Saturday, February 23, 2008






विगत २१ फरवरी को जंतर मंतर पर बेघर बच्चों ने प्रदर्शन किया। वे गैर सरकारी संगठनों द्वारा सड़क के बच्चों का अमानवीय और बर्बर शोषण किए जाने के खिलाफ पिछले एक महीने से आन्दोलन कर रहे हैं। कुछ झलकियाँ।

Friday, February 22, 2008

बेघर बच्चों ने एनजीओ के खिलाफ जंतर मंतर पर किया प्रदर्शन

(सड़क पर रहने वाले बेघर-बेसहारा और कामकाजी बच्चों के संगठन बाल मजदूर यूनियन के बैनर तले विगत २१ फरवरी को सैकड़ों बच्चों ने जंतर मंतर पर इकठ्ठा होकर अपनी मांगों के साथ प्रदर्शन किया। इस प्रदर्शन में बच्चों ने सरकार, समुदाय और विभिन्न गैर सरकारी संगठनों द्वारा अनवरत जारी शोषण-उत्पीड़न के खिलाफ डटकर मोर्चेबंदी करने की कसम ली और तय किया कि वे अब और बच्चों का व्यवसाय नहीं होने देंगे और ऐसे सभी संगठनों के काले कारनामों को सामने लायेंगे जो बच्चों की दुर्दशा का बाजारीकरण करते हुए मुट्ठी-भर लोगों की तिजोरियों के लिए सम्पदा जुटाने में लगे हैं। इस अवसर पर बच्चों ने महिला एवं बाल विकास मंत्रालय के निदेशक को एक ज्ञापन भी दिया। हम यह ज्ञापन व्यापक जनता के सामने रख रहे हैं।)

हम सड़क पर रहने वाले और कामकाजी बच्चे हैं। हमारी ज़िंदगी अनंत दुखों और शोषण की कभी न ख़त्म होने वाली दास्तान है। सड़क पर आसरा लेने तथा वहां काम करने वाले बच्चों को कबाड़ चुनते , होटल या चाय की दूकान पर काम करते , कारखाने में खतरनाक काम करते , ठेले में धक्का लगाते, बोझ उठाते, मन्दिर की लाइन में लगकर खाना खाते, सड़क पर घूमते या खेलते, हर जगह पुलिस , मालिक, दलाल, नशेड़ी यहाँ तक कि आम राहगीर से भी गाली, मार सहनी पड़ती है और यौन शोषण का शिकार होना पड़ता है।

हमारे शोषण का स्तर इतना वीभत्स और व्यापक है जिसे शब्दों में बयान कर पाना सम्भव नहीं है, संभवतः इसे वातानुकूलित, सभी सुख सुविधाओं से सुसज्जित घरों में बैठकर तो बिल्कुल ही नहीं समझा जा सकता है।

हमे हर पल मार-पीट, गन्दी गालियों और तिरस्कार का सामना करना पड़ता है। यदि कड़ी मेहनत करके कुछ रुपये कमा भी लिए तो उसे छीनने के दावेदार बहुत हैं (पुलिस, बदमाश आदि) और रात को सोना तो हमारे लिए एक संघर्ष होता है। हमे न सिर्फ़ सर्दी, गर्मी व बारिश से बचना होता है बल्कि सड़क पर घूम रहे ऐसे लोगों से भी बचना होता है जो हमारे यौन शोषण की ताक में रहते हैं। इन शोषण कर्ताओं और नशेड़ियों की संगत हमें ऐसी बीमारियाँ दे जाती हैं जो मेडिकल साइंस के लिए भी दुर्जेय, वीभत्स और दुर्लभ बीमारियाँ होती हैं।

हम सड़क के बच्चों का भविष्य तो पूछिए ही मत। हमारी आंखों में साधारण बच्चों की तरह डॉक्टर, वकील, टीचर आदि बनने के सपने नहीं पलते बल्कि यह चिंता रहती है कि अगले वक्त का खाना मिलेगा या नहीं। अगर खाना मिल भी गया तो सोना कहाँ होगा। या कि हमें जो बीमारी है उसका इलाज कैसे होगा? असीम शोषण और असुरक्षा हमें अनचाहे अनजाने ही सही पर अक्सर अपराध और गैर कानूनी रास्तों पर धकेल देती है।

