं ऐसे किसी भी प्रयास को कबूल नहीं कर सकती और मुझे विश्वास है मेरे सभी सहकर्मी अन्याय के खिलाफ तनकर खड़े रहेंगे और संगठन के इस आंतरिक मामले को किसी बाहरी व्यक्ति अथवा संगठन को सौंपे जाने के कदम का विरोध करेंगे।
आदर सहित,
उषा ,
बटरफ्लाइज।
रीटा पणिक्कर के नाम दूसरा पत्र
आदरणीया निदेशक,
बटरफ्लाइज , यू-४, ग्रीनपार्क एक्सटेंशन , नई दिल्ली- ११००१६ ।
महोदया,
विगत 23-10-2007 को फतेहपुरी में वरिष्ठ सहकर्मी पी॰ एन॰ राय द्वारा अधिकांश सहकर्मियों, सैकड़ों बच्चों और स्थानीय नागरिकों-व्यवसायियों के सामने मेरे साथ किये गये अमानवीय दुर्व्यवहार और मानसिक भावनात्मक उत्पीड़न के बारे में मैंने आपके और संगठन के अन्य महत्वपूर्ण सहकर्मियों के नाम एक लिखित पत्र दिया था। आमतौर पर एनजीओ के बारे में लागों की यह धारणा और विश्वास है कि वहाँ लोकतांत्रिक मूल्यों, मानवाधिकार और असहमति का सबसे अधिक मखौल उड़ाया जाता है। यह भी कि ज्यादातर एनजीओ से लोकतांत्रिक व्यवहार और पारदर्शिता की उम्मीद करना इस वक्त की सबसे बड़ी बेवकूफियों में से एक हो सकती है। इस सबके बावजूद अगर मैंने आपके समक्ष इस अमानवीय प्रताड़ना की शिकायत की थी तो केवल इसलिये कि मैं आज भी संगठन और उसके लोकतांत्रिक मूल्यों में भरोसा करती हूँ और मेरा दृढ़ विश्वास था कि एक ऐसे संगठन में जिसका नेतृत्व एक स्त्री कर रही है, वहाँ एक इतने गंभीर किस्म के स्त्री-उत्पीड़न और हिंसक व्यवहार को कतई माफ नहीं किया जाएगा और दोषी को ऐसी सजा मिलेगी जो एक उदाहरण प्रस्तुत कर सके। अब तक के घटनाक्रम और मेरे अनुभव ने यही साबित किया है कि मैंने बहुत ज्यादा उम्मीद की थी। मैं भूल गई थी कि मेरी हैसियत इस संगठन में क्या है। घटना की लिखित शिकायत के बाद आपने न तो दोषी को संगठन के समक्ष बुलाकर बात करने की जरूरत समझी और न ही मुझसे किसी प्रकार की संवेदना ही प्रकट की। उल्टे आपने अकेले में मुझे बुलाकर कहा कि मैंने लिखित रूप से शिकायत करके और संगठन के अन्य साथियों के समक्ष यह बात रखकर बड़ी गलती की है, जिसके लिए मुझे आपसे लिखित तौर पर माफी मांगनी होगी। इसके जवाब में मैंने यह कहा था कि ऐसा करना मेरा लोकतांत्रिक अधिकार है और मैं नहीं समझती कि संगठन के मंच पर अन्याय का विरोध करना गलत है, इसलिये मैं कोई माफीनामा नहीं दे सकती।
न्याय के लिये धैर्यपूर्वक इंतजार करते हुए मैं संगठन में अपनी जिम्मेदारियों का अपनी तरफ से बेहतर निर्वहन करती आ रही हूँ; और गौर करने वाली बात यह है कि इतनी बड़ी घटना और समूचे संगठन द्वारा इस आपराधिक कृत्य की भर्त्सना करने के बाद भी पी॰ एन॰ राय के व्यवहार और हाव-भाव में कोई परिवर्तन नहीं आया बल्कि वह और भी हिम्मत के साथ मुझे अप्रत्यक्ष रूप से चुनौती भेजते रहे, धमकाते रहे कि मैंने उनका विरोध करके बहुत बड़ी गलती की है जिसका खामियाजा मुझे जल्दी ही भुगतना पड़ेगा। चूँकि संगठन के सभी सहकर्मियों को यह उम्मीद थी कि आपकी तरफ से इस घटना का संज्ञान लेते हुए तुरंत बैठक बुलाई जायेगी जिसमें पी॰ एन॰ राय से इस आपराधिक कृत्य का स्पष्टीकरण लिया जाएगा और उचित दण्डात्मक कार्रवाई की जायेगी, परन्तु काफी समय बीत जाने के बाद भी जब कोई हलचल नहीं सुनाई पड़ी तो संगठन के पच्चीस-तीस साथियों ने स्वहस्ताक्षरित शिकायत -पत्र में 23 अक्टूबर की घटना और पी॰ एन॰ राय के इस भयावह कृत्य की घोर भर्त्सना करते हुए आपसे यह मांग की थी कि -
(क) इस निकृष्टतम कुकृत्य की, जो एक स्त्री के प्रति मानसिक और भावनात्मक हिंसा है - कठोर शब्दों में निन्दा करनी चाहिये।
(ख) पी॰ एन॰ राय को उषा से लिखित तथा सार्वजनिक रूप से माफी मांगनी चाहिये।
(ग) उषा जो कि स्वयं पीडि़ता हैं, उनसे किसी भी तरह का माफीनामा या लिखित आश्वासन न माँगा जाए।
(घ) पी॰ एन॰ राय का व्यवहार शुरू से ही न तो बाल-हितैषी है और न ही ऐसा है जो हमारे बच्चों और स्टाफ के लिये अनुकरणीय है। यह संस्था के ध्येय और मूल उद्देश्यों के खिलाफ है। इस प्रकार के महिला विरोधी और मानवीय गरिमा तथा अधिकारों के खिलाफ काम करने वाले व्यक्ति पर उदाहरण प्रस्तुत करने वाली कार्रवाई की जाए।
- उपरोक्त पत्र जिसमें संगठन के पच्चीस से अधिक सदस्यों के हस्ताक्षर थे, आपको सौंपा गया, जिसके फौरन बाद आपने दो काम जल्दी-जल्दी कर डाले। एक तो यह कि 26-11-2007 को मुझे कार्यालय बुलवाकर पी॰ एन॰ राय द्वारा 25-10-2007 की तिथि में मेरे नाम लिखा गया पत्र ऐन उस वक्त दिया जब संगठन की बैठक शुरू हो रही थी और मेरे पास उस पत्र को पढ़ने का बिल्कुल भी वक्त नहीं था। दूसरा यह कि आनन-फानन में उसी दिन बैठक कर ली और पूरी बैठक में अंग्रेजी के अलावा हिन्दी में एक शब्द भी आपने नहीं कहा, नतीजतन बैठक की ज्यादातर बातें मेरी समझ से बाहर ही रहीं और मैं बातचीत की पूरी प्रक्रिया में कोई शिरकत नहीं कर पाई। मैं इससे पहले की कितनी ही बैठकों में शामिल हुई पर इस बैठक में क्यों सारी कार्यवाही एक विदेशी भाषा में चल रही थी यह मुझे बाद में ही समझ में आ सका। सचमुच हिन्दी तो इस देश के नब्बे प्रतिशत असभ्य, गँवार और कंगलों की भाषा है, भला उसमें ऐसी क्षमता कहाँ कि कोई गम्भीर बातचीत की जा सके। इस देश के मूर्ख, निरक्षर, भोले-भाले लोगों, स्त्रियों और दलितों का उद्धार अंग्रेजी बोलने-समझने वाले लोग ही करते आए हैं और रहेंगे भी - यह बात तो औपनिवेशिक स्वर्णयुग से ही हम सब जानते हैं। यह एक सिद्ध और आजमाई हुई भाषा है जिसने सैकड़ों वर्षों तक दुनिया के भूखे-नंगे, बीमार-लाचार लोगों और उनकी संभावनाओं पर हुकूमत की है। बहुत ताकत है इसमें, यह विजेता लोगों की भाषा है। सो देश के एक अत्यंत पिछड़े इलाके से आई हुई एक स्त्री जिसे अंग्रेजी नहीं आती वह भला क्या विरोध कर सकेगी एक अंगरेजी समाज के सामने।
बाद में मुझे और साथियों ने बताया कि बैठक में आपने पी॰ एन॰ राय के कृत्य पर दुख प्रकट करते हुए कहा कि आपने उनपर कड़ी कार्रवाई की है, पर साथियों के यह पूछने पर कि क्या कार्रवाई की गई है, आपने कहा कि यह बताना आप जरूरी नहीं समझतीं। संगठन के खास व्यक्तियों के बारे में सारी बातें सार्वजनिक नहीं की जा सकतीं। साथ ही आपने यह कहा है कि पी॰ एन॰ राय द्वारा किया गया दुर्व्यवहार एक स्त्री के उत्पीड़न के दायरे में नहीं आता। एक सार्वजनिक स्थल पर किसी स्त्री के साथ घोर अपमानजनक व्यवहार करना, उसे मानसिक और भावनात्मक रूप से चोट पहुँचाना, संयुक्त राष्ट्र महासभा द्वारा पारित प्रस्ताव और इस देश के संविधान द्वारा लैंगिक उत्पीड़न का ही एक रूप माना गया है। अगर आप नहीं मानतीं तो अवश्य ही इसके पक्ष में आपके पास अकाट्य तर्क होंगे। फिर अगर आप पी॰ एन॰ राय को दोषी मानने से इनकार करती हैं तो यह कहने का क्या अर्थ है कि आपने उन्हें कड़ा दण्ड दिया है ?
सबसे अधिक आश्चर्य मुझे तब हुआ जब मैंने बैठक से लौटकर पी॰ एन॰ राय द्वारा मेरे नाम लिखा गया वह पत्र पढ़ा, जिसे आपने उनके माफीनामे के तौर पर मुझे सौंपा है। जाहिर है यह पत्र आपकी सहमति से, आपके निर्देशानुसार लिखा गया है। यह पत्र एक लोकतांत्रिक संगठन में न्याय की उम्मीद कर रहे किसी भी व्यक्ति के साथ एक भद्दा मजाक ही कहा जा सकता है। आप इस बात से कैसे इनकार करेंगी कि आपने यह पत्र नहीं पढ़ा है।एक भयावह घटना, जिसने मेरे अधिकांश सहकर्मियों, सैकड़ों बच्चों और मुझे दहला दिया था, को अंजाम देने वाला व्यक्ति, उससे भी बड़ी निर्लज्जता के साथ यह कह रहा है कि उसने मेरे साथ जो व्यवहार (?) किया वह व्यवस्था के लिये आवश्यक था। क्या आपने उस व्यक्ति से पूछने की जरूरत महसूस की कि एक महिला सहकर्मी को सरेआम धक्के मारकर शेल्टर से बाहर निकालने की तत्परता और उसके साथ बर्बर कबीलों के जमाने की भाषा का इस्तेमाल कर वह व्यवस्था-पुरूष आखिर किस किस्म की व्यवस्था वहाँ बहाल कर रहे थे ? जिस महिला सहकर्मी के शेल्टर में प्रवेश करने पर उन्हें व्यवस्था भंग होने की भारी चिंता थी, आखिर उसके पीछे क्या वजह थी ? पत्र में उन्होंने खुद को एक समाजसेवक कहते हुए लिखा है कि वे व्यक्तिगत जीवन में महिलाओं को आदर और सम्मान की नजर से देखते हैं - फिर उस दिन की घटना क्या थी ? क्या यह बात उनके सार्वजनिक जीवन और सार्वजनिक स्थलों पर लागू नहीं होती ? पत्र में जो तिथि लिखी गई है वह है - 25-10-2007, और यह पत्र मुझे दिया गया 26-11-2007 को। जाहिर है इतने दिनों तक आपने मेरे माफीनामे या लिखित आश्वासन का इंतजार किया।
26-11-2007 की बैठक के बाद संगठन के पुराने सहकर्मियों ने मुझे साफ तौर पर कहा कि अब मैं संगठन में अपने लिये उल्टी गिनती शुरू कर दूँ - क्योंकि बैठक में जैसी बातचीत हुई है, उससे यही संकेत निकलते हैं। वैसे भी पी॰ एन॰ राय के कारगुजारियों की शिकायत करके मैंने बड़ी आफत मोल ले ली है, और संभव है मुझे इसकी भारी व्यक्तिगत कीमत चुकानी पड़े। लेकिन आपके नेतृत्व और संगठन में मेरा विश्वास पहले की तरह दृढ़ है और मैं मानती हूँ कि संगठन से न्याय की उम्मीद करते हुए मुझे और इंतजार करना चाहिये।
आदर सहित,
उषा
अध्यापिका,बटरफ्लाइज ।
Saturday, April 26, 2008
एनजीओ और दलितप्रश्न
सीपीएन (माओवादी) के मुखपत्र "द वर्कर" की लेखमाला "जन युद्ध और दलित प्रश्न" के जन विकल्प द्वारा अनूदित एवं प्रकाशित आलेख से कुछ अंश साभार
Oh, What A Racket!
