Friday, June 13, 2008

ख़बरों में सड़क के बच्चे

सेवा में,
श्री प्रशांत झा
रिपोर्टर हिंदुस्तान दैनिक
१८-२०,के जी मार्ग, नई दिल्ली।
महोदय ! आपका लेख "......और यह है बच्चा पार्टी का अपना बैंक "(हिंदुस्तान २ अप्रैल २००८) पढ़ा। यह सही बात है कि सड़क के कामकाजी बच्चों का एक बैंक होना अपने आप में एक आश्चर्य की बात है, लेकिन उतनी नहीं जितने आश्चर्य के साथ आपने लिखा है। आपने अपने लेख में लिखा कि -(१) यह बच्चों का अपना बैंक है ,(२) इस बैंक (बाल विकास बैंक) के मैनेजर ,प्रबंधक कमिटी और जमाकर्ता सड़कों पर जीवनयापन करने वाले बच्चे ही हैं,(३) वे जब चाहें रुपये निकाल सकते हैं और लोन भी ले सकते हैं।

मैं आपको बताना चाहता हूँ कि आपको यह जानकारी जहाँ कहीं से भी मिली हो पूरी हकीकत के साथ नहीं मिली। यह बैंक बच्चों का अपना बैंक है, पर सिर्फ़ इसलिए कि इस तरह का और किसी संस्था के पास बैंक नहीं है। इसलिए संस्था ने इस बैंक को (जिसे ख़ुद संस्था के स्टाफ चलाते हैं)बच्चों के बैंक का नाम दे रखा है।

कागज के रिकार्डों पर ही सिर्फ़ बच्चों की प्रबंधक कमिटी और लोन कमिटी है। हकीकत में बच्चों को प्रबंधक का मतलब भी नहीं मालूम। लोन कमिटी, जिसके सदस्य बच्चे हैं(कागजों पर) , किसी को लोन नहीं दे सकती क्योंकि लोन की स्वीकृति के लिये डॉ सुमन सचदेवा (बैंक डवलपमेंट मैनेजर) की स्वीकृति ज़रूरी है। डॉ सुमन सचदेवा का कहना है कि "बैंक चलाने का मुख्य उद्देश्य बच्चों की शिक्षा के साथ-साथ उनमें बचत की आदत विकसित करना है" मगर संस्था पिछले सात सालों में (२००१ से अबतक) कितने बच्चों को शिक्षित कर पाई है और कितने बच्चों में बचत की आदत विकसित कर पाई है -इसका संतोषजनक जवाब उनके पास नहीं होगा।

आप सोच रहे हैं कि मैं इतनी सारी बातें कैसे जानता हूँ ? महोदय जब बाल विकास बैंक की शुरुआत हुई थी तो मैं उसका पहला बैंक मैनेजर था। बैंक शुरू करने के लिये एन एफ आई (नेशनल फाउनडेशन फॉर इंडिया) ने ५०-५० हजार की किस्तों में दो साल के अन्दर दो लाख रुपये बटरफ्लाइज संस्था को दिए। संस्था की पहले से बचत योजना होने के कारण संस्था ने सोचा कि क्यों न बच्चों का बैंक बना दिया जाए। जबकि एन एफ आई का ऐसा कोई उद्देश्य नहीं था। उनके पैसा देने का कारण था कि सड़क पर रह रहे बच्चों को कुछ काम मिल जाए। मगर जब संस्था ने उसके सामने अपना लुभावना प्रोजेक्ट रखा तो उन्हें पसंद आ गया। एन एफ आई से मिला पैसा (दो लाख रुपये) संस्था ने १० बच्चों को काम के लिये देकर, स्टाफ की तनख्वाह देकर और मीटिंग्स का खर्चा लिखकर खर्च कर दिया। बच्चों को जो काम दिया गया वह सिर्फ़ संस्था की पब्लिसिटी के लिये। इस प्रकार उन दो लाख रुपयों का क्या हुआ पता नहीं चला। हाँ, इस काम से संस्था को शिवा(CIVA) नामक फंडिंग एजेंसी ने पैसा देना शुरू कर दिया था। लेकिन जब उसे संस्था की करतूतों का पता चला तो उसने अपना सारा फंड चाइल्ड होप नामक फंडिंग एजेंसी को दे दिया जो अभी बटरफ्लाइज को बैंक के लिये पैसा दे रही है। लेकिन अभी चाइल्ड होप को भी संस्था की करतूतों का पता चला है इसलिए संस्था मीडिया को माध्यम बनाकर प्रचार करा रही है।