हमारी तकलीफों और शोषण को बढाने का काम गैर सरकारी संगठन NGO ( बटरफ्लाइज जैसे ) और करते हैं। कहने को तो यह हमारे कल्याण के लिए काम करते हैं लेकिन वास्तविकता में ये सरकार और सार्वजनिक संस्थाओं की आलोचना कर उनकी नाकामी विदेशी फंडरों और डोनरों को दिखाकर अपने ऐशो-आराम के लिए अपनी थैली भरते हैं। बटरफ्लाइज जैसी NGO बच्चों को एक पोस्टर भर मानती है। जब पोस्टर पुराना हो जाता है तो उसे उतारकर फेंक दिया जाता है। संस्था बच्चों को संख्या तथा उत्पाद भर मानती है जो उनके लिए डाटा भरने, झूठे किंतु लुभावने रिपोर्ट बनाने, करुणा से भर देने वाले फोटो खिंचवाने की चीज़ भर हैं जिनका इस्तेमाल कर वापिस उन्हें कूड़ेदान या गटर में फेंक दिया जाना चाहिए क्योंकि इनके अनुसार हमारी नियति यही है। इनके काम और अनवरत लाभ के लिए हमारा वहीं बने रहना ज़रूरी है। बटर फ्लाइज का उदाहरण देकर इसे आसानी से समझाया जा सकता है। इस संस्था ने अपने बीस वर्षों के इतिहास में तथाकथित बाल हितैषी कार्यक्रमों के लिए लगभग 50 करोड़ रुपये जुटाए तथा खर्च किए होंगे लेकिन इसके बदले में समाज को क्या प्राप्त हुआ? क्या यह संस्था समाज को उदाहरण प्रस्तुत करने लायक कोई बच्चा प्रस्तुत कर सकी है? मतलब ये 50 करोड़ या तो व्यर्थ गए या फ़िर एक या कुछ लोगों की जेबों में गए। मात्र दिल्ली में ही इस तरह की 200 से अधिक संस्थाएं हैं जिन्होंने पिछले एक दशक में सैकड़ों करोड़ रुपये विदेशी या सरकारी सहायता के रूप में प्राप्त किए होंगे। इस अथाह धन का कहाँ किस तरह प्रयोग किया गया यह गंभीर जांच का विषय हो सकता है। संभवतः यह धन बाल कल्याण अथवा सामाजिक कल्याण की बजाय NGO संचालकों की जेबों में गया हो। समाज विरोधी राष्ट्र विरोधी लोगों और गतिविधियों में लगा हो। निश्चित ही बाल अधिकार, बाल कल्याण के नाम पर अपनी दुकानदारी चमकाने वाली बटर फ्लाइज जैसी संस्थाएं बेघर और कामकाजी बच्चों का कोई भला नहीं कर सकती हैं। ऐसे में सरकार और समुदाय (NCPCR और NCHR) अपनी जिम्मेदारी से पल्ला नहीं झाड़ सकते हैं। सरकार, विशेष तौर पर उसका मंत्रालय "महिला एवं बाल विकास" हम बच्चों की समस्याओं से ज़्यादा दिनों तक मुँह नहीं मोड़ सकता। ये ऐसा नहीं कह सकते कि एनजीओ हम बच्चों के कथित कल्याण के नाम पर जो कुछ कर रहे हैं उसकी इन्हें जानकारी नहीं है।

राष्ट्रीय बाल अधिकार संरक्षण आयोग (NCPCR) से हम बच्चे इतनी तो उम्मीद कर ही सकते हैं कि वे स्वयं संज्ञान लेकर ठोस और बदलावकारी पहल करे। हम आपसे अपील करते हैं कि -

(1) सरकार के स्तर पर ठोस, व्यावहारिक व उपयोगी पहल हो जिसके कार्यान्वयन में सरकार या मंत्रालय की अहम् भूमिका हो।

(2) बाल अधिकारों के नाम पर दलाली कर रहे बटरफ्लाइज जैसे संगठनों को बाल हितैषी कार्यक्रमों से दूर रखा जाए।

(3) बाल हितैषी कार्यक्रमों के योजना निर्माण में और उसके क्रियान्वयन में बच्चों के स्वर को अहमियत और स्थान दिया जाए।

(4) एनजीओ के क्रियाकलापों में पारदर्शिता लाने के लिए उनके सभी कार्यक्रमों को, चाहे वे गैर सरकारी अथवा विदेशी स्रोतों से ही क्यों न चलते हों, पारदर्शी बनाने के लिए जनसूचना क़ानून आर टी आई के दायरे में लाना चाहिए।

हमारी आपसे प्रार्थना है कि हमरे दुःख दर्द, तकलीफों के साथ संघर्ष में आपका योगदान हमारे लिए एक सहारा बनेगा जिससे हम अपने अंधकारमय वर्तमान को मिटाकर भविष्य को कुछ रोशन कर सकेंगे।

राजू (पूर्व अध्यक्ष, बाल मजदूर यूनियन ) मुजीब (सचिव, बाल मजदूर यूनियन)

Saturday, February 16, 2008

आईएमएफ और विश्वबैंक क्या हैं?