Publication: Outlook
Date: September 22, 2003
Introduction: The hills are alive with the buzz of self-seeking NGOs, many existing only in name
Lush forests are not the only bounty that Uttaranchal got in its kitty after it became a state in November 2000. It also got close to 45,000 NGOs— mind-boggling for a state so tiny, with a population of only 84.7 lakh. Records from the offices of the chief commissioner of income tax and the registrar of societies confirm this huge NGO presence. What has also come as a surprise to the authorities is the unusually high density of NGOs in a state with 13 districts. That's nearly 4,000 NGOs per district!
When Uttaranchal's IT commissioner Ashwini Luthra initiated a survey of NGOs in May, he did not expect to chance upon a fraud that runs into crores of rupees. "When the IT department started collecting data, we found that many NGOs did not actually exist or were non-functional," says Luthra. "Yet, money is being pumped into trusts, educational societies, NGOs and ashrams all over Uttaranchal."
While the IT office lists a total 44,824 groups, the office of the registrar puts the figure at 41,826.
No wonder then that Uttaranchal's NGO community is rife with allegations of corruption and diversion of funds. Amidst the profusion, one can find registered NGOs such as the Mahila Vikas Sansthan and Priyadarshini Himalayan Seva Institute that don't exist at their addresses, educational societies that have run up huge accounting discrepancies, and blacklisted NGOs that are ostensibly unaware of their disrepute.
Take, for instance, the Bal Evam Mahila Kalyan Sansthan in Dehradun's Nehru Nagar. This NGO has been blacklisted by the Central Social Welfare Board (CSWB) for "non-refund of loans and non-submission of accounts", but its founder-director Parmanand Agarwal denies it outright. "In the past, we have run a tailoring centre, training sessions for making incense sticks and health relief camps with funds from CAPART. Who says we have been blacklisted?" asks Agarwal. He took voluntary retirement from the army to pursue his "mission", which is to provide "literacy, health and employment for the people of Uttaranchal". His tiny one-room office, which sits atop his residence, houses the meagre tools of his mission: a computer, a typewriter, two desks, government pamphlets and a telephone.
Since 2001, Agarwal's NGO has been running a tele- counselling centre for HIV/AIDS under a Rs 2.74 lakh grant from the National AIDS Control Organisation. "People call every few minutes asking about HIV/ AIDS," he informs us and opens a register to show calls recorded at two-minute and three- minute intervals. However, in the one hour we sat in his office, there was not a single call. Agarwal insists it is because it's "lunch break", presumably for callers too. Neither he nor his colleague Dinesh Chand seem to know much about HIV/ AIDS. "Hum pamphlet se padh ke batate hain (We read out answers to queries from the pamphlets)," explains Chand.
Faced with reports and allegations of such misconduct, Dehradun's district magistrate ordered a survey of registered NGOs and societies in June last year. Dehradun district is home to 7,469 NGOs, the largest concentration in the state. The initial results of the survey show that of 223 organisations checked so far, 139 NGOs and societies are fraudulent or registered only on paper. "It is quite evident that barely 10 per cent of the NGOs in Dehradun district are functional. The rest just sit there, waiting for funds to come by," says chief development officer P.S. Jangpangi. He says the situation in the rest of Uttaranchal is "even worse".
Examination of bank accounts has yielded irregularities in the funds of many NGOs. The Van Karamchari Welfare Society, for instance, could not identify the source of Rs 4.6 lakh in its bank account when questioned by officials of the District Programmes Office (DPO).Setting up schools appears to be another racket. In October last year, a survey of educational societies by the IT department showed unaccounted funds to the "tune of several crores", says an IT official. However, Devender Mann, chairman of the Doon International School Education Society (not to be confused with the renowned Doon School), which is one of the schools surveyed, dismisses it as "baseless". "We are a no profit, no loss society. All the money we earn from students is spent on improving school facilities," he says.
Furthermore, a rough estimate by the registrar's office shows that nearly 10,000 NGOs and societies have been registered since Uttaranchal was created. "After schools, NGOs are the sunrise industry," says Geetanjali, a social worker with the development NGO Rural Litigation and Entitlement Kendra (RLEK).
"Many paratroopers, lured by the funds on offer for a newborn state, have come in and set up NGOs," alleges RLEK chairman Avdhesh Kaushal. Uttaranchal is one of the few states that enjoys special status with regard to central government development funds. Besides, several international aid agencies too have pitched their tents here. "There is money to be had, respect to be earned and very little work to be done. No wonder, starting an NGO is a very attractive option," says Kadambari Gosain, who helps her husband S.S. Gosain run the Kunwari Human Development Institute in Dehradun.
The Gosains, however, have run into financial difficulties and now run private vocational training courses even though their institute is registered as a 'no profit, no loss' one. "We are poor and honest. Why don't you talk to all those relatives of government officials who have also started their own NGOs?" asks Gosain.
There is much speculation among the NGO community about the wives of Uttaranchal's bureaucrats running NGOs to line their pockets. But in the absence of any proof, the suspicion is mostly based on observation and hearsay. "These NGOs never participate in workshops and meetings, so we don't know what they do. They say they have no sources of funds but they bring out glossy calendars and stationery every year," says J.M. Singh of NGO Mamta Samajik Kendra, which works on health- related issues in the Chakrata region.
The government policy itself may be a reason for the mushrooming of NGOs. Says Sushil Sharma of Aarohi, which has been working in the Nainital-Almora region for 15 years, "Top government officials have been mindlessly promoting development through the creation of women's self-help groups, which are registered as societies." At present, registered mahila and yuva mandals, which are intended as grassroots empowerment groups for women and the youth under a CSWB scheme, number 20,401. Meanwhile, Singh argues that development NGOs should be registered separately from religious, cultural and educational societies in order to bring the number down to "manageable" levels.
Uttaranchal is not the only state in the country with such a large number of registered NGOs and societies—Maharashtra has approximately 50,000.But the number is suspect because of the state's size. According to Sanjay Bapat of the website www.indianngos.com, which maintains a database of NGOs in India, of the 20 lakh registered NGOs and societies in the country, only 30,000 or so are actually doing developmental work. How many of these are in Uttaranchal is anybody's guess.
Thursday, April 24, 2008
रीटा पणिक्कर के नाम पहला पत्र
सेवा में,
निदेशक,
बटरफ्लाइज , ग्रीन पार्क एक्सटेंशन ,नई दिल्ली-110016।
विषय:- फतेहपुरी नाइट शेल्टर में एक वरिष्ठ सहकर्मी पी० एन० राय और उनके उकसावे पर केयर टेकर कलाम द्वारा मेरे साथ लगातार किये जा रहे दुर्व्यवहार और मानवाधिकार हिंसा के बारे में।
आदरणीया रीटा जी,
नमस्कार।
मैं यह पत्र आपको इसलिये लिख रही हूँ क्योंकि अब इसके अलावा मेरे पास और कोई विकल्प नहीं रह गया है। एक महिला होने की वजह से जैसा भेदभाव और हिंसक व्यवहार मेरे साथ हो रहा है मुझे इसपर काफी दुख भी है और आश्चर्य भी। आश्चर्य इसलिये कि मैं अबतक यही समझती रही कि जिस संगठन में मैं काम कर रही हूँ वह किसी भी किस्म के मानव अधिकारों के दमन के खिलाफ तो है ही साथ ही इस संगठन के कुछ मूल्य भी हैं, जिनसे पूर्ण सहमति का वादा लेने के बाद ही इस संगठन से कोई जुड़ सकता है, और जिस एक बात से संगठन के अंदर मानवीय और न्यायपूर्ण माहौल की उम्मीद बनती है वह है एक महिला का संगठन में शीर्ष पर होना। पर मुझे दुख के साथ यह स्वीकार करने में कोई हिचक नहीं है कि अबतक के अनुभव ने संगठन और इसके ढाँचे पर मेरे विश्वास को कम ही किया है। क्या ऐसे संगठन को लोकतांत्रिक कहा जा सकता है जहाँ निष्ठापूर्वक काम करनेवालों के साथ जानवरों-जैसा सलूक किया जाए और विरोध की आवाज को धमकियों और हिंसक व्यवहार से दबाया जाए ? सवाल उठता है कि जब बाल अधिकारों के लिये काम कर रहे कार्यकर्ता स्वयं ही उत्पीड़न के शिकार हों तो उस संगठन में बच्चों के अधिकारों की कितनी सुरक्षा हो सकेगी - उनमें भी वैसे बेघर और बेसहारा बच्चे, जिनके साथ हर कदम पर छल ही होता आया है ?
गौरतलब है कि -
(1) विगत 22-10-2007 को अपनी कार्ययोजना (वर्क प्लान) के अनुसार जब मैं फतेहपुरी नाइट शेल्टर में कक्षा लेने पहुँची तो कक्षा के वक्त बच्चों से व्यवस्था-सम्बंधी कार्य कराये जा रहे थे। मेरे द्वारा हस्तक्षेप करने पर केयर टेकर कलाम ने बच्चों के सामने ही मुझसे अपमानजनक व्यवहार किया और कहा कि यहाँ मेरा राज चलता है। आपको जिससे शिकायत करनी हो करके देख लीजिये, मेरा कुछ बिगड़ने वाला नहीं है। बड़ी मुश्किल से बच्चों की कक्षा ली जा सकी, क्योंकि माहौल काफी अशांत हो चुका था।
(2) अगले दिन 23-10-2007 को जब मैं तय समय पर दुबारा फतेहपुरी पहुँची तो शेल्टर के गेट पर ही वरिष्ठ सहकर्मी पी० एन० राय ने अत्यंत भद्दे और अपमानजनक तरीके से मुझे रोक दिया और कहा कि मुझे अंदर नहीं जाने देंगे। उस समय वहाँ काफी संख्या में अन्य सहकर्मी और बच्चे उपस्थित थे और यह दृश्य देख रहे थे। जब मैंने उनसे इस दुर्व्यवहार का कारण जानना चाहा तो उन्होंने कहा कि इस संगठन में केवल उनकी मर्जी चलती है और अगर इस संगठन में रहना है तो उनके इशारे पर चलना होगा। उन्होंने दुबारा मुझसे कहा कि फौरन यहाँ से निकलो वरना धक्के मारकर निकाल दूँगा। चूँकि पूरी घटना मुख्य गेट पर घटित हो रही थी इसलिये बाहर भी काफी लोग जमा हो गये थे जो अजीब तरीके-से मुझे घूर रहे थे। मैं खुद को अत्यंत अपमानित महसूस करती हुई करीब आधे घंटे तक गेट के बाहर खड़ी रही और उसके बाद मैंने ऑफिस में इस घटना की सूचना दी।
यह सारी बात आपके सामने रखते हुए मैं आपसे यह जानना चाहती हूँ कि क्या -
(1) ऐसे माहौल में संगठन में किसी महिला का सम्मानजनक तरीके से काम करना संभव है ?
(2) क्या एक लोकतांत्रिक और मानवाधिकारों के लिये काम करने वाले संगठन में किसी व्यक्ति को, चाहे वह किसी भी पद पर हो, किसी महिला सहकर्मी का उत्पीड़न करने की छूट दी जा सकती है ? अगर नहीं तो ऐसे व्यक्ति को संगठन में रखने की क्या मजबूरी हो सकती है ?
(3) शेल्टर के बच्चों, दूसरे सहकर्मियों और बाहरी व्यक्तियों के सामने महिला सहकर्मी के साथ इस तरह का बर्ताव करना संगठन के किन मूल्यों का परिचय देता है ?
(4) इन दिनों चूँकि मैंने कई बार अपने साथ किये जा रहे दुर्व्यवहार की शिकायत मौखिक तौर पर की है और हर बार मुझे यह सुनना पड़ा है कि यहाँ विरोध करने वाले को अंततः संगठन छोड़ने पर मजबूर कर दिया जाता है। क्या मैं यह समझूँ कि मेरे साथ भी यह सब इसी वजह से किया जा रहा है कि मैं भी अपना आत्मसम्मान बचाने के लिये यह संगठन छोड़ दूँ, जिस तरह दूसरे सहकर्मी छोड़ते रहे हैं ?