एमिल जोला ने अपने एक प्रसिद्ध लेख में कहा था "यदि सच्चाई छुपाई जायेगी , उसे पोशीदा रखा जाएगा, तो यह इकट्ठी होती जायेगी और जब यह फटेगी तो अपने साथ हर चीज़ को उड़ा देगी। बटरफ्लाईज हकीकत को जितना भी छिपा ले मगर एक दिन तो उसे विस्फोट होना ही है। संस्था अपने बचाव के लिये चाहे जितना भी तर्क दे दे कि कुछ व्यक्ति और युवा उसे बदनाम कर रहे हैं मगर हकीकत एकदम विपरीत है. संस्था को अपनी सच्चाई का बाहर आना बदनामी लग रही है.

मैं संस्था के अन्दर १९९५ से २००५ तक रहा यानि पूरे दस साल. आठ साल की उम्र में मैंने अपना घर छोड़ा था. जब दिल्ली आया तो सड़क पर रहकर कबाड़ चुनता था और पढ़ाई करता था. संस्था ने दस साल तक विदेशी लोगों के सामने मुझे हीरो बनाकर पेश किया और जब मैं बड़ा हो गया तो यह कहकर कि अब तुम बड़े हो गए हो- संस्था से बाहर निकल दिया. सिर्फ़ मुझे ही नहीं इन दस सालों के अन्दर संस्था ने सैकड़ों बच्चों का अपने फायदे के लिये इस्तेमाल कर बाहर फेंक दिया. हमे इस बात का दुःख नहीं है कि हम संस्था से बाहर निकल दिए गए, दुःख इस बात का है कि संस्था ने पहले हमे सपने दिखाए और फ़िर अचानक उन सपनों को चूर-चूर कर दिया. हमारा सपना था कि हम भी संस्था के अन्दर रहकर अपना विकास करेंगे और अपने जैसे बच्चों के लिये कुछ कर पाएंगे, मगर हमे क्या पता था कि ऐसी संस्थाएं सिर्फ़ पैसों के लिये काम करती हैं और वास्तव में बच्चों के विकास से इन्हें कोई मतलब नहीं होता. इन बातों पर गहराई से सोचने के बाद हमने तय किया कि हम बच्चे और युवा मिलकर एक अख़बार निकालेंगे . आज हम बाल मजदूर की आवाज नाम से बच्चों का एक अखबार निकलते हैं।

महोदय हम चाहते हैं कि आप पूरी हकीकत के साथ लिखें और यदि सम्भव हो तो आप मिलकर बटरफ्लाईज संस्था के बारे में और भी जानकारी हमसे ले सकते हैं.आज बाल मजदूरी एक ऐसा मुद्दा बन गया है जिसे अपनी रोटी सेंकने के लिये हर कोई इस्तेमाल करने लगा है. जितना पैसा बाल मजदूरी ख़त्म करने के लिये भारत में आता है यदि वो पैसा एक तय योजना के साथ खर्च किया जाए तो जरूर कुछ नतीजा निकल सकता है मगर संस्था के माध्यम से आने वाला पैसा क्या सही मायनों में बच्चों पर खर्च हो रहा है? सच्चाई क्या है सब जानते हैं पर कोई आगे बढ़कर सवाल नहीं करता. सरकार इन बातों पर क्यों खामोश है क्या इस बात को समझ पाना इतना मुश्किल है?

अगर आप हमसे बात करके एक रिपोर्ट लिख सकें तो हमे अच्छा लगेगा.