प्रस्तुति- मीनाक्षी अरोड़ा
आईएमएफ और विश्वबैंक दुनिया के सबसे अमीर जी-7 के देशों -अमरीका, ब्रिटेन,जापान,जर्मनी, फ्रांस, कनाडा और इटली की सरकारों द्वारों नियंत्रित होते हैं, इन संस्थाओं के बोर्ड पर 40 फीसदी से भी ज्यादा नियंत्रण धनी देशों का ही रहता है। इनका काम तथाकथित 'तीसरी दुनिया' या ग्लोबल साऊथ के देशों और पूर्व सोवियत ब्लॉक की 'संक्रमणकालीन अर्थव्यवस्था' पर अपनी आर्थिक नीतियों को थोपना है।
एक बार देश इन बाहरी कंर्जो के चुंगल में फंस जाते हैं तो उन्हें फिर कहीं कोई क्रेडिट या कैश नहीं मिलता, जैसे अधिकांश अफ्रीका, एशिया, लातिन अमरीका और कैरेबियाई देश कर्जे में फंसे हैं तो वे इन्हीं अन्तरराष्ट्रीय संस्थाओं के पास जाने के लिये मजबूर हो गए हैं नतीजतन उन्हें वे सब शर्तें माननी पड़ती है, जो बैंक करने के लिये कहता है कोई भी देश कर्जे की समस्याओं से उबर नहीं पाया है, बल्कि बहुत से देशों की हालत तो पहले से भी बदतर हो गई है, विश्वबैंक-आईएमएफ से सहायता लेने के बाद तो कर्ज और भी बढ़ गया है।
ढांचागत समायोजन कार्यक्रम (सैप- स्ट्रक्चरल एडजेस्टमेंट प्रोग्राम)आईएमएफ-विश्वबैंक की शर्तों को ही ''ढांचागत समायोजन कार्यक्रम'' के नाम से जाना जाता है (हालांकि ये संस्थाएं इस शब्द की नकारात्मक स्थिति से बचने की कोशिश में लगे हैं, इसलिये इसका नाम बदलकर 'गरीबी घटाने और विकास का कार्यक्रम' किया गया है!) यह कार्यक्रम देशों को मजबूर करता है कि वे धनी देशों को निर्यात करें और ऊंचे मुनाफे वाले विदेशी निवेश करने की सुविधा दें। अन्तरराष्ट्रीय व्यापार में बढ़ोतरी यानी कारपोरेट ग्लोबलाइजेशल में 1980 के दशक में ढांचागत समायोजन कार्यक्रमों को थोपने की प्रवृत्ति अपनाई गई क्योंकि कम्पनियां और निवेशकों ने अपने अधिकारों और सुरक्षा की मांग की, उनको सरकारों द्वारा सम्पत्ति के जब्त होता या नए नियमों के लादे जाने का खतरा महसूस हो रहा था। इन मांगों के जवाब में ही 1995, में डब्ल्यूटीओ की स्थापना की गई, यह एक ऐसी संस्था है। जिसकी गुप्त एजेंसिया, कंपनियों के अधिकारों के रास्ते में आने वाले हर राष्ट्रीय कानून को गैरकानूनी या निरस्त घोषित कर देती हैं।
सर्वोत्त्तम रूप में विश्वबैंक को एक ऐसी संस्था के रूप में जाना जाता है जो आर्थिक विकास में सहायक बड़ी परियाजनाओं जैसे- बांधों, सड़कों और पावर प्लांटों आदि के लिये वित्तीय सहायता उपलब्ध कराती हैं। लेकिल जो प्राय: पर्यावरणीय विनाश और सामाजिक भटकाव से भी सम्बन्धित है। आईएमएफ और इसकी अधिकांश सहायता उन कार्यक्रमों को जाती हैं जिनमें 'सुधार' के नाम पर आर्थिक नीतियों द्वारा गरीबों का गला घोंटकर कम्पनियों को लूट के लिये छूट दी जाती है। हालांकि पूर्वी एशिया में आए आर्थिक संकट के कारण आईएमएफ की काफी-कुछ आलोचना हुई है(इसने दक्षिण कोरिया, इंडोनेशिया और थाईलैंड पर अपने विकास कार्यक्रम लाद दिये थे) ज्यादा नुकसान अर्जेंटीना में हुआ, फिर भी दोनों संस्थाएं पूरे विश्व की अर्थव्यवस्था पर काबिज होने के लिये लगभग 90 देशों की अर्थव्यवस्थाओं को राजनीतिक और व्यवसायिक एलीट वर्ग के जरिये, नियंत्रित करने में जुटी हुई हैं।