चूँकि सड़क के बच्चों के लिये काम करना मेरी व्यक्तिगत प्रतिबद्धता है और मुझे उन जिम्मेदारियों का भी एहसास है जो इस संगठन से जुड़ते वक्त मैंने ली थी, इसलिये मैं ये सारे सवाल आपके और संगठन के सामने रख रही हूँ। इस उम्मीद के साथ कि एक सामाजिक और लोकतांत्रिक संगठन अपने मूल्यों को किसी एक व्यक्ति की व्यक्तिवादी प्रवृत्तियों पर कुर्बान नहीं होने देगा और समुचित कार्रवाई करेगा, ताकि बेघर और मुसीबतजदा बच्चों तथा बाल अधिकार कार्यकर्ताओं के सम्मान और अधिकारों की सुरक्षा की जा सके एवं उन्हें एक गरिमा से पूर्ण माहौल दिया जा सके।
विश्वासभाजन,
उषा
अध्यापिका, बटरफ्लाइज।
Tuesday, April 22, 2008
रीटा पणिक्कर के नाम एक खुला पत्र
आदरणीया निदेशक ,
बटरफ्लाइज , यू -४, ग्रीनपार्क एक्सटेंशन , नई दिल्ली - 110016।
महोदया,
अपने ईमेल से भेजे गये पिछले चार पत्रों के समुचित जवाब और न्याय की उम्मीद करते हुए जितना लम्बा समय मैंने धैर्यपूर्वक इंतजार करते हुए बिताया है इस बात से आप और संगठन के सभी सदस्य भलीभाँति परिचित हैं। अपने साथ हुए भयावह दुर्व्यवहार के दोषी पी॰ एन॰ राय पर कड़ी कार्रवाई की मांग करते हुए पहला पत्र मैंने 24 अक्टूबर 2007 को भेजा था और उसके बाद क्रमशः 03 दिसम्बर, 06 दिसम्बर और 15 जनवरी 2008 को अन्य पत्र भेजे। न्याय की मेरी इस मांग के समर्थन में तथा पी॰ एन॰ राय को ऐसे आपराधिक कृत्य के लिये संगठन से बाहर निकालने की पुरजोर मांग करते हुए संगठन के 25 से अधिक सदस्यों ने आपको प्रतिवेदन दिया था। पूरे संगठन की भावना और मानव अधिकारों के साथ खिलवाड़ करते हुए आपने पी॰ एन॰ राय को बचाने में भूखे-नंगे, बेघर-बेसहारा बच्चों के नाम पर इकट्ठा किये गये पैसों को पानी की तरह बहाया। बेघर बच्चों को आश्रय देने के नाम पर बटोरी गई राशि कुछ जेबों में जाती रही और बच्चे भूख, मौसम और पुलिस की मार सहते हुए फुटपाथों पर दम तोड़ते रहे।
वैसे ये बातें आप जैसे बाल अधिकार का व्यवसाय करने वाले लोगों के लिये कुछ खास महत्व की नहीं हैं यह बात जगजाहिर ही है।अपने साथ हुए बर्बर दुर्व्यवहार की शिकायत करते हुए 24 अक्टूबर को आपके नाम भेजे गये मेरे पत्र की तारीख से लेकर अबतक करीब चार महीने गुजर चुके हैं और इस बीच आपने जो भी हथकंडे अपनाये हैं उनसे साबित हो चुका है कि आप पी॰ एन॰ राय पर कार्रवाई की मांग करने वाले संगठन के सभी सदस्यों को हर कीमत पर कुचल देना चाहती हैं। बर्बर कबीलाई आचरण में अब आपने पी॰ एन॰ राय को भी पीछे छोड़ दिया है। पूरे संगठन के कड़े विरोध के बावजूद अपने जरखरीद और ईमान की दुकानदारी करने वाले कुछ लोगों को जुटाकर आपने भानुमति का कुनबा जोड़ा और उसे जाँच कमिटि के नाम पर इस मामले को दबाने, कुचलने की खुली छूट दे दी। इस जाँच कमिटि के सदस्यों ने मेरे तथा कुछ अन्य सहकर्मियों के साथ जैसा बर्ताव किया उसे देखते हुए यही कहा जा सकता है ये लोग किसी पुलिसिया एनकाउण्टर दल के लिये सबसे योग्य उम्मीदवार हो सकते हैं। मानवाधिकारों के इन बड़े और मँझे हुए खिलाडियों की सलाह से आपने सबसे पहले एक-एककर उन लोगों को संगठन से बाहर निकाला जो इस मामले के प्रत्यक्ष गवाह थे (मो॰ आजाद, सुनील, डॉक्टर प्रदीप, तेजपाल, सादिक, सुनील कुमार, अशरफ और मनोज) और किसी भी कीमत पर बिकने को तैयार नहीं थे।शेष बचे सदस्यों को डराने, धमकाने और ब्लैकमेल करने में आपने कोई कसर नहीं छोड़ी। वर्तमान में भी साथी ऋषि और मोनिका को हर स्तर पर प्रताडि़त किया जा रहा है और यदि उन्होंने भी झुकना कबूल नहीं किया तो आश्चर्य नहीं कि जल्दी ही उन्हें भी संगठन से बाहर का रास्ता दिखा दिया जाए। आपके इस अभियान में प्रमुख भूमिका निभा रहे तीनों नुमाइंदे जावेद, सत्यवीर और पी॰एन॰राय जिनके कुकर्मों के बल पर आप अब तक बच्चों का कारोबार चलाती रही हैं और सड़क पर रहने वाले बेघर, बेसहारा बच्चों के बीच आतंक फैलाती रही हैं, पिछले चार महीनों से संगठन के बाल अधिकार कार्यकर्ताओं और बच्चों को डराने, धमकाने के साथ-साथ जान से मारने की धमकी देते फिर रहे हैं।
दरअसल प्रारम्भ में सरकार की आलोचना कर सहानुभूति बटोरने वाले और देशी-विदेशी धनकुबेरों तथा थैलीबाजों को झूठी तस्वीरें दिखाकर भ्रमित करने वाले आप जैसे लोग संगठन को अपनी जागीर समझते हैं और इसीलिये जबान खोलने वाले सहकमिर्यों (अथवा कर्मचारियों) को कुचलने में नीचता की सारी हदें लांघ जाते हैं। चूंकि आप जैसे लोग सोशल सेक्टर को पैसा बनाने का सबसे सुरक्षित जरिया मानते हैं इसलिये आपका सबसे बड़ा मूल्य पैसा है। आपके इस व्यवसाय में बाधा डालने वाले आपके लिये बड़े दुश्मन हैं। यह अकारण नहीं है कि सड़क के बच्चों को ड्रग्स की सप्लाई करने वाले, उन्हें भीख मांगने और देह व्यापार करने के लिये मजबूर करने वाले माफिया और ठेकेदार तथा पुलिस वाले जो छोटे-छोटे बच्चों को बेरहमी से मार-पीटकर उनसे ड्रग्स बिकवाते और उनका भयावह दैहिक मानसिक शोषण करते-करवाते हैं आपके अघोषित मित्र हैं जिनका विरोध करने की बजाय आप लोग उनसे गलबहियाँ डाले रहते हैं।
चार महीनों के अपने प्रशासनिक प्रहसन की अगली कड़ी में यह भी सम्भव है कि आप उस मुर्दा फर्जी जांच कमिटी को फ़िर से सामने ले आयें पर अब यह गुलाम कमिटी और आपके अपर्णा भट्टों एवं योगेश मेह्ताओं जैसे कारिंदे , जिनका सरोकार ही मानवाधिकारों का व्यवसाय कर पैसा बनाना है , भी आपके हित में कोई करिश्मा कर पाने में कामयाब नहीं हो सकेंगे। आपने अपने अपराधों की फेहरिस्त इतनी लम्बी कर ली है कि कोई भी साबुन उसे धो नहीं सकेगा।
आपका यह मानवविरोधी चरित्र उस तथाकथित कम्युनिस्ट पार्टी (पीसीसी सीपीआई एमएल) के चरित्र को भी उजागर करता है जिसके स्वनामधन्य नेताओं और कार्यकर्ताओं के प्रयास से बटरफ्लाइज की स्थापना हुई थी और आज भी जिसके कुछ नेता इस संगठन के सिपहसालार और संरक्षक बने हुए हैं। जाहिर है इसके एवज में उन्हें हर महीने एक मोटी रकम बतौर नजराने मिलती है। छिः यह पार्टी खुद को सर्वहारा का हितैषी कहती फिरती है। इस देश का इससे बढ़कर दुर्भाग्य भला और क्या हो सकता है ?
कुछ और भी संगठन जिनमें पीयूडीआर (पीपुल्स यूनियन फॉर डेमोक्रेटिक राइट्स) आदि शामिल हैं, का मानवतावादी नकाब उतारने में इस घटना ने बड़ी भूमिका निभाई है। बटरफ्लाइज निदेशक के काले कारनामों की शिकायत लेकर जब संगठन के दर्जनों सदस्य इस संगठन के पास गये और हस्तक्षेप की मांग की तो पहले तो उन्होंने सहयोग का भरोसा दिलाया और बाद में बेशर्मी से पीछे हट गये। यह बात साबित करती है कि इस हम्माम में सब नंगे हैं। मुक्तिबोध के शब्दों में कहें तो- ‘‘हाय हाय मैंने उन्हें देख लिया नंगा, अब इसकी मुझे और सजा मिलेगी !"
सार्वजनिक पैसों का इतना निर्लज्ज दुरुपयोग और संस्थाबद्ध भ्रष्टाचार एवं शोषण का ऐसा वीभत्स प्रदर्शन विरले ही देखने को मिलता है। समाज के संवेदनशील , जनपक्षधर और प्रगतिशील लोगों की ऐसी घटनाओं के प्रति मुर्दा खामोशी सचमुच एक अज्ञात रहस्य की तरह है। क्या हम सब हत्यारों के साझीदार हो गये हैं ? क्या साम्राज्यवाद हर विरोध को सहमति में बदलने में कामयाब हो गया है ? अगर नही तो इस नपुंसक चुप्पी की और क्या वजह हो सकती है ? फैज अहमद फैज की ये पंक्तियाँ दुहराने का माकूल वक्त है यह शायद-
‘‘बोल कि लब आजाद हैं तेरे बोल जबाँ अब तक तेरी है
तेरा सुतवाँ जिस्म है तेरा बोल कि जाँ अब तक तेरी है
देख के आहंगर की दुकाँ में तुन्द हैं शोले सुर्ख है आहन
खुलने लगे कुफलों के दहाने फैला हर इक जंजीर का दामन
बोल ये थोड़ा वक्त बहुत है जिस्म-ओ-जबाँ की मौत से पहले
बोल कि सच जिन्दा है अब तक बोल जो कुछ कहने हैं कह ले।"
हर खासो-आम की अदालत में और जिन्दा लोगों के सामने इस पूरे मामले को रखते हुए मुझे पूरी उम्मीद है कि लोग इस गहन अंधकार के खिलाफ एकजुट होकर बदलावकारी हस्तक्षेप करेंगे।
उषा ,
संगीत अध्यापिका,बटरफ्लाइज ।
Saturday, April 19, 2008
जितेन्द्र की मौत से उठते सवाल
dear friends,
we weep this morning to mourn an unknown boy jitender who died a lonely completely avoidable death of tb. his last breadths were on a hospitall bed in lnjp hospital with a young caring doctor and some volunteers by his side. but till just a day earlier, he was wasting between railway tracks on new delhi railway station.
in dil se, we need to craft (and resource) a community health initative for the streets (and our hostels). we have a small proposed plan. we wanted to invite you all to a brainstorming for this, at B102, Sarvodaya Enclave at 5 pm on 20 july. i do hope that you can make it. thank you for your time and solidarity.
warm regards,
harsh
Harsh Mander,Aman Biradari,
R38-A, South Extension Part 2,New Delhi 110049.
Human history is not only a history of cruelty, but also of compassion, sacrifice, courage, kindness. What we choose to emphasize in this complex history will define our lives. Howard Zinn.
आदरणीय हर्ष सर,
नमस्कार
जितेन्द्र की मौत की ख़बर सुनकर मुझे गहरा सदमा पंहुचा है क्योंकि मैं उसके साथ विगत ५-६ महीनों से व्यक्तिगत रूप से जुड़ा हुआ था, पर मुझे जिस एक और बात से काफी आघात पंहुचा है वह यह कि आपने उसके नाम से जो एक अपील -नुमा पत्र अपने कुछ मित्रों को भेजा है (जो मेरे किसी मित्र ने मुझे फोरवर्ड किया है) उसमे जितेन्द्र के बारे मे आधा ही सत्य लिखा है जबकि आप विगत ४-५ महीनों से जानते थे कि जितेन्द्र को टी.बी. है. चार महीने पहले मैंने वरुण और राजेश भाई के साथ मिलकर एल एन जे पी हॉस्पिटल मे उसका इलाज शुरू करवाया था और उसके बाद जितेन्द्र मार्च के महीने मे सराय बस्ती हॉस्टल मे शिफ्ट हो गया था .