भवदीय,
अनुज चौधरी
प्रतिलिपि- श्रीमती मृणाल पण्डे जी,प्रधान संपादक हिंदुस्तान.
बाल मजदूर की आवाज से साभार

Wednesday, June 11, 2008

एड्स पर स्वीकारोक्ति

एड्स एवं एचआईवी ये दो शब्द पिछले करीब दो दशकों से पूरी दुनिया को आतंकित करते रहे हैं। तथाकथित एचआईवी विषाणु से उत्पन्न होने वाले एड्स को लेकर इतना प्रचार हुआ और विश्व स्वास्थ्य संगठन ने इतना व्यापक कार्यक्रम चलाया कि तमाम देशों को अपने स्वास्थ्य ढांचे में परिवर्तन करने को बाध्य होना पडा। पिछले दो दशकों में सबसे ज्यादा किसी एक बीमारी से जुड़े कार्यक्रम पर धन झोंका गया है तो वह एड्स है। हालांकि आरंभ से ही एड्स के भय को अनावश्यक करार देने वाले भी रहे हैं, पर उनकी आवाज नक्कारखाने में तूती बनकर रह गई। अब अपने जीवन का एक बडा हिस्सा एड्स के विरूद्ध लड़ने में बिताने वाले डॉ। केविन डी. कॉक ने कहा है कि एचआईवी विषाणु से होने वाला खतरा बदल गया है। उनके अनुसार यह विषाणु अब केवल समलैंगिकों, नशाखोरों और वेश्याओं व उनके ग्राहकों तक सीमित हो गया है। एड्स को सबसे बड़ी महामारी मानने वालों में डॉ. केबिन अकेले व्यक्ति नहीं हैं जिनकी भाषा बदली है, इसके सबसे बडे प्रचारक संयुक्त राष्ट्र ने ही कुछ महीने पहले कहा था कि विा भर में एचआईवी के मामले घटे हैं। उसने 4 करोड़ से घटकर 3 करोड़ 30 लाख होने का आंकडा भी दिया है। इन दोनों बातों में अभी भी एचआईवी एवं एड्स के खतरे को स्वीकार किया गया है। वास्तव में दुनिया भर में ऐसे लोग अब खड़े हो चुके हैं जो एचआईवी की कल्पना, उसके आधार पर बुनी गई बीमारी एवं उसकी संख्या की भयावह तस्वीर को पूरे मनुष्य समुदाय के लिए धोखाधड़ी करार दे रहे हैं। संयुक्त राष्ट्र अभी भी जो आंकडा दे रहा है वह संदिग्ध है, क्योंकि ये आंकड़े उन एनजीआ॓ द्वारा जुटाए गए हैं जो कि एड्स के नाम पर करोडों का कार्यक्रम चलाते हैं। स्वयं भारत में ही यह साफ हो चुका है कि जितने एचआईवी संक्रमण की संख्या यहां दी गई उतनी है ही नहीं। जिस समय एड्स का नाम अस्तित्व में आया तब यह कहा गया था कि एशिया की आबादी ज्यादा होने के कारण वहां यह बड़ी महामारी होगी। इसमें भारत एवं चीन का नाम लिया गया था। हालांकि ये दोनों बातें गलत साबित हुईं, लेकिन इस बीच एशिया के देशों ने एड्स के नाम पर न जाने कितना धन खर्च किया। स्वयं भारत ने स्वास्थ्य मंत्रालय में अलग से राष्ट्रीय एड्स नियंत्रण संगठन नाम से एक विभाग ही कायम कर दिया। भारत में काम की जो बातें पर्दे के पीछे थीं उसे विज्ञापनों के माध्यम से बच्चों तक पहुंचा दिया गया। कंडोम के विज्ञापन को सामाजिक सेवा बना दिया गया। इससे नैतिक हानि हुई और सामाजिक मर्यादाएं ध्वस्त होने से परंपरागत व्यवस्था की चूलें हिल गयीं। बच्चों को विघालयों में सेक्स शिक्षा देने के पीछे सबसे बडा तर्क एड्स जागरूकता को ही बनाया गया। अब डॉ. केविन कह रहे हैं कि लोगों को जागरूक करने पर धन लगाने से ज्यादा जरूरी है कि खतरे की अधिक संभावना वाले क्षेत्रों को निशाना बनाया जाए। यानी जन जागरूकता के नाम पर जो कुछ किया गया वह व्यर्थ था। अगर एचआईवी वाकई है तो यह सेक्स के मामले में व्यभिचार करने वालों, खतरनाक नशे का सेवन करने वालों को हो ग्रसित करता है। भारत के आम आदमी को परंपरागत रूप से इतनी सीख मिली हुई है।
www.rashtriyasahara.com से साभार