ये देश इनकी नीतियां अपनाने के लिये मजबूर हैं खासतौर पर लोक कल्याणकारी कार्यों में राज्य की भूमिका कम करने और नियमों को हटाने के लिये बाध्य हैं। इन नीतियों को शुरू करने के साथ ही कमजोर देशों पर विपरीत प्रभाव पड़ने लगे। ''बाजार की सफलता'' की जो कहानियां हमने पढ़ीं कि ये पूंजी पैदा करते हैं, वह तो जनसंख्या के एक छोटे से भाग को ही जाती है और उसमें से भी गरीबी की मार झेल रही हैं, बुनियादी सेवाएं तक उन्हें नहीं मिल पाती, अपनी ही अर्थव्यवस्थाओं पर उनका नियंत्रण खोता जा रहा है।‘सैप’ कारपोरेट और एलीट के लिये काम करता है:आईएमएफ और विश्वबैंक द्वारा बनाए गए ढ़ांचागत समायोजन कार्यक्रम (सैप) क्यों और कैसे बहुराष्ट्रीय कंपनियों की सुविधा के लिये आवश्यक ऐसी परिस्थितियों का निर्माण करते हैं, जिन्होंने दक्षिणी के देशों के ज्यादातर लोगों को उजाड़ दिया है? सैप की परिस्थितियों पर एक नजर डालें तो मालूम होगा कि एक बहुसंख्यक आबादी की कीमत पर धन्नासेठों के हितों का पोषण करने के लिये कैसे आर्थिक 'सलाह' का इस्तेमाल किया जाता है।
सैप के लिये देश हामी क्यों भरते हैं?सैप कई रूपों में प्रजातंत्र -विरोधी हैं। संस्थाएं ठीक ही कहती हैं कि सरकारें इन योजनाओं से सहमत हैं। लेकिन इन योजनाओं में शामिल सरकारी अधिकारी आमतौर पर वित्त मंत्रालय और केन्द्रीय बैंक तक ही सीमित हैं जो रूढ़िवादी, उत्तर में शिक्षित और सरकार के सबसे धनी सदस्यों में से होते हैं- यानी दूसरे शब्दों में कहें तो उनमें से अधिकांश आईएमएफ की आर्थिक नीतियों से सहमत और लाभाविन्त ही होते हैं। दस्तावेजों पर हस्ताक्षर करने वाले आधिकारियों का नजरिया चाहे कुछ भी हो, लेकिन इन सबसे बाध्यता जरूर होती है। शक्ति समीकरण बहुत सरल है: अगर कर्जदार देश ढांचागत समायोजन कार्यक्रम (सैप) योजना से सहमत नहीं है, तो इसे 'ग्लोबल इकॅनोमी ' से अलग कर दिया जाएगा – क्रेडिट (साख), सहायता, कर्ज सब कुछ बंद कर दिया जाएगा- फिर भी दूसरे अन्य कई कर्जदार आईएमएफ और विश्वबैंक का नेतृत्व स्वीकारने की लाइन में लगे हैं।
''शॉर्ट टर्म पेन फॉर लोंग टर्म गेन'' का नारा खोखला लगता है, जब इसे सारी पीढ़ीयों के लिये कहा जाता है। ऐसी बेकार नीतियों के साथ कोई विरली सरकार ही अपने लोगों को ढांचागत समायोजन कार्यक्रम देना चाहेगी, खासतौर पर तब जबकि 25 साल के लम्बे समय में हम देख चुके हैं कि थोड़े समय की यह पीड़ा कभी खत्म नहीं होती और लाभ तो कभी शुरू ही नहीं होते। सैप प्रजातान्त्रिक देशों की प्रतिनिधि सरकारों को ऐसे मानक अपनाने को मजबुर कर अस्थायित्व पैदा कर देते हैं जिससे जनता में सरकार की वैधता कम हो जाए। ऐसा भी तर्क दिया गया है कि आईएमएफ प्रजातान्त्रिक देशों में तानाशाही पसंद करता है क्योंकि तानाशाह सैप को ज्यादा सफलतापूर्वक लागू कर सकते हैं और एक बार नियम लागू हो गए तो डब्ल्यूटीओ प्रजातंत्र पर प्रहार करता है इसके लिये वह कम्पनियों के मुनाफे के अधिकार के रास्ते में आने वाले हर नियम को निरस्त करवा देता है।
यह सच है कि वाशिंगटन में स्थित ये संस्थाएं जो अमरीकी ट्रेजरी डिपार्टमेंट द्वारा नियंत्रित होती हैं पिछले दो दशकों से दुनिया की बहुसंख्यक आबादी को भूखा मार रही हैं। अमरीका के लोग इस सच्चाई से पूरी तरह वाकिफ हैं कि यह अब एक कलंक बन गई है। यह व्यवस्था उनके लिये अच्छी है जिन्हें इससे मुनाफा हो रहा है।
दुनिया में कहीं भी रहने वाले व्यक्ति को यह जानने के लिये कि यह व्यवस्था कैसे काम करती है, पचास सालों का समय बहुत होता है। इस व्यवस्था के अन्याय के खिलाफ आवाज उठाकर हम व्यवस्था को बदल सकते हैं जो अमीर को और ज्यादा अमीर बना रहा है और उजड़े और कमजोर को और ज्यादा मार रहा है।
पीएनएन हिन्दी से साभार