शुरुआत के कुछ दिनों तक हमारे अतिरिक्त प्रयास से उसका इलाज भी चला पर चूंकि आपकी और संगठन की उसमे बिल्कुल भी दिलचस्पी नही थी इसलिए बाद मे उसके लिए एक ही विकल्प बच गया था कि वह सराय बस्ती मे पड़ा पड़ा अपनी मौत के दिन गिनता रहे। तबसे लेकर एक-दो सप्ताह पहले तक , जब उसे अन्तिम बार किंग्सवे कैंप टी.बी. सेंटर मे सराय बस्ती के कुछ बच्चे अकेला छोड़ गए ,जितेन्द्र के साथ कभी सम्मानजनक बर्ताव नही किया गया .
इसलिए आपका यह लिखना अर्धसत्य है कि अस्पताल मे भरती कराने के ठीक एक दिन पहले वह रेलवे स्टेशन पर ट्रैक के बीच मे पड़ा मिला था। मैं या मेरे जैसे मित्र जो अच्छी तरह से उन हालात से परिचित थे जिनसे जितेन्द्र लगातार संघर्ष कर रहा था, वे कभी भी यह कबूल नही करेंगे कि जितेन्द्र की मौत को महज एक द्रवित करने वाली घटना मानकर थोड़े नकली आंसू बहा लिए जाएँ और सचमुच की उस बड़ी गैरजिम्मेदारी से बच निकला जाए जो जितेन्द्र की असमय मौत से साबित हुई है ।
जितेन्द्र की मौत से कई ऐसे सवाल उपज रहे हैं जिनके जवाब देने की ज़िम्मेदारी से हम बच नही सकते –(१) मार्च के महीने में जब जितेन्द्र को सराय बस्ती हॉस्टल में शिफ्ट कराया गया तो क्या उसके इलाज के लिए पर्याप्त इंतजाम किए गए थे ?(२) टी.बी. के एक ऐसे मरीज़ के लिए जिसने पहले ही जीने की आस छोड़ दी थी , उस हॉस्टल में क्या सुविधाएं मुहैया कराई गयी थीं ? हम सभी इस बात को जानते हैं कि हॉस्टल में खाना, पानी, इलाज और सफ़ाई को लेकर कितनी लापरवाही बरती जाती रही है और मरीज़ की बात छोड़ दें वहां तो सामान्य बच्चों के लिए भी हमेशा इन्फेक्शन का खतरा बना रहा है ।(३) जितेन्द्र लगभग तीन महीनों तक सराय बस्ती हॉस्टल में रहा और इस बीच उसके इलाज को लेकर जिस भयानक आपराधिक किस्म की लापरवाही बरती जाती रही , इस बात को तमाम पुराने साथी कबूल करेंगे. उसके नाम पर जो दूध, फल आदि आते थे उसे दूसरे लोग खाते थे और उसकी दवाइयों के पैसों से फिल्मो की सीडी मंगाई जाती थी.(४) क्या यह सच नही है कि अपने इलाज में बरती जा रही लापरवाही से जितेन्द्र अत्यन्त दुखी था और उसने हममे से ज्यादातर लोगो को यह बात बताई थी कि उसका इस संगठन और हॉस्टल प्रशासन से पूरी तरह भरोसा उठ चुका है – कि सभी उसके मरने की प्रतीक्षा कर रहे हैं – कि वह ख़ुद को बहुत ही असुरक्षित और अकेला महसूस कर रहा है ?(५) जब ज़्यादा तबीयत बिगड़ने पर उसे पहले एल एन जे पी और बाद में किंग्सवे कैंप टीबी सेंटर भेज दिया गया तो क्या यह सच नही है कि उसके साथ जो दिलीप नाम का बच्चा होता था केयर टेकर के तौर पर , उसे पानी और इमर्जेंसी की दवाइयाँ खरीदने तक के पैसे नही दिए जाते थे और वो बेचारा दो-दो दिनों तक मरीज़ के साथ भूखा-प्यासा हॉस्पिटल में बैठा रहता था.(६) अगर ऐसे हालत में जितेन्द्र किंग्सवे कैंप से भाग कर फ़िर न्यू डेल्ही रेलवे स्टेशन आ गया था तो उसके पास इसके अलावा और कौन सा विकल्प था ? और क्या जितेन्द्र ही अकेला ऐसा बच्चा था सराय बस्ती हॉस्टल का जिसके साथ ऐसा अमानवीय व्यवहार किया गया ? क्या आरिफ , जो ब्लड कैंसर से पीड़ित था उसके साथ भी यही व्यवहार नही हुआ और बाद में अपनी ज़िम्मेदारी से बचने के लिए उसे चाइल्ड वेलफेयर कमिटी जिसे आप ख़ुद बच्चों के खिलाफ बर्बर कार्रवाई करने वाली एक संस्था के रूप मी बताते रहे हैं, के हवाले कर दिया गया?ये सारे ही सवाल अत्यन्त अप्रिय लगने वाले हैं पर क्या एक ऐसे व्यक्ति को जो बच्चो- खासकर सड़क के बच्चो के लिए बेहतर दुनिया बनाने के नारे के साथ अभियान चला रहा हो , इन सवालों से बच कर निकलने का रास्ता दिया जाना चाहिए ?आप लिखते हैं कि जितेन्द्र जैसे बच्चों की मदद के लिए एक (स्ट्रीट बेस्ड ) कम्युनिटी हैल्थ इनिशिएटिव तुरंत शुरू करने के लिए आपने एक प्लान तैयार किया है ……ताज्जुब है… जितेन्द्र की मौत सड़क पर निराश्रित पड़े हुए किसी बच्चे की मौत की घटना भर नही है बल्कि यह ऐसे बच्चों के नाम पर देश-विदेश से धन लेकर शुरू किए गए हॉस्टल और केयर एंड प्रोटेक्शन के दावे के औचित्य पर भी एक सवालिया निशान है ।वास्तविकता तो यह है कि अब इस नारे के पीछे की असलियत खुलकर सामने आ गई है और ज़्यादा दिनों तक सड़क के बच्चों की उम्मीदों के साथ छल करने की इजाज़त किसी को नही दी जा सकती. इन ज़रूरी सवालों के जवाब अब लिए जाने चाहिए तभी जितेन्द्र जैसे बच्चो को न्याय मिल पाएगा .आपसे एक बार फ़िर मेरा यह निवेदन है कि आप प्लीज सड़क के बच्चों को उनके हाल पर छोड़ दें ताकि वे कम से कम जीवित तो रह सकें । जबरन इन बच्चों (?) की मदद करने की आपकी कोशिशों ने उनका जीना दूभर कर दिया है .आशा है आप अन्यथा नही लेंगे .
सादर,
अभिषेक शर्मा(अमन साथी) ।
१८-०७-२००७, नयी दिल्ली।
Tuesday, April 15, 2008
my feelings on loss of my friend: Jitender
Greetings! Dear friends I am writing here to share my deep feelings for the close friend I made from the streets who reached my heart, the friend named jitender who I unfortunately lost due to his prolonged i'll health... the pain I feeling in my heart for this valuable loss is something I am unable to define in words... I believe we cud have helped Jitender fight out and survive this avoidable death and somewhere deep within me I feel myself responsible for this failure that even after getting him admitted in T.B. hospital, somehow follow up could not be made and I specially wasn't able to follow up... due to my own accident after which I myself was on long bed rest... after me recovering from my wounds, when i was back on work after a long break/gap when I came to know about Jitender's then present condition I found him between the railway tracks instead of the hospital in a condition that his 17 year old boy was in a totally naked condition between two railway tracks and in that condition he resembled like a skeleton with only bones left in his body weighing around only 10 kgs... a condition which was hard to look at so I wonder how he was surviving it.
when I asked him how and why did he reach back to new delhi railway station?... Jitender replied to me, "bhaiya wahan log sab marr rhe the.. me bhi marr jata... isliye me wahan se bhag aya" ....... and I still believe if I were there I would have been able to stopped him from running away from the hospital...
I still believe that this untimely death of my friend Jitender could have been avoided by our a little more efforts and care. what I feel is the urgent need now is to maintain proper follow ups as a team effort and get more serious and careful so that such unfortunate incidents do not take place in future। we should try and get more efficient on our own responsibilities instead of playing blame game. Lastly, it is just that I shall miss my friend Jitender who will forever stay in my heart as a close friend that I had found...
May his soul rest in peace...
Warm Regards
Varun (luckey)
जितेन्द्र के बारे में जो अब नहीं है
वरुण और मेरे अजीज़ दोस्तो,
नमस्कार।दो दिनों पहले जितेन्द्र की दुखद मौत की सूचना मिली. व्यक्तिगत रूप से मैंने क्या खोया है यह बता पाना मेरे लिये मुश्किल है. उन अभागे और शर्मसार कर देने वाले दो-तीन लोगों मे मैं भी शामिल था जिन्होंने पहले पहल एल एन जे पी हॉस्पिटल मे जितेन्द्र को दाखिल करते हुए उसे यह भरोसा दिलाने का अपराध किया था कि हम टीबी से उसके अनथक संघर्ष मे हमेशा उसके साथ खड़े होंगे. हालांकि तब मुझे बिल्कुल भी गुमान नही था कि अपने खून-पसीने से सींचकर जिस अभियान की हम बुनियाद रख रहे हैं उसका केवल गुम्बद ही प्रकाशमान हो रहा है और रोशनी को नीचे तक लाने के लिये बेताब हाथों को जड़ से अलग कर देने की वसीयत है ।
धूमिल ने " अकाल" शीर्षक कविता मे एक जगह लिखा है.......".बच्चे हमे बसंत बुनने मे मदद देते हैं"......सचमुच बच्चे एक बहुत बड़े बाज़ार का हिस्सा हैं. सभी उनकी संभावनाओं की तस्करी करने मे लगे हैं . एक बड़ी जमात है जो सीधे बच्चों का व्यापार कर रही है तो दूसरी तरफ़ एक उससे भी बड़ी और ज़्यादा खतरनाक जमात है जो उनका संरक्षण करने के नाम पर उनका व्यापार कर रही है .भयानक बात यह है कि ये जमात ज़्यादा संगठित, आर्थिक रूप से ज़्यादा समृद्ध है और सभ्यता के महान आदर्शों एवं नैतिकता के सबसे आक्रामक और चकाचौंध पैदा करने वाले नारों-दावों और उदघोष के साथ बच्चों के ऊपर जैसे टूट पड़ी है..............बच्चे उन्हें बसंत बुनने मे मदद देते हैं।
प्यारे दोस्तो, मुझे माफ़ करना, कि मैं पहले से ही भयानक हालातों मे फँसे (या पाब्लो नेरुदा के शब्दों मे - "पत्थर और पत्थर के बीच") बच्चों की जिंदगियों को और कठिन......और असहनीय बना देने वाली उस साजिश मे शामिल था जो दिल से के नाम पर चल रहा था और जारी है. यह सच है कि मैंने वास्तविकता को अनुभव करते ही ख़ुद को अभियान से अलग कर लिया था पर क्या इससे ही मैं उन तमाम अपराधों से मुक्त हो जाऊंगा जिनकी काली छाया हमेशा अपने वजूद के इर्द-गिर्द मैं महसूस करता हूँ ? मेरी तरह ही क्या मेरे और दोस्तों का अंतर्मन उन्हें इस बात के लिये नहीं कचोटता होगा कि क्यों हमने उन बच्चों के दिलों मे ऐसी उम्मीदें जगाईं जिन्हें पूरा कर सकने की कुव्वत हममे कभी थी ही नही . क्या हमे अपने दिल पर हाथ रख कर एक बार यह नही कबूल करना चाहिए कि ..............प्यारे बच्चो हम जिन्हें तुमने टूटकर प्यार किया-हम असल मे झूठे, मक्कार और अव्वल दर्जे के चालाक लोग थे......और ये हमीं हैं....जिन्होंने जितेन्द्र को सड़क से उठाकर हॉस्पिटल-हॉस्पिटल से उठाकर सराय बस्ती- सराय बस्ती से उठाकर किंग्सवे कैंप लाते ले जाते रहे.........ठीक वैसे ही जैसे कोई पौकिट्मार पॉकेट से पर्स निकालने के बाद तबतक उस पर्स को ढोता रहता है जबतक उस पर्स को वह पूरी तरह खाली नही कर लेता.........और इस बीच जितेन्द्र के हालात बदले नही क्योंकि यह हमारा सरोकार भी नही था ............क्योंकि हमारा ज़्यादा ध्यान उन देशी-विदेशी धनकुबेरों की तरफ़ था जिनकी कृपादृष्टि से हम रातों-रात मालामाल होते रहते हैं.........आख़िर इसी दिन के लिये तो हम हर रोज़ हर पल अपनी आत्माओं को मारते रहते हैं.......