Tuesday, May 13, 2008

फोर्ड फाउन डेशन : विदेशी फंडिंग के परिप्रेक्ष्य में एक अध्ययन

दूसरा भाग (गतांक से आगे)

फोर्ड भारत में

फोर्ड फाउनडेशन की नई दिल्ली ऑफिस के वेब पेज के अनुसार -"भारत के प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू के आमंत्रण पर फाउनडेशन ने 1952 में भारत में एक ऑफिस की स्थापना की।" वास्तव में चेस्टर बाउल्स जो 1951 में भारत में अमरीका के राजदूत थे, ने इस प्रक्रिया की शुरुआत की थी। अमरीकी विदेश नीति की स्थापना में लगे बाउल्स को गहरा धक्का तब लगा जब 'चीन हाथ से निकल गया' (राष्ट्रीय स्तर पर वहां 1949 में कम्युनिस्ट सत्ता में आ गए थे)। इसी तरह वे इस बात से भी दुखी थे कि तेलंगाना में कम्युनिस्टों के नेतृत्व में हुए हथियारबंद आन्दोलन को कुचलने में भरतीय सेना नाकाम रही थी (1946-51) " जब तक कि कम्युनिस्टों ने स्वयं ही हिंसा का रास्ता बदल नहीं लिया। "भारतीय किसानों की अपेक्षा थी कि अंग्रेजी राज की समाप्ति के बाद उनकी इस दीर्घकालीन मांग को पूरा किया जाएगा कि जमीन जोतने वाले को मिलनी चाहिए। और यह दबाव तेलंगाना आन्दोलन की समाप्ति के बाद भी आज भारत में हर कहीं महसूस किया जा सकता है।

पॉल हॉफमैन को जो फोर्ड फाउनडेशन के तत्कालीन अध्यक्ष थे, बाउल्स ने लिखा-"स्थितियां चीन में बदल रही हैं पर यहाँ भारतीय परिस्थितियां स्थिर हैं.....अगर आने वाले चार-पाँच वर्षों में वैषम्य बढ़ता है , या फ़िर अगर चीनी भारतीय सीमाओं को धमकाए बगैर अपना उदारवादी और तर्कसंगत रवैया बनाये रखते हैं .... भारत में कम्युनिस्म का बड़ा भारी विकास हो सकता है। नेहरू की मृत्यु अथवा उनके रिटायरमेंट के पश्चात् यदि एक अराजक स्थिति बनती है तो सम्भव है यहाँ एक ताक़तवर कम्युनिस्ट देश का जन्म हो।" हॉफमैन ने अपने विचार व्यक्त करते हुए एक मज़बूत भारतीय राज्य की जरूरत पर बल दिया -"एक मज़बूत केन्द्र सरकार का गठन होगा , उग्र कम्युनिस्टों को नियंत्रित किया जाएगा....प्रधानमंत्री पंडित नेहरू को जनता तथा दूसरे स्वतंत्र (बीमार) देशों से तालमेल, सहानुभूति और मदद की अत्यन्त आवश्यकता है। "

नई दिल्ली ऑफिस फौरन स्थापित किया गया , और फोर्ड फाउन डेशन ने कहा- "यह अमरीका से बाहर फाउन डेशन का पहला कार्यक्रम है और नई दिल्ली ऑफिस इसकी क्षेत्रीय कार्रवाइयों का काफ़ी बड़ा हिस्सा पूरा करेगा। इसका प्रभाव क्षेत्र नेपाल और श्रीलंका तक व्याप्त है।