बहुराष्ट्रीय उपनिवेशवाद -डॉ. बनवारी लाल शर्मा

(देश में गहरा आक्रोश है। जरूरत इस बात की है कि यह आक्रोश क्रांतिकारी परिस्थितियों के निर्माण की दिशा में बढ़े। ऐसे में आत्मविश्वास के साथ पश्चिमी चुनौती को स्वीकार कर आजादी की नई लड़ाई में कूदने का वक्त आ गया है।)
भारत में अंग्रेजियत की नींव डालने वाले लार्ड मैकाले ने एक बार भारतीयों के बारे में कहा था, 'केवल अपने नाक-नक्शे में ही वे देशी हैं, अन्यथा अपने अंदाजों में, मस्तिष्क की आदतों में और यहां तक कि शुध्द मनोवेगों में भी वे यूरोपीय होंगे।' मैकाले को विश्वास था कि भारतीय मानस को जड़ से प्रभावित करने के लिए उसने जिस शिक्षा प्रणाली की नींव डाली थी, वह जरूर उसकी भविष्यवाणी को सिध्द करेगी। हमारे देश के नीति-निर्माताओं को अफसोस है कि मैकाले की बात पूरी खरी क्यों नहीं उतर रही है। तभी तो राष्ट्रीय ज्ञान आयोग के अध्यक्ष सैम पित्रोदा ने बड़े अफसोस के साथ कहा कि दो सौ साल अंग्रेज इस देश में रह गए और केवल दो फीसदी ही देशी लोग अंग्रेजी जानते हैं। इस गलती को दूर करने के लिए राष्ट्रीय ज्ञान आयोग ने संस्तुति की है कि देश के बच्चों को पहली कक्षा से लेकर बारहवीं कक्षा तक अंग्रेजी अनिवार्य रूप से पढ़ाई जानी चाहिए। आयोग तो पहल कर ही रहा है, शिक्षा का धन्धा करने वाले गांव-गांव में 'इंग्लिश मीडियम' के 'पब्लिक स्कूल' खोल रहे हैं, जिनमें पिचके गाल वाले कुपोषित बच्चे भी टाई बांधे 'ए' से 'एप्पल' रटते दिखते हैं।उपनिवेशकाल में भारत के पढ़े-लिखे लोगों में यूरोप-केन्द्रित दृष्टि इतनी जम गयी कि आज भी वह वर्ग उसको दुहराने और उसका उपकार जताने में किसी प्रकार की हया-शर्म महसूस नहीं करता। सितम्बर 1996 में भी पी। चिदम्बरम आज की तरह भारत सरकार के वित्तामंत्री थे और अपनी उदारीकरण की नीतियों के कारण पश्चिम की दुनिया के दुलारे थे। वे वाशिंगटन में व्यवसायियों के एक सम्मेलन को सम्बोधित कर रहे थे। उन्होंने अमरीकी उद्यमियों से कहा था, 'आप में से उन लोगों से, जो भारत आना चाहते हैं, मुझे यह कहना है कि आप लम्बे समय के लिए वहां आइए। पिछली बार आप भारत पर एक दृष्टि डालने के लिए आए थे। आप दो सौ साल ठहरे। इसलिए इस बार, अगर आप आएं तो और दो सौ साल रहने के लिए तैयारी करके आएं। वहीं सबसे बड़े प्रतिफल हैं।'वर्तमान प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह तो दो कदम आगे बढ़ गये। 8 जुलाई 2005 को ऑक्सफोर्ड विश्वविद्यालय से मानद डॉक्टरेट की उपाधि ग्रहण करने पर व्याख्यान देते हुए उन्होंने कहा था, 'आज बीते समय को पीछे मुड़कर देखने से जो संतुलन और परिप्रेक्ष्य मिलता है, उससे एक भारतीय प्रधानमंत्री के लिए दावे के साथ कहना संभव है कि भारत का ब्रिटेन के साथ का अनुभव लाभकारी भी था। कानून, संवैधानिक सरकार, स्वतंत्र प्रेस, पेशेवर नागरिक सेवा, आधुनिक विश्वविद्यालय और शोध प्रयोगशालाओं के बारे में हमारी अवधारणाओं ने उस कढ़ाव में स्वरूप ग्रहण किया है, जहां एक युगों पुरानी सभ्यता उस समय के प्रबल साम्राज्य से मिली। ये वे सभी तत्व हैं जिन्हें हम अभी भी मूल्यवान समझते हैं और जिनका आनन्द लेते हैं। हमारी न्यायपालिका, हमारी कानून व्यवस्था, हमारी अफसरशाही और हमारी पुलिस, सभी महान संस्थाएं हैं जो ब्रितानी-भारतीय प्रशासन से निकली हैं और उन्होंने देश की अच्छी सेवा की है। ब्रिटिश राज की सभी धरोहरों में अंग्रेजी भाषा और आधुनिक विद्यालय व्यवस्था से ज्यादा महत्वपूर्ण और कोई धरोहर नहीं।'दरअसल, ये सबसे महत्वपूर्ण धरोहरें, अंग्रेजी भाषा और विद्यालय व्यवस्था ही हैं, जो पश्चिम केन्द्रित दृष्टि को केवल टिकाए ही नहीं रही हैं, बल्कि उसे आजादी के इन साठ सालों में आगे भी बढ़ाया है। उपनिवेश काल में स्थापित हुई शिक्षण संस्थाओं की तर्ज पर बनी शिक्षण संस्थाएं पश्चिम के मूल्यों को बढ़ा रही हैं और उनमें प्रशिक्षित बुध्दिजीवियों द्वारा प्रतिपादित सिध्दान्तों और व्यवस्थाओं का वफादारी के साथ अनुसरण्ा भी कर रही हैं। 'कृषि, शोध, शिक्षण और प्रशिक्षण में भारत-अमरीकी ज्ञान पहल' (इंडो-यूएस नॉलेज इनीशिएटिव ऑन एग्रीकल्चर रिसर्च, एजूकेशन एण्ड ट्रेनिंग) इस मानसिकता का ताजा उदाहरण है। भारत में कृषि पर शोध-अध्ययन की नीतियां यह 'ज्ञान-पहल' बना रहा है जिसमें सात सदस्य भारतीय और सात अमरीकी हैं। अमरीकी सदस्यों में प्रमुख सदस्य अमरीकी बीज कम्पनी मोनसेंटो और खुदरा बाजार की सबसे बड़ी कम्पनी वाल-मार्ट के उच्च अधिकारी हैं। अन्न की बड़ी अमरीकी सौदागर कम्पनी एडीएम (आर्थर-डेनियल-मिडलेंड) भी शामिल है। यह समझने में कोई कठिनाई नहीं होनी चाहिए कि भारत की खेती की दिशा क्या होगी। एक के बाद एक सरकारें जो कृषि नीतियां घोषित कर रही हैं, उनके अदृश्य लेखकों के नाम कहीं खोजने की जरूरत नहीं है।