जितेन्द्र ट्रैक के बीच लेटा मौत की बाट जोह रहा था , वह क्यों सराय बस्ती मे मरना तक नही चाहता था.....कोई पूछे भाषा के बाजीगरों से, जो दुनिया के लुप्त हो रहे शब्दकोष के सबसे कोमल और लगभग पिघला देनेवाले शब्दों को भी अपने कुत्सित इरादों के लिये इस्तेमाल कर ले रहे हैं........जो भयानकतम अपराध कर चुकने के बाद भी निडर और निर्भीक होकर कहने का माद्दा रखते हैं कि वे तो बिल्कुल पाक-साफ हैं..... कि उनके अलावा इस दुनिया मे और कोई भला कैसे निर्दोष हो सकता है.....वे इतने निर्दोष होते हैं.......कि हमेशा अनजान ही रह जाते हैं......या खुदा. वरुण मेरे भाई, अपने को कमज़ोर न होने दें . जितेन्द्र की मौत का कोई रहस्य नही है..........जो हालात थे सबके सामने थे- जो हालत हैं वे भी सबके सामने हैं.....हाँ कुछ लोग इस मौत को एक रहस्य की तरह पेश करेंगे........ऐसे लोगों की पहचान करने और उनकी नज़रों मे नज़रें डालकर उनके छिपे हुए दांत और नाखून बाहर निकालने का यही वक्त है ताकि फ़िर कोई जितेन्द्र हर बढे हुए हाथ को मौत का हाथ न समझ ले. जितेन्द्र कोई पहला नही था.........कितने ही थे और हैं भी जिन्हें बचाना होगा मौत के सौदागरों से.....हमे अपने दम पर ही आगे बढ़ना चाहिए. इस मुश्किल घड़ी मे मैं हर क़दम पर आपके और उन सबके भी जो सचमुच बच्चों के पक्ष मे खड़े हैं ,साथ हूँ।
आपका अपना,
राजेश चंद्र
Friday, April 11, 2008
हर्ष मंदर के नाम एक खुला पत्र
आदरणीय हर्ष सर ,
Saturday, April 5, 2008
दुनिया किसकी मुट्ठी में?
युगवार्ता डॉट ब्लॉग स्पॉट डॉट कॉम से साभार
अनुदान का खेल
पटना मे जॉब करते हुए मुझे एक बन्दे से मिलने का मौका मिला। जनाब कहने को तो एक NGO चलाते थे, लेकिन उनका असल धंधा अनुदान हासिल कर उसकी मलाई खाना था। खैर ऐसे बन्दे बहुत से है जिनके बारे मे बाद मे बात होगी। अभी अनुदान से सम्बंधित एक बात।- हमारे देश मे अनुदान हासिल करने के कुछ नियम काएदे बने है। विदेशी अनुदान किस व्यक्ति या संस्था को लेने कि इजाजत होगी, इसके लिए 1976 का "विदेशी अनुदान (नियमन ) कानून" मौजूद है। इसी कानून के तहत " centre for equity studis" नाम कि एक संस्था ने कुछ साल पहले विदेशी अनुदान के लिये आवेदन दिया था। लेकिन इस संस्था के आवेदन को ये कह कर खारिज कर दिया गया कि " यह संगठन राजनितिक गतिविधियों मे संलिप्त है।" आपकी जानकारी के लिये ये बता दे कि इस संस्था के निदेशक "हर्ष मंदर " साहब है। दुबारा आवेदन करने और काफी इंतजार करने के बाद जब "मंदर साहब" ने सरकार से ये जानना चाहा कि राजनितिक गतिविधियों का क्या मतलब है तो, कहा गया कि " उन्हें राष्ट्रीय सुरक्षा के कारणों कि वजह से ये नही बताया जा सकता। "- 2004 मे ऊपर लिया गया फैसला 1976 के "विदेशी अनुदान (नियमन ) कानून" के तहत लिया गया था। 2006 मे तथाकथित धर्म निरपेक्ष सरकार ने इस कानून मे संशोधन किया।- किसी भी राज्य के लिए अपने कानून बनाना उसका अधिकार है। लेकिन समाज को इस कानून बनने कि प्रक्रिया कि सतत निगरानी करनी चाहिए। ये इसलिये जरूरी है कि प्रायः आधुनिक राष्ट्र - राज्य खुद को अपने ही नागरिको के विरूद्व सुरक्षित करने के लिए उपाय करते हुए पाये गय है। "विदेशी अनुदान (नियमन ) कानून" मे परिवर्तन कि वजह राष्ट्रीय सुरक्षा का रहा है। - राष्ट्रीय हित, आतंरिक सुरक्षा और राजनितिक प्रकृति के संगठन --ये वो कारण है जिनकी वजह से सरकार ये सुनिश्चित करना चाहती है कि विदेशी अनुदान का इस्तेमाल सिर्फ " सार्थक कार्यो " के लिये किया जाए। कौन से काम सार्थक है इस काम के लिये सरकार ने जिलाधिकारी तय कर रखे है। इसके साथ सरकार ही ये निर्णय करेगी कि कौन सा संगठन " राजनितिक प्रकृति " का है और इसलिये विदेशी अनुदान का पात्र नही है। - --------शिक्षा हो या जन स्वास्थ, लोगो के भोजन का हक हो या सुचना का अधिकार, रोजगार का अधिकार हो या औरतो का अधिकार --इन सारे मुद्दों को किसी ना किसी रुप मे राजनितिक मुद्दा कहा जा सकता है। जल, जंगल और जमीन या रोजगार के हक का मुद्दा तो राजनैतिक है ही। केरल मे कोक के खिलाफ आंदोलन हो या तमिलनाडु मे समंदर किनारे पर्यटन स्थल बनाने के खिलाफ मछुआरों का संघर्ष, जंगल से बाहर किये जाने के खिलाफ आदिवासियो का आंदोलन हो, उड़ीसा, मुम्बई, बंगाल या छत्तीसगढ़, झारखण्ड मे विदेशी कम्पनियों या देशी पूंजी के लिये जमीन अधिग्रहण के खिलाफ अभियान --इनमे से कौन राजनितिक है और कौन सामाजिक?- साम्प्रदायिकता के खिलाफ जनता को शिक्षित करना तो सही मे राजनितिक काम ही है। नए "विदेशी अनुदान (नियमन ) कानून" मे ऐसी गतिविधि को विदेशी अनुदान के लिए अनुचित माना गया है, जो समुदायों के बीच विभेद और वैमनस्य को बढावा देती हो। लेकिन हमे यह पता है कि रामजन्म भूमि आंदोलन से लेकर गुजरात के क़त्ल- ओ - गारत तक या उसके बाद गुजरात, उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, राजस्थान, कर्नाटक, केरल, आदि मे ईसाईयों, मुसलमानो के खिलाफ निरंतर अभियान मे शामिल RSS , विश्व हिंदु परिषद या बजरंग दल को अभी तक राज्य कि तरफ से वैमन्स्यकारी गतिविधि का दोषी नही बताया गया है, जबकि वर्त्तमान सरकार M F hussain कि कलाकृति कि जांच करने के बाद इस नतीजे पर पहुंची है कि वे समुदायों के बीच नफरत पैदा कर सकती है, और उन पर करवाई कि जा सकती है। अगर हुसैन कोई विदेशी अनुदान लेना चाहे तो उन्हें रोका जा सकता है। - विनायक सेन का मामला हो या सरोज मोंहंती कि गिरफ़्तारी का मुद्दा- अगर आप इनके समर्थन मे आवाज उठाते है तो आप कि गतिविधि को राजनितिक मानने का वाजिब कारण सरकार के पास है, और आप को विदेशी अनुदान नही मिलेगा।- जिस देश मे सर्वोच्च ख़ुफ़िया संस्था RSS को सैनिक Training देने कि तैयारी कर सकती है। वहा कौन सी 'राजनीती' देशहित मे है और कौन सी देश विरोधी ? किसकी राजनीती को निष्प्रभावी करने कि कोशिश "विदेशी अनुदान (नियमन) कानून- २००६" का प्रस्ताव कर रहा है?
साभार ,अपूर्वानंद जी
comments:
apoorv said...
is tippani ko jagah dene ke liye shukriya.aapko yah zaroor bata dena chahiye tha ki yah jansatta ke mere niyamit stamhba VILAMBIT mein cchapee tippani ka sampadit roop hain- yaani apke dwara sampadit.is roop mein diye jaane par is tippani ka mool matavay kuch ashpashta sa rah jaata hai. umeed hai aap meri baat ko sahi dhanga se lenge.apoorvanand
5 August, 2007 5:20 PM
Friday, April 4, 2008
पोलियो अभियान के सबक
डॉ. जेकब पुलियन
अब यह स्वीकार किया जा रहा है कि राष्ट्रीय पोलियो उन्मूलन अभियान योजना के मुताबिक नहीं चल पाया है । हममें से कई लागों ने इसे सफल बनाने में दिन-रात एक कर दिए । पोलियो (जो कि मूलत: पानी और स्वच्छता से सम्बंधित समस्या है) पर काबू में करने में बार-बार ओरल (मुंह से दिये जाने वाले) पोलियो टीके के जादुई नुस्खे की नाकामी काफी हद तक पूर्व अनुमानित ही थी । मगर इसके कारण हमारी मायूसी कम नहीं हो जाती । इण्डियन मेडिकल एसोसिएशन की टीकाकरण उपसमिति में इस बात पर काफी बहस हुई कि इस प्रयास की असफलता की बात को सार्वजनिक किया जाए या नहंी । अंतत: अगस्त २००६ में उपसमिति ने फैसला किया कि इस बात को सार्वजनिक करना उसका फ़र्ज है ।
सार्वजनिक करना जरुरी -
राष्ट्रीय ज्ञान आयोग के वर्तमान उपाध्यक्ष डॉ। पुष्पा भार्गव ने १९९९ में यह लेख लिखा था- फाइटिंग दी पोलियो वायरस । यह लेख हिंदू के १२ दिसम्बर १९९९ के अंक में प्रकाशित हुआ था। १९८८ में डॉ. भार्गव एक बैठक में शरीक हुए थे जहां यह फैसला हुआ था कि भारत में पोलियो के इंजेक्शन टीके का उपयोग किया जा चाहिए क्योकि ओरल पोलियो टीके की कारगरता कम है । पोलियो का इंजेक्शन टीका बनाने के लिए गुड़गांव में एक कारखाना भी स्थापित किया गया था। चार वर्षों के बाद १९९२ में , विश्व स्वास्थ्य संगठन की सलाह पर इस योजना को ठंडे बस्ते मंे डाल दिया गया और ओरल पोलियो टीका इस्तेमाल करने का निर्णय ले लिया गया । डॉ. भार्गव ने तत्कालीन प्रधानमंत्री श्री नरसिंह राव , स्वास्थ्य मंत्री तथा स्वास्थ्य सचिव को कई पत्र लिये । डॉ. भार्गव उस निर्णय में शरीक थे जिसमें कहा गया कि ओरल पोलिया टीका भारत के लिये अनुपयुक्त है । लिहाज़ा उन्होंने यह जानना चाहा था कि किन प्रमाणों के आधार पर सरकार ने ओरल टीके का उपयोग करने का निर्णय लिया है । उन्हेांने यह भी जानना चाहा था कि इण्डियन वेक्सीन कॉर्पोरेशन लिमिटेड ने इंजेक्शन टीका उत्पादन के लिये जो ५० करोड़ रुपए का निवेश किया है उसका क्या औचित्य रह जाएगा । उनके पत्रों के जवाब नहीं दिए गए । अंतत: उन्होंने एक लेख लिखा । अपने लेख में उन्होंने निष्कर्ष स्वरुप कहा था- यदि निर्विवाद रुप से यह बताया जा सके कि ओरल पोलियो टीका कारगर रहा है, तो सबसे ज्यादा खुशी व तसल्ली मुझे मिलेगी । बदकिस्मती से आज उपलब्ध प्रमाण इस मत के विरुद्ध जाते हैं । इसलिए संभावना यही दिखती है कि कीमती समय और धन गंवाने के बाद पोलियो की नियति वही होगी जो बीसीजी (टीबी के टीके) की हुई थी। आने वाले दिनों के घटनाक्रम ने इस वक्तव्य की सत्यता को साबित किया है ।