"फोर्ड फाउन डेशन की गतिविधियों का क्षेत्र तय कर दिया गया ( अमरीकी स्टेट डिपार्टमेंट द्वारा) है "- जॉर्ज रोजेन लिखते हैं ,- " हमारा अनुभव है कि एक विदेशी (अमरीकी) सरकारी एजेंसी का ...................में काम करना अत्यन्त संवेदनशील मसला है .......दक्षिण एशिया बड़ी तेजी से फाउनडेशन की गतिविधियों के लिए एक संभावित क्षेत्र के रूप में सामने आया है.........भारत और पाकिस्तान दोनों ही चीन की ज़द में हैं और कम्युनिज्म द्वारा निशाने पर लिए हुए प्रतीत होते हैं। इसलिए वे अमरीकी नीतियों के सन्दर्भ में अत्यन्त महत्वपूर्ण बन गए हैं..... । " फोर्ड फाउन डेशन ने भारतीय नीतियों पर आधिपत्य जमा लिया है। रोजेन कहते हैं कि "1950 से लेकर 1960 के बीच विदेशी विशेषज्ञों ने भारतीयों के बनिस्बत उच्च अधिकार हासिल कर लिए हैं ", और फोर्ड फाउनडेशन तथा (फोर्ड फाउनडेशन/सी आई ए फंडेड) एमआईटी सेंटर फॉर इंटरनेशनल स्टडीज "योजना आयोग के आधिकारिक सलाहकार" की तरह कार्य कर रहे हैं। बाउल्स लिखते हैं कि " डगलस एन्समिन्जर के नेतृत्व में , भारत में फोर्ड के कर्मचारी योजना आयोग के साथ घनिष्ठ रूप से जुड़े हुए हैं जो पंचवर्षीय योजनाओं का संचालन करता है। जहाँ भी दरार दिखती है , वे उसे भरते हैं, चाहे वह खेती का, स्वास्थ्य शिक्षा का अथवा प्रशासनिक मामला हो। वे ग्रामीण स्तर के कार्यकर्ता प्रशिक्षण विद्यालयों में साथ जाते हैं, संचालन करते हैं और वित्तीय मदद देते हैं।"

Saturday, May 3, 2008

फोर्ड फाउनडेशन-विदेशी फंडिंग के परिप्रेक्ष्य में एक अध्ययन

" कभी न कभी कोई फोर्ड फाउनडेशन द्वारा भारत में किए जा रहे कार्यों का ब्योरा ज़रूर अमरीकी जनता के सामने रखेगा। देश में फोर्ड फाउनडेशन का कुछ लाख डॉलर में आने वाला कुल खर्च इस कहानी का दसवां हिस्सा भी शायद ही बयान कर सके "- चेस्टर बाउलन ( भारत में पूर्व अमरीकी राजदूत ) ।



फोर्ड फाउनडेशन द्वारा विश्व सामाजिक मंच को दिए जा रहे अकूत धन के प्रवाह ने इस संस्थान की पृष्ठभूमि और इसकी वैश्विक गतिविधियों को जगजाहिर कर दिया है। यह न सिर्फ़ इसके बल्कि इस जैसी दूसरी संस्थाओं के अध्ययन की दृष्टि से भी काफी महत्वपूर्ण है। फोर्ड फाउनडेशन (एफ एफ) की स्थापना 1936 में फोर्ड के विशाल साम्राज्य के हित में कर बचाने की जुगत के तौर पर हुई थी लेकिन इसकी गतिविधियाँ स्थानीय तौर पर मिशिगन के स्टेट को समर्पित थीं। 1950 में जब अमरीकी सरकार ने इसका ध्यान "कम्युनिस्ट धमकियों" से मुठभेड़ पर केंद्रित किया , फोर्ड फाउनडेशन एक राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय फाउनडेशन में तब्दील हो गया।

फोर्ड और सी आई ए

सच तो यह है कि अमरीका की केन्द्रीय गुप्तचर संस्था लम्बे समय से अनेकानेक लोकोपकारी फाउनडेशनों (खासकर फोर्ड फाउनडेशन) के माध्यम से कार्य करती आ रही थी। जेम्स पेत्रास के शब्दों में फोर्ड और सी आई ए का अंतर्सम्बंध " अमरीका के साम्राज्यवादी सांस्कृतिक वर्चस्ववाद को मजबूती देने और वामपंथी राजनीतिक एवं सांस्कृतिक प्रभावों की जड़ें खोदने के लिये एक सोची-समझी और सजग संयुक्त पहलकदमी थी। " फ्रांसिस स्टोनर इस दौर पर अपने एक अध्ययन में कहते हैं - इस समय फोर्ड फाउनडेशन ऐसा प्रतीत होता है मानो वह अंतर्राष्ट्रीय सांस्कृतिक दुष्प्रचार के क्षेत्र में सरकार का ही एक विस्तार हो। फाउनडेशन के पास इसका पूरा ब्योरा है कि उसने यूरोप में मार्शल प्लान और सी आई ए अधिकारियों के विशिष्ट अभियानों में कितनी प्रतिबद्धता और अंतरंगता के साथ कार्य किया है। "