यह प्रक्रिया यहीं रुक नहीं रही है। वाणिज्य मंत्रालय की पहल पर मानव संसाधन मंत्रालय ने एक बिल तैयार किया है जिसे कैबिनेट की मंजूरी मिल गयी है। इस बिल के पास हो जाने पर विदेशी विश्व विद्यालयों और उच्च शिक्षण-प्रशिक्षण संस्थाओं को भारत में अपने कैम्पस खड़े करने की इजाजत मिल जाएगी। ये संस्थाएं भारतीय मानस को और भी पश्चिम केन्द्रित बनाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाएंगी।दरअसल, आजादी के इन साठ सालों में क्रमिक रूप में अंग्रेजों के राज्य-उपनिवेशवाद के उत्ताराधिकारी के रूप में 'बहुराष्ट्रीय उपनिवेशवाद' (कारपोरेट कॉलोनियलिज्म) कायम हुआ है। अंग्रेजों के बाबुओं की उत्ताराधिकारी, अब 'साइबर बाबुओं' की एक बड़ी जमात बड़े-बड़े नगरों में दिखाई पड़ती है, जो 'निशाचर' बनकर पूरी रात अमरीकी और यूरोपीय कंपनियों के लिए चन्द टुकड़ों पर खटती-मरती रहती है और जिसकी अच्छी-खासी ऊर्जा अमरीकी लहजे में बात करना सीखने में खर्च होती है। भाषा, भेष और भोजन सभी में वे गलती से भारत भूमि में पैदा हुए अमरीकी-यूरोपीय लगते हैं।समाज का एक वर्ग होता है जो उपनिवेश काल में फूलता-फलता है। यह वह वर्ग है जो उपनिवेशी ताकतों के सामने आत्मसमर्पण कर देता है और उपनिवेशी ताकतों की लूट का एक अंश मदद के बदले में पा लेता है। कारपोरेटी उपनिवेश काल के वर्तमान दौर में इस वर्ग ने तरक्की की है और इस तरक्की के कुछ मानक गिना दिए जाते हैं।देश में उन्नति के अन्य मानक भी राजनेता और अर्थशास्त्री गिना देते हैं। निवर्तमान राष्ट्रपति ने तो भारत को महान देश होने की एक तारीख 2020 तय कर दी है, पर इस तरक्की की चमकीली परत को जरा सा नाखून से खुरचने पर देश की असली तस्वीर उभर आती है। विश्व का इतिहास गवाह है कि उपनिवेशवाद पूंजीवाद के विस्तार के लिए खड़ा हुआ और हो रहा है और यह पूंजीवाद क्रूरतम हिंसा और वीभत्स शोषण पर खड़ा हुआ है। आज देश में संविधान को धता बताते हुए पूंजीवादी व्यवस्था बड़ी तेजी से स्थापित की जा रही है। सरकार की भूमिका मात्र फेसीलीटेटर की रह गई है। देश देशी-विदेशी पूंजीपतियों को सौंप दिया गया है। आमजन कहीं पूंजीपतियों के इरादों में अड़ंगा लगाते दिखते हैं, तो सरकारें उन पर गोली चलाकर अपना कर्तव्य पूरा करती हैं, जैसा कि पूरी दुनिया ने पश्चिम बंगाल और उड़ीसा में हाल ही के दिनों में देखा। देश में सभी नीतियां- देशी विदेशी कारपोरेट घरानों के इशारों पर बन रही हैं। यह अब जगजाहिर है कि अमरीका के साथ भारत के न्यूक्लियर समझौते में जनरल इलेक्ट्रिक (जी ई) जैसी अनेक कंपनियों ने बड़ी मात्रा में धन खर्च करके लाबिंग की थी। विशेष आर्थिक क्षेत्रों-सेज को विदेशी इलाके (फॉरेन टैरीटरी) घोषित करके उपनिवेश कायम करने की चल रही प्रक्रिया पर सरकार ने अपनी मुहर लगा ही दी है।यहां यह उल्लेख करना जरूरी है कि बहुराष्ट्रीय कंपनियां अपना विजय-कूच करने में जिन संस्थाओं से हवाई संरक्षण (एअर कवर) लेती हैं, उनमें प्रमुख हैं-विश्व बैंक, अन्तरराष्ट्रीय मुद्राकोष और विश्व व्यापार संगठन (डब्लूटीओ)। पहली दो संस्थाएं कर्ज के हथियार का, और तीसरी व्यापार के हथियार का इस्तेमाल करके भारत को तृतीय विश्व (व्यापार) युध्द में परास्त कर चुकी हैं और विधिवत 'बाजार' को विजयी घोषित कर दिया गया है।परास्त देश के जो लक्षण होते हैं, वे देश में दिख रहे हैं, भले ही मीडिया का ढोल पीटकर और चकाचौंध दिखाकर उससे दृष्टि हटाने की कोशिश हो रही है। कौन नहीं जानता है कि इस देश में पिछले कुछ सालों में कोई सवा लाख किसान आत्महत्या कर चुके हैं और यह सिलसिला थम नहीं रहा है। बेरोजगारी का तो यह आलम है कि चन्द पदों के लिए लाखों युवक-युवतियों की भीड़ पुलिस की लाठी खाने को जमा हो जाती है। गैर-बराबरी का तो आलम यह है कि देश की आर्थिक राजधानी मुंबई में मलिन बस्तियों में रहने वालों की आबादी साठ फीसदी है और देश की राजनैतिक राजधानी दिल्ली में मलिन बस्तियों से ज्यादा जगह कारें घेरती हैं। कुपोषण का यह हाल है कि देश के कोई आधे बच्चे 5 साल से ज्यादा जीवित नहीं रह पाते। हिंसा, असुरक्षा का यह आलम हे कि देश में 5 साल से लेकर 70 साल तक की महिला अपने को यौन शोषण से सुरक्षित महसूस नहीं करती। गोलीबारी, हत्या, लूटपाट, आतंकवाद तो भारतीय जीवन का अंग ही बन गए हैं।देश में इन सबके कारण आक्रोश है। चिन्ता की बात यह है कि यह आक्रोश गृह-युध्द की दिशा में न बढ़ जाए, जिसके लक्षण कुछ-कुछ दिख रहे हैं। जरूरत इस बात की है कि यह आक्रोश देश में क्रान्तिकारी परिस्थितियों के निर्माण की दिशा में बढ़े। देश के युवा चमक-दमक के पीछे छिपी बहुराष्ट्रीय गुलामी को समझें। आत्मविश्वास के साथ इस पश्चिमी आक्रमण की चुनौती को स्वीकार करें और आजादी की नयी लड़ाई में कूदें।
पीएनएन हिन्दी पोस्ट से साभार