सार्वजनिक जवाबदेही-
उक्त लेख का शुक्र है कि हमारे पास कुछ लिखित इतिहास मौजूद है । ज़रुरत सार्वजनिक जवाबदेही की है और यह बात विश्व स्वास्थ्य संगठन के बेशक्ल अफसरों पर और भारत सरकार के उन अधिकारियों पर भी लागू होती है जिनका ज़िक्र उस लेख में हुआ था । यह तो संभव है कि विवेक के आधार पर लिए गए निर्णय गलत हो सकते हैं मगर जब तक इस बात को स्वीकार नहीं किया जाता तब तक हम ये गलतियां बार -बार दोहराते रहेंगें ।
इण्डियन मेडिकल एसोसिएशन की उपसमिति के सामने भी वही दुविधा थी जो डॉ. भार्गव के सामने थी । उपसमिति वेक्सीन - प्रेरित पोलिया के मामलों की बढ़ती संख्या (पिछले साल १६००) से चिंतित थी। ये मामले पोलियो टीके की बार-बार दी जाने वाली खुराकों के कारण सामने आ रहे थे । इससे भी ज्यादा चिंता की बात यह थी कि २७००० बच्चे पोलियोनुमा लकवे के शिकार हुए थे जिनमें मल में पोलियो वायरस का संवर्धन नहंी हुआ था । सरकार तो यह जांच करवाने को भी तैयार नहीं थी कि इन बच्चों में से कितनों में अपंगता शेष रही थी। इस बात के पुख्ता प्रमाण थे कि कई ऐसे बच्चों को पोलियोजनित लकवा हो रहा है जिनका टीकाकरण हो चुका है । इससे जाहिर था कि टीका कारगर नहीं है । जब अफसरशाही ऐसी हो जो समस्या के वजूद को भी मानने से इंकार करे, तो उपसमिति के सामने इस मखौल का भंडाफोड़ करने के अलावा काई चारा न था ।
यह अच्छी बात है कि इस सरकार ने खबरची को बुरा-भला कहने और इण्डियन मेडिकल एसोसिएशन को नीचा दिखाने के प्रयास शुरु नहंी किए । मगर बदकिस्मती से सरकार की प्रतिक्रिया यह रही कि उसने एक और कार्यक्रम शुरु कर दिया है जो इस स्थिति को सुधारने के बजाए और बिगाड़ेगा ।इस लेख का समापन हम इस तरह के हवाई किले से बचने का उपाय सुझाने के साथ करेंगें ।
बड़े मुद्दों पर जाने से पहले पाठक शायद उस बीमारी को समझना चाहें जिसके कारण यह गोरखधंधा शुरु हुआ था । पोलियो एक वायरस है जो लकवा पैदा कर सकता है । यह वायरस आंतों में पलता बढ़ता है और दूषित पानी के माध्यम से फैलता है । पानी और शौच व्यवस्था की स्थिति में सुधार से इस बीमारी पर काबू पाया जा सकताह । इसके अलावा सामान्य टीकाकरण से इसके उन्मूलन में मदद मिलेगी। सामान्य टीकाकरण के साथ पोलिया नियंत्रण कार्यक्रम बढ़िया चल रहा था । १९८८ में पोलियो का प्रकोप २४००० था जो १९९४ में घटकर ४८०० रह गया था । यह पल्स पोलियो शुरु होने से बहुत पहले की बात है ।
१९९८ में विश्व स्वास्थ्य संगठन और अन्य अंतर्राष्ट्रीय संस्थाआें ने पोलियो टीका बार-बार पीलाकर दुनिया भर में इस बीमारी का सफाया करने की योजना लागू की । शुरुआती फंडिंग, करीब ४०० करोड़ रुपए, अंतर्राष्ट्रीय संस्थाओं (रोटरी अंतर्राष्ट्रीय समेत) से आया था । यह तो जैसे अपरिहार्य था कि कार्यक्रम शुरु होने के दो साल बाद इन संस्थाआें ने दानदाता थकान (डोनर फटीग) की दुहाई देकर फंडिंग बंद कर दिया । पिछले वर्ष भारत सरकार ने इस कार्यक्रम पर १००० करोड़ रुपए खर्च किए थे । शेष समस्त टीकाकरण (पांच बीमारियांे के लिये) पर खर्च ३०० करोड़ रहा। यह विदेशी फंडिंग काएक पेटर्न सा है ।
अंतर्राष्ट्रीय फंडिंग मिल रही हो और सरकार अपने लोगों के लिए पेश किए जा रहे दान को लेने से इंकार करे तोयह बेवकूफी सी नजर आती है । एक बार विदेशी फंडिंग के आधार पर कार्यक्रम शुरु होन जाने पर विदेशी सहायता रोक दी जाती है ।गरीब देश इस चाल में फंस जाते हैं और बगैर जरुरी लाभ-लागत आकलन के ही टीके देना शुरु हो जाता है ।
हम नहंी जानते कि विदेशी फंडिंग की पेशकश ने इस निर्णय पर कितना असर डाला था मगर तथ्य यह है कि परिणाम यह रहा कि भारत सरकार को एक ऐसे कार्यक्रम के लिए अभूतपूर्व वित्त व्यवस्था करनी पड़ी है, जिसकी नाकामी तय थी ।
सबक नहीं सीखे गए
मगर दु:ख की बात यह है कि हमने अपनी गलतियों से कोई नसीहत नहीं ली है । ओरल पोलियो टीके पर आधारित पोलियो उन्मूलन रणनीति के नाकाम रहने के बाद सरकार ने एक और विदेशी पेशकश स्वीकार कर ली है जिसमें उच्च प्रकोप वाले क्षेत्रों के लिये इंजेक्शन टीका मुफ्त दिया जाएगा ।
यह आयातित इंजेक्शन टीका ओरल टीके से २५ गुना ज़्यादा महंगा है। लगभग अवसान (एक्सपायरी) की तारीख वाले टीकों की एक खेप मुफ्त दी जा रही है मगर हम अपना राष्ट्रीय टीकाकरण कार्यक्रम इसके आधार पर तो नहीं चला सकते । इसके अलावा इस टीके को घर-घर जाकर लगाने की लागत भयावह होगीं यदि यह पैसा उन क्षेत्रों में पेयजल व शौच व्यवस्था को सुधारने में लगाया जाए तो इस समस्या का स्थायी समाधान निकल सकता है । इंजेक्शन टीका सब बच्चों को देना जरुरी होगा । जब हम ओरल टीका शत प्रतिशत बच्चों को नहीं दे सके हैं, तो इंजेक्शन का प्रतिशत तो और भी कम रहेगा । यानी एक बार फिर असफलता शर्तिया है ।
दरअसल, इंडियन मेडिकल एसोसिएशन की उपसमिति ने सुझाव दिया है कि सरकार इस पूरे अभियान को थोड़ा धीमा करे और सामान्य टीकाकरण को सुदढ़ करने के अलावा प्रभावित क्षेत्रों में पानी व शौच व्यवस्था में सुधार के कदम उठाए । टीकों को शामिल करने या न करने के बारे में पेचीदा निर्ण तक पहुंचने के लिए हमें कोई स्थायी व्यवस्था बनानी होगी । यह व्यवस्था यू.के. के नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ क्लिनिकल एक्सलेंस जैसी कोई स्वतंत्र संस्था हो सकती है । स्वास्थ्य पेशेवरों, तकनीकी विशेषज्ञों, स्वास्थ्य के अर्थशास्त्रियांे और जनप्रतिनिधियों की एक पेशेवर संस्था बनाई जानी चाहिए । सरकार विचाराधीन टीके का प्रचार करे । मरीजों के समूह, स्वास्थ्य पेशेवर, अकादमिक संस्थान, टीका उद्योग, ट्रेड यूनियन्स और विश्व स्वास्थ्य संगठन व ग्लोबल वेक्सीन इनिशिएटिव जैसे सारे हितधारी अपने-अपने हित सामने रखें ।
उक्त संस्था को टीके से संबंधित चिकित्सकीय प्रमाण और उसके लाभों के आर्थिक पक्ष का आकलन करके दिशानिर्देशों का मसौदा तैयार करना चाहिए, जिसका आकलन सारे पंजीकृत हितधारी और एक नागरिक परिषद द्वारा किया जाना चाहिए । इनकी राय के आधार पर निकाय को दिशानिर्देशों में संशोधन करना चाहिए। अंतत: एक स्वतंत्र पैनल को इन्हें देखकर यह तसल्ली कर लेना चहिए कि सारे हितधारियों के हितों को इनमंे स्थान मिल गया है । इसके बाद अंतिम दिशानिर्देश जारी किए जाएं ताकि सरकार को निष्पक्ष सलाह मिल सके जिसके आधार पर वह निर्णय कर सके ।
पर्यावरण डाइजेस्ट से साभार
Monday, March 31, 2008
जगतीकरण क्या है ? : किशन पटनायक
सब दल लेकर हैं खड़े , अपने - अपने जाल
हे साधो ! कुछ चेतिए , देश बड़ा बेहाल .(१)
हल्दी ,तुलसी , नीम के , बाद जूट पेटेण्ट
ये भारत की सम्पदा , वो ग्लोबल मर्चेण्ट.(२)
भारत बस बाजार है , विस्तृत और समग्र
सिर्फ मुनाफे के लिए,मल्टीनेशनल व्यग्र.(३)
सम्प्रभुता,गौरव कहाँ,कहाँ आत्मसम्मान
अजी छोड़िए, आइए, करना है उत्थान.(४)
- शिव कुमार 'पराग' के दोहे(साभार-'देश बड़ा बेहाल')
भूमंडलीकरण , वैश्वीकरण ,खगोलीकरण , जगतीकरण आदि कई शब्दों का प्रयोग हो रहा है - अंग्रेजी शब्द , ग्लोबलाइजेशन के लिए । आधुनिक विश्व में तीन प्रकार के जगतीकरण हुए हैं । अठारहवीं और उन्नीसवीं सदी में प्रत्यक्ष साम्राज्यवाद के द्वारा जगतीकरण का एक ढाँचा यूरोपीय देशों ने बनाया । जब यूरोप का बौद्धिक उत्थान हुआ और समुद्र पर उनकी श्रेष्ठता प्रमाणित हो गयी तो यूरोप के लोगों ने पूरी दुनिया से धन संपत्ति बटोरने के लिए समुद्री यात्राएं कीं । अनेक भूखंडों के मूलवासियों को हटाकर वहाँ पर वे खुद बस गये । दूसरे देशों पर उन्होंने अपना प्रत्यक्ष शासन यानि साम्राज्य स्थापित किया । आधुनिक यंत्र विद्या पहली बार साम्राज्य की केन्द्रीय व्यवस्था बनाए रखने में मददगार हुई । उसके पहले के युगों में जो साम्राज्य होते थे उनकी केन्द्रीय व्यवस्था नहीं हो सकती थी और शीघ्र ही वे बिखर जाते थे । सिकंदर और सीजर से लेकर सम्राट अशोक का यह किस्सा है कि थोड़े से समय के लिए धन बटोरा जाता था । लेकिन यंत्र विद्या केवल यूरोपीय साम्राज्यवाद के केन्द्रीकृत ढाँचे के तौर पर टिकी रही और शताब्दियों तक शोषण का अनवरत सिलसिला चलता रहा । कहावत बन गयी कि " ब्रिटिश साम्राज्य में सूर्य कभी डूबता नहीं है । " दूसरे विश्व युद्ध के बाद इस प्रकार के जगतीकरण का अध्याय समाप्त हुआ ।
दूसरे विश्व युद्ध के बाद दो नये प्रकार के जगतीकरण शुरु हुए । उसकी एक धारा संयुक्त राष्ट्र संघ के द्वारा चलायी गयी । संयुक्त राष्ट्र संघ की महा सभा में राष्ट्रों की बराबरी मानी गई थी । इसलिए बहुत सारी बातचीत और लेन-देन राष्ट्रों के बीच बराबरी के आधार पर होती थी। सारे विश्व से साधन इकट्ठा कर दुनिया से भूख , बीमारी , अशिक्षा , नस्लवाद , हथियारवाद आदि मिटाने के लिए महत्त्वपूर्ण पहल और कार्रवाइयाँ हुईं । उस समय की अंतर्राष्ट्रीय व्यापारिक सहयोग की संस्थाओं की कार्य प्रणाली भी अपेक्षाकृत ज्यादा जनतांत्रिक थी । अंकटाड और डंकल प्रस्ताव के पहले की गैट संधि इसका उदाहरण है । संयुक्त राष्ट्र संघ के माध्यम से जिस प्रकार का यह जगतीकरण चला , उससे अमरीका बिलकुल खुश नहीं था।अमरीका ने जब देखा कि उसके साम्राज्यवादी उद्देश्यों में राष्ट्र संघ बाधक बन सकता है , उसने राष्ट्र संघ को चंदा देना बंद कर दिया और राष्ट्र संघ से बाहर ही अंतर्राष्ट्रीय कूटनैतिक कार्यकलापों को बढ़ावा देने लगा । सोवियत रूस के पतन के बाद अमरीका को मौका मिल गया कि राष्ट्र संघ को बिलकुल निष्क्रीय बना दिया जाय । ईराक और युगोस्लाविया पर हमला राष्ट्र संघ की उपेक्षा का ताजा उदाहरण है । राष्ट्र संघ के माध्यम से चलने वाला जगतीकरण इस वक्त पूरी तरह अप्रभावी हो गया है ।