रिचर्ड बिशेल ,जो 1952 -54 के दरम्यान फाउनडेशन के प्रमुख रहे, तत्कालीन सी आई ए प्रमुख एलन ड्यूल्स के साथ खुले तौर पर मिलते-जुलते रहे थे। उन्होंने फोर्ड फाउनडेशन को सी आई ए की विशेष मदद के लिये प्रेरित किया। ड्यूल्स के बाद जॉन मैकक्लॉय फोर्ड के प्रमुख बने। इससे पहले का उनका कैरिअर वार (War) के सहायक सचिव, विश्व बैंक के अध्यक्ष, अधिकृत जर्मनी के उच्चायुक्त, रौकफेलर के चेज मैनहट्टन बैंक के अध्यक्ष और सात बड़ी तेल कंपनियों के वाल स्ट्रीट अटोर्नी के तौर पर काफी विख्यात रहा था। मैकक्लॉय ने सी आई और फोर्ड की साझेदारी को तीखा किया - फाउनडेशन के अंतर्गत एक प्रशासनिक इकाई गठित की जो खास तौर से सी आई ए के साथ तालमेल बिठा सके और उन्होंने निजी तौर पर भी एक परामर्शदात्री समिति का नेतृत्व किया ताकि फोर्ड फाउनडेशन फंड के लिए एक आवरण और (Conduit) वाहक के तौर पर अपनी भूमिका का निर्वहन कर सके। 1966 में मैक जॉर्ज बंडी , जो उस वक्त अमरीकी राष्ट्रपति के राष्ट्रीय सुरक्षा मामलों में विशेष सहायक थे, फोर्ड फाउनडेशन के प्रमुख बने।

यह फाउन डेशन और सी आई ए के बीच एक व्यस्त और सघन साझेदारी थी। "सी आई ए के बहुसंख्य "दस्तों" ने फोर्ड फाउनडेशन से भारी अनुदान प्राप्त किया। बड़ी संख्या में सी आई ए प्रायोजित तथाकथित " स्वतन्त्र " सांस्कृतिक संगठनों, कलाकारों और बुद्धिजीवियों ने सी आई ए /फोर्ड फाउन डेशन से अनुदान प्राप्त किया। फोर्ड फाउन डेशन द्वारा दिए गए सबसे बड़े दानों में एक वह था जो सी आई ए प्रायोजित सांस्कृतिक आज़ादी (स्वायत्तता ) कांग्रेस को 1960 में दिया गया था - सात मिलियन यानि सत्तर लाख डॉलर। सी आई ए से जुड़कर काम करने वाले बहुतेरे लोगों को फोर्ड फाउनडेशन में पक्की नौकरी मिलती रही और यह घनिष्ठ साझेदारी परवान चढ़ती रही।"

बिशेल के अनुसार फोर्ड फाउनडेशन का मकसद "केवल इतना भर नहीं था कि वह वामपंथी बुद्धिजीवियों को वैचारिक समर में हरा दे बल्कि यह भी था कि प्रलोभन देकर उन्हें उनकी जगह से च्युत कर दे। " सो 1950 के सांस्कृतिक स्वायत्तता कांग्रेस (सीसीएफ) को सी आई ए ने फोर्ड फाउनडेशन की कीप से फण्ड दिया। सी सी एफ की सबसे प्रसिद्ध गतिविधियों में से एक थी वैचारिक पत्रिका "एनकाउन्टर "। बड़ी संख्या में बुद्धिजीवी जैसे बिकने को तैयार बैठे थे। सी आई ए और फाउन डेशन ने विशिष्ट कलात्मक परम्पराओं , जो अमूर्त अभिव्यक्तियों पर आधारित थीं, को प्रोत्साहित करना शुरू किया - ताकि वह उस कला को जो सामाजिक सरोकारों को वाणी देती है - कड़ी चुनौती दे सके।