Thursday, February 14, 2008

गैर सरकारी संगठनों के मुख्य उद्देश्य-2

दूसरा भाग (अगले अंक से जारी)
(७) वे जनता को संघर्ष के रास्ते से भटकाते हुए और उनमे मौजूद सबसे बढ़िया तत्वों को सुधारवाद और व्यवस्था का अंग बनाते हुए जनता को लामबंद होने से रोकने की कोशिश करते हैं। एक प्रगतिशील और कई बार तो एक क्रांतिकारी छवि बनाते हुए वे वामपंथी बुद्धिजीवियों को पूँजी की तरफ़ करने में बड़ी हद तक कामयाब हुए हैं। चूंकि उनके हाथ भारीभरकम धनराशि रहती है, अतः गैर सरकारी संगठन वामपंथी बुद्धिजीवियों को सेमिनारों, कार्यशालाओं और सम्मेलनों में आने के लिए पैसा देकर और शोध एवं नीतिगत अध्ययन के लिए परियोजनाओं और संस्थानों में संलिप्त करते हुए अपनी तरफ़ आकर्षित करने में और अपने में शामिल करने में सफल हुए हैं। विश्व भर में साम्राज्यवादी पूँजी द्वारा हजारों परियोजनाएं और संस्थान शुरू किए गए हैं जो साम्राज्यवादियों की ज़रूरतों के अनुसार शोध करते हैं। इन परियोजनाओं के साथ स्वयं को जोड़कर बुद्धिजीवी उन्हें विश्वसनीयता प्रदान करते हैं और जनता में भ्रम पैदा करते हैं।
(८) गैर सरकारी संगठन जनता की राय को बदलने ,पूंजीवादी शोषण को जारी रखने के लिए आवश्यक विचारधारा और भ्रम पैदा करने के माध्यम के तौर पर काम करते हैं। वे इस ढंग से जनता के विचारों को प्रभावित कर सकते हैं जिस ढंग से राजसत्ता या शासक वर्गीय पार्टियाँ प्रत्यक्ष तौर पर नहीं कर सकतीं। स्वयं को निःस्वार्थ समाज सेवक के रूप में और जनकल्याण के प्रति समर्पित व्यक्तियों के रूप में पेश करने की कोशिश करते हुए, वे जनता की हमदर्दी जीतने की कोशिश करते हैं। उनके क्रांतिकारी, साम्राज्यवाद विरोधी तेवर और विकास, आधुनिकीकरण और जमीनी जनवाद, सिविल सोसाइटी के जनवादीकरण, सामाजिक न्याय, राजसत्ता विरोधवाद, मानवतावाद और मानवाधिकार, सशक्तिकरण आदि-आदि की बातें प्रगतिशील और यहाँ तक कि कुछ क्रांतिकारी हिस्सों को भी धोखे में डाल सकती हैं। इस प्रकार वे जनता के बीच एक वैचारिक भ्रम की स्थिति पैदा करते हैं और साम्राज्यवादी पूँजी के द्वारा बेरोकटोक लूट के रास्ते को प्रशस्त करते हैं।
(९) वे एशिया, अफ्रीका और लातिन अमरीका के देशों के औपनिवेशीकरण के लिए अंतर्राष्ट्रीय पूँजी के औजार का काम करते हैं। वे इन देशों में साम्राज्यवादी पूँजी के आराम से काम करने की और बाज़ार के विस्तार की परिस्थितियों को पैदा करते हैं। अपने काम के लिए सर्वाधिक पिछड़े क्षेत्रों को चुनकर गैर सरकारी संगठन सामुदायिक विकास, स्वयं सहायता ग्रुपों को प्रोत्साहित करने के नाम पर और साम्राज्यवाद द्वारा प्रायोजित विकास कार्यक्रमों को सक्रियातापूर्वक प्रोत्साहित करतें हुए इन क्षेत्रों में बाज़ार संबंधों को लाने में कामयाब हो गए। वे दुनिया के लगभग सभी देशों में और विशेष तौर पर पिछड़े आदिवासी क्षेत्रों में तथाकथित विकास कार्यक्रमों में सक्रियातापूर्वक संलिप्त हैं।
(१०) वे दुष्टतापूर्ण तरीकों से क्रांति को आगे बढ़ने से रोकने की कोशिश करते हैं और जहाँ क्रांतियाँ विजयी हो चुकी हैं, वहां मजदूर वर्ग के शासनों को अस्थिर बनाने की और पूंजीवादी व्यवस्था की पुनर्स्थापना की कोशिश करते हैं। अतः गैर सरकारी संगठन शहरी बस्तियों में बुनियादी जनता में ध्यान केंद्रित करने के साथ-साथ अपने काम काज के लिए सर्वाधिक पिछड़े, रणनीतिक क्षेत्रों को चुनते हैं जो क्रांति के संभावित केन्द्र होते हैं।
उत्तर आधुनिकतावादी जो सामूहिक की बजाय व्यक्तिगत उद्यमों में ज़्यादा विश्वास करते हैं, विभिन्न पहचान ग्रुपों के रूप में ज्यादा बात करते हैं जैसे लिंग, जाति, नस्ल और राष्ट्रीयता और वर्ग एकता की अवधारणा को सिरे से खारिज करते हैं और राजनीतिक पराजयवाद का शिकार होते हुए वे इन विचारों की वकालत करते हैं कि हम "इतिहास के अंत" तक पहुँच चुके हैं, "पूंजीवाद का कोई विकल्प नहीं है", मौजूदा परिस्थितियों में हमारे पास पूंजीवाद को अन्दर से ही सुधारने के अलावा और कोई रास्ता नहीं बचा है, और इस प्रकार वे वर्त्तमान कि गैर सरकारी संगठनों की प्रक्रिया को वैचारिक आधार प्रदान करते हैं। चूंकि बहुत से उत्तर आधुनिकतावादी किसी समय मार्क्सवादी थे अतः वे गैर सरकारी संगठनों को प्रगतिशील और यहाँ तक कि क्रांतिकारी संगठनों के रूप में विश्वसनीयता प्रदान कर देते हैं।
संक्षेप में गैर सरकारी संगठन साम्राज्यवाद के चेले हैं जो स्वयं को आकर्षित करने वाली भाषा में छुपाकर रखते हैं। वे जनता की भयंकर गरीबी का व्यापार करते हैं और तीसरी दुनिया की गरीबी में जकड़ी जनता को दिखाकर विदेशों के साम्राज्यवादी दाताओं या व्यक्तियों से फण्ड वसूल करते हैं। परजीवियों की तरह वे गरीबी में जकड़ी महिलाओं, बच्चों और अपाहिज व्यक्तियों के नाम पर, विकास के नाम पर, सशक्तिकरण के नाम पर वसूले गए फण्ड पर जीवित रहते हैं। वे तीसरी दुनिया के देशों में साम्राज्यवादी पूँजी की घुसपैठ को न्यायोचित ठहराते हुए साम्राज्यवाद के लिए विचारक का काम करते हैं और इन देशों की अर्थव्यवस्थाओं पर साम्राज्यवादियों के शिकंजे को प्रोत्साहित करते हैं। यही कारण है कि साम्राज्यवादी , खून चूसने वाले स्वार्थियों के जैसा उनका चरित्र है , इन संगठनों को खड़ा करने और इनके पालन-पोषण पर भारी-भरकम धनराशि खर्च करते हैं। फोर्ड फाउनडेशन , रोक्फेलर फाउनडेशन , कार्नेगी फाउनडेशन , हैनरिख बोल फाउनडेशन और अनेक अन्य साम्राज्यवादी संस्थान इन गैर सरकारी संगठनों के रख-रखाव पर प्रतिवर्ष लाखों डॉलर खर्च करते हैं।
क्रमशः , समापन किस्त अगले अंक में...