दूसरे विश्वयुद्ध के बाद अमरीका की अपनी बुद्धि से अन्य एक प्रकार का जगतीकरण भी शुरु किया गया था । उसको उन दिनों वामपंथियों ने आर्थिक साम्राज्यवाद कहा , क्योंकि इस बीच अमरीका ने साम्राज्यवाद की अपनी शैली विकसित की थी । उसमें किसी औपनिवेशिक देश पर प्रत्यक्ष शासन करने की जरूरत नहीं होती है । कमजोर और गरीब मुल्कों पर दबाव डालकर उनकी आर्थिक नीतियों को अपने अनुकूल बना लेना उसकी मुख्य कार्रवाई होती है । उन आर्थिक नीतियों के परिणामस्वरूप आत्मनिर्भरता खतम हो जाती है और औपनिवेशिक देश धनी देशों पर पहले से अधिक निर्भर हो जाते हैं । जब कोई बड़ा संकट होता है और धनी देशों की मदद की जरूरत होती है तब धनी देशों के द्वारा नयी शर्तें लगायी जाती हैं जिससे औपनिवेशिक अर्थव्यवस्था को थोड़े समय की राहत मिलती है;लेकिन वह अर्थव्यवस्था अधिक आश्रित हो जाती है,और धनी देशों के द्वारा शोषण के नये रास्ते बन जाते हैं।औपनिवेशिक अर्थव्यवस्था वाला देश आर्थिक रूप से इतना कमजोर और आश्रित होता है कि उसकी राजनीति को भी आसानी से नियंत्रित किया जा सकता है ।उपर्युक्त उद्देश्य से १९४५ में ही विश्वबैंक और अंतर्राष्ट्रीय मुद्राकोष नामक अंतर्राष्ट्रीय आर्थिक संस्थाओं की स्थापना हुई । १९९५ में विश्व व्यापार संगठन बना । ये तीन संस्थायें हैं जो नये जगतीकरण के तीन महत्वपूर्ण स्तंभ हैं । विश्वबैंक विकास के लिए ऋण देकर सहायता करता है और कैसा विकास होना चाहिए उसकी सलाह देता है । कई बार कर्ज लेने वाला देश विश्वबैंक की विकासनीति को अपनी विकास नीति के तौर पर मान लेने के लिए बाध्य होता है । इसलिए सारे गरीब देशों में एक ही प्रकार की विकास नीति प्रचलित हो रही है । यह विश्वबैंक के द्वारा बतायी गयी विकास नीति है ।
अक्सर हम विदेशी मदद की बात सुनते हैं । विश्वबैंक ,मुद्राकोष या धनी देशों की सरकारों से कम ब्याज पर जो ऋण मिलता है , उसी को विदेशी मदद कहा जाता है । विदेशी मदद के साथ-साथ विश्वबैंक की सलाह भी मिलती है कि हम अपने विकास के लिए क्या करें ।उनकी सलाह पर चलने का एक नतीजा होता है कि विदेशी मुद्रा की आवश्यकता बढ़ जाती है और उसकी कमी दिखाई देती है । जब विदेशी मुद्रा का संकट आ जाता है तब हमारा उद्धार करनेवाला अंतर्राष्ट्रीय मुद्राकोष होता है । उसके पास जाना पड़ता है ।वह मदद देते समय शर्त लगाता है। उसकी शर्तें मुख्यत: दो प्रकार की होती हैं ;
(१) आर्थिक विकास के कार्यों मे सरकार की प्रत्यक्ष भागीदारी नहीं होनी चाहिए। किसी उद्योग , व्यापार या कृषि को प्रोत्साहित करने के लिए सरकारी अनुदान ,सबसिडी नहीं दी जाएगी ।
(२) देश की आर्थिक गतिविधियों में हिस्सा लेने के लिए विदेशी पूंजी और विदेशी कंपनियों को अधिक से अधिक छूट देनी होगी ।उन पर और उनकी वस्तुओं पर लगने वाली टिकस कम कर दी जाएगी । यानी विकासशील देश की अर्थव्यवस्था में धनी देशों के पूंजीपतियों का प्रवेश अबाध रूप से होगा ।इसके अलावा मुद्राकोष मदद माँगने वाले देश की मुद्रा का अवमूल्यन कराता है। ताकि हमारा सामान उनके देश में सस्ता हो जाए और उनकी वस्तुओं का दाम हमारे लिए महँगा हो जाए ।
सारे विकासशील देशों की अर्थव्यवस्था विकसित देशों की अर्थव्यवस्था के साथ इस प्रकार जुड़ जाती है । इस प्रकार का जुड़ाव प्रत्यक्ष साम्राज्यवाद के युग में भी था । फर्क यह है कि उस जमाने में हमारी अर्थनीति और विकासनीति का राजनैतिक निर्णय साम्राज्यवादी सरकार करती थी । आज हम खुद अपनी अर्थनीति को धनी देशों की अर्थनीति के साथ जोड़ने का निर्णय कर रहे हैं ।वे लोग सलाह देते हैं , हमारी सरकार उसी सलाह को निर्णय का रूप देती है। इसलिए इसको जगतीकरण कहा जा रहा है ।
१९४५ से १९९५ तक विकासशील देशों की अर्थनीति को धनी देशों की अर्थनीति का पिछलग्गु बनाने के लिए जितने नियम और तरीके बनाये गए थे , उन सारे नियमों को विश्वव्यापार संगठन कानून का रूप देकर अपना रहा है । विश्वबैंक सलाह देता है ;मुद्राकोष शर्त लगाता है और विश्वव्यापार संगठन कानून चलाता है । यहाँ दन्ड का प्रावधान भी है । यह व्यापार के मामले में विश्व सरकार है । लेकिन इस सरकार के निर्णयों को विकासशील देश अपने हित की दृष्टि से प्रभावित नहीं कर पाते हैं । व्यापार की विश्व सरकार में वे केवल दोयम दर्जे के सदस्य हैं ।
विश्वबैंक , मुद्राकोष और विश्वव्यापार संगठन तीनों अपने - अपने ढंग से काम कर रहे हैं। लेकिन ये एक दूसरे के पूरक हैं ।तीनों में इतना मेल है कि तीनों मिलकर विकासशील देशों एक ही रास्ता दिखाते हैं - एक ही दिशा में ढ़केलते रहते हैं । इसलिए सारे विकासशील देशों की समस्याएं एक ही प्रकार की होती जा रही हैं । इससे जो प्रतिक्रिया होगी , जो असन्तोष होगा,उसको हम एक दिशा में ले जा सकेंगे , तब संभवत: एक नयी यानी चौथे प्रकार का जगतीकरण शुरु होगा । क्योंकि तीसरी दुनिया के सारे देशों की समस्याएं सुलझाने के बजाए जटिल होती जा रही हैं , मौजूदा जगतीकरण की व्यवस्था के खिलाफ़ सारे देशों में गुस्सा और विद्रोह होना चाहिए । धनी देशों पर अपनी निर्भरता खतम कर गरीब देश अगर एकल ढंगसे या परस्पर के सहयोग से आत्मनिर्भर होने का लक्ष्य अपना लेंगे तो प्रचलित जगतीकरण के विरुद्ध एक विश्वव्यापी विद्रोह का माहौल बन जाएगा । विकासशील देशों के परस्पर सहयोग से जो अंतर्राष्ट्रीय संबंध बनेगा , उसके आधार पर नये जगतीकरण का आरंभ होगा ।
समतावादी डॉट ब्लॉग स्पॉट से साभार
एचआईवी: आओ मिलकर एड्स भगाएं
Sunday, 30 December 2007
एचआईवीएड्स के लिए आ रहे भारी विदेशी अनुदान के लालच में हम इससे ज्यादा खतरनाक व जानलेवा बीमारियों से बचने के उपायों और योजनाओं से विमुख होते जा रहे हैं।क्या आपने पुरुषोत्तमन मुलाली का नाम सुना है? आप जैक के बारे में क्या जानते हैं? जाहिर तौर पर एचआईवीएड्स पर बात करते वक्त ऐसे सवाल घोर अप्रासंगिक जान पड़ेंगे। आप सोचेंगे कि एचआईवीएड्स के क्षेत्र में तो बिल गेट्स से लेकर क्लिंटन और देसी नामों में नाको से लेकर अंजलि गोपालन की किस्में पाई जाती हैं। अगर यूएसएड्स और यूएनएड्स की बात न की जाए तो एड्स पर कोई भी विमर्श अधूरा ही रहेगा। लेकिन शुरुआत एक ऐसे नाम से जिसका कोई अता-पता नहीं है। जी हां, वास्तव में मीडिया की एड्स से जुड़ी तमाम खबरों में यह नाम गुमनाम है। इसी व्यक्ति ने हमें बताया कि इस महीने कर्नाटक में एचआईवीएड्स के भ्रामक आंकड़ों के खिलाफ प्रचार करने और सरकार का विरोध करने वाली एक एचआईवी संक्रमित महिला आंदोलनकारी की हत्या हो गई है। इस महिला ने अपने पीछे 600 एचआईवी संक्रमित महिलाओं को संगठित किया था जो सरकार द्वारा जुलाई में जारी एचआईवीएड्स के आकड़ों की सचाई का पर्दाफाश कर रही थीं।
सवाल उठता है कि ऐसी खबरें हम तक क्यों नहीं आ पाती हैं? इसका कारण पुरुषोत्तमन खुद बताते हैं, 'जाहिर सी बात है कि जो लोग विदेशी अनुदान लेकर एड्स के आंकड़ों को तोड़ते-मरोड़ते हैं, उनके हित बड़ी पूंजी से चलने वाले मीडिया के हितों से जुदा नहीं हैं। दूसरे, न तो मीडिया को और न ही एड्स जागरूकता का दम भरने वाले तमाम एनजीओ और अन्य कार्यकर्ताओं को कोई भी वैज्ञानिक जानकारी है कि एड्स के आंकड़े कैसे निकाले जाते हैं? और यह भी कि आखिर एड्स होता क्या है। जो बताया जाता है उसे मान कर आम सहमति बना लेने की आदत ने इस देश को सौ फीसद बेच डाला है।'आखिर इस शख्स की बातों में कितनी सचाई है? पहले बता दें कि पुरुषोत्तमन मुलाली देश के उन शुरुआती लोगों में से एक हैं जिन्होंने 1986-87 के दौरान भारत में एड्स के आरंभिक मामले सामने आते ही इस पर चिंता जाहिर करते हुए काम करना शुरू कर दिया था। उन्होंने यह शुरुआत ज्वाइंट एक्शन काउंसिल कुन्नूर (जैक) नाम के संगठन से की और आज भी इसी बैनर तले काम जारी रखे हुए हैं। आज एचआईवीए्ड्स के क्षेत्र में जितने चेहरे दिखाई दे रहे हैं सब पुरुषोत्तमन की अगली पीढ़ी के लोग हैं। वह बताते हैं, 'मेरी भी दुकान अच्छी चल रही थी। एड्स के नाम पर सालाना पांच करोड़ का कारोबार था। लेकिन जब मैं इस तंत्र के भीतर घुसा और मैंने देखा कि किस तरह विदेशी अनुदानों और बहुराष्ट्रीय कंपनियों के फायदे के लिए आकड़ों को मनमर्जी तोड़ा-मरोड़ा जाता है और एक बीमारी के बारे में इतने अवैज्ञानिक नजरिए से प्रचार किया जा रहा है तो मैंने दुकान बंद कर दी। कहते हुए शर्म आती है कि मैं पहला और इकलौता व्यक्ति हूं जो एचआईवीएड्स की राजनीति का पर्दाफाश करने के लिए पिछले दस वर्षों से लगा हूं। मेरी जेब में एक पैसा नहीं है लेकिन मैं इन लोगों को छोड़ूंगा नहीं।'