अमरीकी फाउनडेशनों में सी आई ए की अत्यन्त व्यापक घुसपैठ थी। अमरीकी सीनेट द्वारा 1976 में गठित एक कमिटी ने यह रहस्योद्घाटन किया कि 1973-76 के दरम्यान दस हज़ार डॉलर से अधिक के 700 अनुदान जो 164 फाउनडेशनों के माध्यम से बांटे गए थे , उनमे से 108 आंशिक तौर पर अथवा शत प्रतिशत सी आई ए पोषित थे। पेत्रास के अनुसार, "फोर्ड फाउनडेशन के शीर्ष पदाधिकारियों और अमरीकी सरकार के बीच का सम्बन्ध सुस्पष्ट है और यह जारी है। हाल के दिनों के कुछ फंडेड प्रोजेक्ट का एक अध्ययन भी साफ बताता है कि फोर्ड फाउनडेशन ने किसी भी ऐसे बड़े प्रोजेक्ट को फण्ड नहीं किया है जो अमरीकी नीतियों की खिलाफत करता हो।"
फोर्ड फाउनडेशन कबूल करता है (अपने नयी दिल्ली ऑफिस की वेबसाइट पर) कि सन् 2000 की शुरुआत में इसने ७.५ विलियन डॉलर ग्रांट के रूप में दिया है और 1999 में इस क्षेत्र में कुल मिलाकर 13 विलियन डॉलर दान में दिया है। वह यह भी दावा करता है कि "सरकारों अथवा अन्य श्रोतों से फण्ड प्राप्त नहीं करता," पर वास्तव में, जैसा कि हमने देखा है, यह एक उल्टी बात है।
क्रमशः अगले अंक में जारी

Monday, April 28, 2008

रीटा पणिक्कर के नाम तीसरा पत्र

तिथि - 05-12-2007
सेवा में,
निदेशक ,
बटरफ्लाइज, यू-4,ग्रीनपार्क एक्सटेंशन , नई दिल्ली -110016।
महोदया,
03-12-2007 के मेरे पत्र के जवाब में आपने कल जो सामूहिक सर्कुलर जारी किया है उसमें एक बार फिर से पूरे घटनाक्रम को यथार्थ और वस्तुपरक तरीके से न देखकर उससे जैसे-तैसे पीछा छुड़ाने की कोशिश की है जो आपकी प्रतिष्ठा के अनुरूप नहीं कहा जा सकता। संगठन के प्रमुख की हैसियत से जिस फैसले पर आपको पहले दिन ही पहुँच जाना था, वहाँ तक पहुँचने से बचाने वाले रास्तों की तलाश ने आपको उस मनःस्थिति तक ला खड़ा किया है कि अब आपको अपने ही संगठन और उसकी एकजुटता पर भरोसा नहीं रहा। आपको यह स्वीकार करना चाहिये कि आप अपने ही संगठन के खिलाफ खड़ी हो गई हैं। सर्कुलर से मुख्यतः जो बातें उभरकर आ रही हैं वे इशारा करती हैं कि -
(क) आप इस बात से अत्यंत दुखी हैं कि संगठन में सब आपके हिसाब से क्यों नहीं सोचते। संभवतः आप यह मानती हों कि वेतनभोगी कर्मचारी होने के कारण इस संगठन में किसी को अलग विचार रखने अथवा असहमति व्यक्त करने का क्या अधिकार हो सकता है।
(ख) विगत दिनों के घटनाक्रम को देखते हुए आपको इस बात पर संदेह है कि यह संगठन एकजुट रह गया है, इसलिये आप जब एकजुटता की बात कर रही हैं तो उसमें आत्मविश्वास की कमी झलक रही है। पिछले 23 अक्टूबर की घटना के बाद से पूरा संगठन अन्याय के खिलाफ संगठित और एकजुट हुआ जो कि आप जानती हैं। क्यों यह एकजुटता आपको निराश या हतोत्साहित करती है ? क्या इसलिये कि इसे राजधर्म के साथ खड़ा होना चाहिये था न कि न्याय के पक्ष में ?
(ग) आप कहती हैं कि हमारे पास वह मंच उपलब्ध था जहाँ हम शिकायतों को सुलझा सकते थे। फिर क्यों उसका उपयोग नहीं हुआ ? क्या इसलिये नहीं कि आपको मालूम था कि उस मंच से खासकर इस मसले पर मनमाफिक निर्णय लेना संभव नहीं होगा ?
(घ) आपको जिस एक और बात पर बहुत ज्यादा ऐतराज है वह यह कि आपको मेरे द्वारा भेजे गये पत्र संगठन के और लोगों की जानकारी में क्यों हैं। सार्वजनिक फण्ड से सामुदायिक सहभागिता के आधार पर काम करते हुए अपने सहकर्मी बाल अधिकार कार्यकर्ताओं के प्रति ऐसा गैरबराबरी वाला नजरिया रखना क्या आपको उचित लगता है ? क्या आप यह नहीं मानतीं कि इस कार्यक्रम में भागीदारी निभा रहे सभी व्यक्ति एक समान और महत्वपूर्ण हैं तथा उनके बीच पूरी पारदर्शिता होनी चाहिये ? फिर इस दुराव-छिपाव का क्या अर्थ है ?
(च) आपने यह बताया है कि इस पूरे मसले की जाँच हेतु आप किसी बाहरी व्यक्ति को नियुक्त करने जा रही हैं। यह अत्यंत दुखद स्थिति है। जब 23 अक्टूबर को मेरे साथ हुए अमानवीय दुर्व्यवहार का संगठित होकर विरोध करते हुए संगठन के पच्चीस से अधिक सहकर्मियों ने स्वहस्ताक्षरित मांग-पत्र में आपसे यह माँग की कि पी॰ एन॰ राय को इस आपराधिक कृत्य के लिये कड़ी सजा दी जाए, ताकि फिर कोई इस संगठन में महिलाओं या बच्चों के साथ हिंसक व्यवहार करने और उनकी मानवीय गरिमा को नष्ट करने की हिम्मत न कर सके, तो यह अपने आप में पूरे संगठन का निर्णय था, जिसपर आपको केवल अपनी सहमति की मुहर लगाने की औपचारिकता पूरी करनी थी। उसके बाद भी संगठन के इस बहुमत के निर्णय को दरकिनार कर किसी बाहरी जाँच की बात करना न सिर्फ हास्यास्पद है बल्कि एक लोकतांत्रिक संगठन में बहुमत की अवहेलना भी है। दूसरी बात यह कि जब संगठन के 95 प्रतिशत सदस्यों के निर्णय पर आपको विश्वास नहीं है, तो आपके द्वारा मनोनीत किसी बाहरी व्यक्ति की जाँच या उसके निष्कर्षों की विश्वसनीयता क्यों होनी चाहिये ?
मेरा विश्वास पहले भी संगठन में था और अब भी उतना ही है। इस पूरे मामले को संगठन से बाहर के किसी भी व्यक्ति को सौंपने से मेरा पूरा विरोध है और मैं इसे कतई स्वीकार नहीं कर सकती। उम्मीद तो यही थी कि आप मानवाधिकार हनन और स्त्री-उत्पीड़न के इस मसले पर संगठन के निर्णय के पक्ष में खड़ी होंगी और पी॰ एन॰ राय जैसे मानव-विरोधी व्यक्ति के लिये इस संगठन में कोई जगह नहीं रहने देंगी, परन्तु अब तक आपने जो भी कदम उठाये हैं उससे यही जाहिर होता है कि आप एक दोषी व्यक्ति को हर कीमत पर बचाना चाहती हैं। एक बाहरी व्यक्ति या संगठन से जाँच कराने की आपकी घोषणा भी आपके इसी प्रयास का एक हिस्सा है। दुनिया के इतिहास में जाँच कमिटियों ने ज्यादातर सच को झुठलाने या उसे निलम्बित करने में ही अपनी महारत साबित की है। न्याय के लिये अपने इस संघर्ष में मैं ऐसे किसी भी प्रयास को कबूल नहीं कर सकती और मुझे विश्वास है मेरे सभी सहकर्मी अन्याय के खिलाफ तनकर खड़े रहेंगे और संगठन के इस आंतरिक मामले को किसी बाहरी व्यक्ति अथवा संगठन को सौंपे जाने के कदम का विरोध करेंगे।
आदर सहित,
उषा ,
बटरफ्लाइज।

बच्‍चे उन्‍हें बसंत बुनने में मदद देते हैं !