गौरतलब है कि 6 जुलाई 2007 को राष्ट्रीय एड्स नियंत्रण कार्यम के तीसरे चरण का उद्धाटन करते वक्त स्वास्थ्य मंत्री अंबुमणि रामदास ने बड़े उत्साह के साथ घोषणा की थी कि भारत में एक आकलन के मुताबिक एचआईवी ग्र्रस्त लोगों की संख्या में नाटकीय तरीके से गिरावट आई है। उन्होंने कहा था कि पहले के आंकड़े 57 लाख से गिर कर यह संख्या अब 20 लाख तक पहुंच गई है और प्रसार की दर 0.9 फीसद से गिर कर 0.36 फीसद हो गई है। पुरुषोत्तमन हंसते हुए सवाल करते हैं, 'या तो 37 लाख लोगों की मौत हो गई या वे ठीक हो गए। इसके अलावा और कोई रास्ता नहीं हो सकता कि सरकार ऐसे दावे करे।' सरकार का जवाब यह आता है कि इस बार आंकड़ों के आकलन के लिए अपनाई गई प्रणाली को बदल दिया गया है जिससे इतना फर्क दिखाई दे रहा है। रामदास ने खुद कहा था, 'हमने इस आपदा की गंभीरता को कम कर के आंकने की गलती हमेशा से ही की है।' उन्होंने चेतावनी दे डाली कि दोनों वर्षों के आंकड़ों की तुलना संभव नहीं है। उनका कहना था कि यदि हम दोनों ही वर्षों के लिए एक ही प्रविधि अपनाते हैं तो पाते हैं कि प्रसार में न्यूनतम फर्क पड़ा है।
सवाल उठता है कि दो वर्षों में आंकड़े निकालने की प्रविधि को क्यों बदल दिया गया? खैर, निष्कर्ष यही निकलता है कि एचआईवी के मामलों में वास्तव में कोई कमी नहीं आई है। इस तथ्य से हालांकि एचआईवीएड्स पर काम करने वाले कई कार्यकर्ता खुद सहमत हैं लेकिन अनुदानों का इतना दबाव है, खासकर वे अनुदान जो नाको के माध्यम से आते हैं, कि इस क्षेत्र में काम कर रहे लोग और संगठन इसके कारणों की तह में नहीं जाते हैं। सरकार ने अब तक नई प्रविधि का कोई भी विवरण मुहैया नहीं कराया है कि आखिर कैसे वह इस निष्कर्ष पर पहुंची कि संक्रमित व्यक्तियों की संख्या कम हो गई है। दूसरा पक्ष यह भी है कि तमाम एनजीओ इस बात को लेकर सशंकित हैं कि सरकार के इन आंकड़ों से कहीं अनुदानों पर कोई फर्क न पड़ जाए। जाहिर सी बात है कि यदि दानदाता एजेंसियां सरकारी आंकड़ों से सहमत हो जाती हैं तो अनुदानों में कमी आना तय है।
गैरसरकारी संगठनों द्वारा ये चिंताएं भी जताई जा रही हैं कि संशोधित आंकड़ों से बड़ी दवा कंपनियों द्वारा अनिवार्य एड्स दवाओं का पेटेंट कराने की संभावना बढ़ जाती है। पुरुषोत्तमन कहते हैं, 'यदि एक फीसद से ज्यादा आबादी एचआईवीएड्स से प्रभावित होती तभी इसे राष्ट्रीय आपदा घोषित किया जा सकता है। सरकार खुद कहती है कि 0.9 फीसद आबादी अभी इसकी चपेट में है। फिर इस पर एक राष्ट्रीय विधेयक बनाने की जरूरत क्यों आन पड़ी?'
ध्यान देने वाली बात है कि पिछले वर्ष सरकार संसद में एचआईवीएड्स विधेयक 2006 लाने वाली थी जिसके खिलाफ काफी बवाल मचा था। इस मामले में 'जैक' द्वारा राष्ट्रपति और राज्य सभा के महासचिव को एक पत्र भी लिखा गया था। जबकि इस संबंध में दिल्ली के हाई कोर्ट और सुप्रीम कोर्ट में आईपीसी की धारा 377 के तहत दो मामले 2001 से ही लंबित हैं। इसके अलावा संसद के समक्ष एक याचिका डाली गई थी जिसमें स्पष्ट तौर पर कहा गया था कि एचआईवीएड्स पर बनाई गई संसदीय समिति दरअसल यूएनएड्स से संबध्द इकाई है। जाहिर तौर पर यूएनएड्स पर बहुराष्ट्रीय कंपनियों का कब्जा है और वहां चीजें स्वतंत्र रूप से संचालित नहीं होती हैं।
इसी बारे में पुरुषोत्तमन कहते हैं कि बल्ब इस देश में जलता है लेकिन उसका स्विच कहीं और होता है। यह बात दूसरी तमाम विकास परियोजनाओं के बारे में भी उतनी ही सच है जितना एचआईवीएड्स से जुड़ी परियोजनाओं के बारे में। सोचने वाली बात है कि जिस देश में टीबी, हैजा, मलेरिया, डेंगू, खसरा, कैंसर आदि से लोग इतनी आसानी से रोजाना मर-खप जाते हैं वहां एचआईवीएड्स को इतना तूल दिए जाने का क्या अर्थ है? टीबी, मलेरिया और एचआईवीएड्स पर भारत को मिलने वाले वैश्विक अनुदानों की तुलना की जाए तो इस बात को अच्छी तरह से समझा जा सकता है कि इनके बीच कितना भारी अंतर है। यह संयोग नहीं है कि 'नाको' की वेबसाइट पर प्रकाशित रिक्त पदों में एक कम्प्यूटर ऑपरेटर का वेतन मासिक 75000 दिखाया गया है। और यह स्थिति उस देश में है जहां 70 फीसदी आबादी की औसत कमाई एक डॉलर (41रुपए) प्रतिदिन से नीचे है।
इस वर्ष के आल्टरनेटिव इकोनॉमिक सर्वे पर नजर डालें तो यह बात साफ हो जाती है कि देश में जन स्वास्थ्य के क्षेत्र में जितना पैसा खर्च किया जाना चाहिए उतना या उससे ज्यादा सिर्फ एक बीमारी के लिए खर्च किया जा रहा है। ग्रामीण संस्थाओं में चिकित्सकों और चिकित्सकीय कर्मचारियों के वितरण का यह हाल है कि प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्रों पर चिकित्सक 90 फीसद से ज्यादा समय मौजूद नहीं रहते हैं। एक प्राइमरी हेल्थ सेंटर पर ग्रामीण क्षेत्रों में सिर्फ एक चिकित्सक की व्यवस्था है। सरकारी आंकड़े खुद बताते हैं कि 50 फीसदी पुरुष स्टाफ, 21 फीसदी नसर्ें (एएनएम), 34 फीसदी प्रयोगशाला कर्मी और 34 फीसदी फार्मासिस्ट आम तौर पर अपने कार्य स्थलों से गायब रहते हैं। एक बात और ध्यान देने वाली है कि मानव संसाधन यदि पर्याप्त हो भी तो ग्रामीण इलाकों में चिकित्सीय उपकरणों की संख्या का टोटा है।
यदि हम स्वास्थ्य सूचकों पर नजर डालें तो पाएंगे कि शिशु मृत्यु दर, मलेरिया, हैजा जैसे सांमक रोगों का प्रसार खराब ढांचागत व्यवस्था के बावजूद घटा है। इससे सीधा सबक मिलता है कि जो पैसा निजी क्षेत्र में या गैरसरकारी संस्थानों के माध्यम से निवेश किया जा रहा है उसे अगर सार्वजनिक क्षेत्र और जन स्वास्थ्य में लगाया जाए तो स्थितियों के सुधरने की संभावनाएं बढ़ना लाजिमी है। हालांकि सवाल उठाए जाते रहे हैं कि पिछले दो दशकों के दौरान स्वास्थ्य सूचकों में आया सुधार निजी क्षेत्र की बढ़त की वजह से है या सार्वजनिक क्षेत्र की बेहतरी की वजह से। हम आज ऐसी खबरों से रूबरू होते हैं कि मेरठ जैसे शहर में एक एचआईवी रोगी का इलाज करने से चिकित्सक मना कर देते हैं। एम्स जैसे संस्थान में एक मरीज समुचित व्यवस्था न होने के चलते उसके गलियारों में ही दम तोड़ देता है और उसकी लाश को उसके गांव पहुंचाने वाला कोई नहीं होता। उस पर से बर्बर व असंवेदनशील मीडिया इस लाश का ऐसे प्रचार करता है जैसे संवाददाता का इस मौत से कोई संबंध नहीं है।
अन्य बीमारियों को यदि कुछ समय के लिए हम अलग रख दें तो एचआईवीएड्स के साथ एक पक्ष जो बहुत मजबूती से जुड़ा नजर आता है वह सामाजिक विभेद और कलंक का है। आम तौर पर हमारे यहां एचआईवी संक्रमित व्यक्ति को उपेक्षा की दृष्टि से देखा जाता है। इस दिशा में जागरूकता फैलाने के लिए हालांकि कई गैरसरकारी संगठन और सरकारी एजेंसियां कार्यरत हैं लेकिन इसमें भी जो अनुदान प्राप्त होता है वह बुनियादी तौर पर सामंती मानसिकता के खिलाफ इस पूरी लड़ाई को प्रोजेक्ट में बदल कर रख देता है। दिल्ली से ही चलने वाली एक संस्था 'सम्यक' के संजय देव और वरिष्ठ पत्रकार राहुल देव इस संस्था के माध्यम से पिछले कई वर्षों से मीडियाकर्मियों के बीच एचआईवीएड्स को लेकर जागरूकता फैलाने के काम में लगे हैं। इस बीमारी से जुड़ी शब्दावली के अखबारी खबरों में प्रयोग को लेकर कई शहरों में संवाददाताओं और पत्रकारों के साथ कार्यशालाएं की जा चुकी हैं और उन्हें बताया जाता है कि किस तरह से ऐसी भाषा का प्रयोग करें जो असम्मानजनक न हो। हालांकि इस भाषा के बारे में एनजीओ की पुस्तकों के बड़े प्रकाशक विनय आदित्य बहुत स्पष्ट राय रखते हैं, 'यह भाषा सीधे विश्व बैंक और संयुक्त राष्ट्र से आ रही है। ऐसा लगता है जैसे कि अंग्रेजी का हिंदी में तर्जुमा कर दिया गया हो। लोगों को ध्यान ही नहीं रहता कि हिंदी में कितने खूबसूरत शब्द हैं जिन्हें वापस लाया जाना चाहिए।' सलन, आजकल एचआईवी से ग्रस्त मरीजों के लिए एक शब्द चल पड़ा है 'एचआईवी के साथ जी रहे व्यक्ति।' अब यह नाम भले ही संयुक्त राष्ट्र और मानवाधिकार कर्मियों के बीच सम्मानित माना जाता हो लेकिन लिखने और पढ़ने में काफी अटपटा लगता है। भले ही इस तरह की शब्दावली के पैरोकार अपने तर्क दें लेकिन मोटे तौर पर इस संदर्भ में एक बार फिर पुरुषोत्तमन मुलाली की बात मार्के की लगती है, 'एचआईवीएड्स कोई बीमारी नहीं है। यह एक पूरी सभ्यता है। इसीलिए अन्य बीमारियों की तुलना में एचआईवीएड्स को आने वाला अनुदान इतना महत्त्वपूर्ण हो जाता है। यह हमारी भाषा, संस्कृति और जीने की शैली पर सीधे हमला करता है।' तमाम किस्म के दावों, आंकडों और भय के बीच पुरुषोत्तमन के बेलाग बयान हमें ज्यादा आकर्षित करते हैं। जाहिर सी बात है कि हम भी एचआईवीएड्स के भीतरी दांव-पेंचों से तकनीकी तौर पर इतने वाकिफ नहीं लेकिन कहा गया है कि धुआं है तो आग भी कहीं होगी ही। पुरुषोत्तमन हमारे सामने बगैर कोई खुलासा किए सिर्फ इतना ही कहते हैं, 'यह आग आपको मार्च-अप्रैल में दिखाई दे जाएगी। सारे खेल का पर्दाफाश होने में कुछ ही वक्त बाकी है। मैं इसी में लगा हूं।' हम हतप्रभ उनका मुंह देखते रह जाते हैं।
समकाल डॉट कॉम से साभार