आख़िर क्या बला हैं ये गैर सरकारी संगठन (२)

भाग- २(पिछले अंक से जारी)
अगले चरण में प्रत्यक्ष औपनिवेशिक शासन की समाप्ति के बाद यानि नव उपनिवेशवाद के चरण में पूरे विश्व भर में गैर सरकारी संगठनों की संख्या में काफी बढ़ोत्तरी हुई। इस काल में अमरीकी गैर सरकारी संगठनों की भूमिका यूरोपीय गैर सरकारी संगठनों से ज़्यादा हो गई चूंकि अमरीका के पास फिलीपींस को छोड़कर कोई अन्य उपनिवेश नहीं था, और चूंकि अन्य औपनिवेशिक शक्तियों के प्रति उनके पूर्व उपनिवेशों में आमतौर पर नफ़रत की भावना थी। अतः प्रत्यक्ष औपनिवेशिक शासन की समाप्ति के बाद अमरीका आसानी के साथ इन देशों में घुसपैठ कर गया। अन्य साम्राज्यवादी शक्तियों की तुलना में जो दूसरे विश्वयुद्ध के दौरान कमज़ोर हो चुकी थीं, अमरीका की ताक़त अमरीकी साम्राज्यवादियों के लिए एक अनुकूल तथ्य था। अतः अमरीकी पूँजी के साथ - साथ गैर सरकारी संगठन भी एशिया, अफ्रीका और लातिन अमरीका के लगभग हर देश में घुस गए। सर्वाधिक महत्वपूर्ण तथ्य जिसने अमरीकी गैर सरकारी संगठनों की वृद्धि में उत्प्रेरक का काम किया, वह था कम्युनिज्म की चुनौती को रोकना जो बहुत सारे देशों के सामने मौजूद थी। कम्युनिज्म की चुनौती का मुकाबला करने के लिए वैचारिक, राजनीतिक और सैन्य नेतृत्व अमरीकियों ने अपने हाथ में ले लिया था। हमें यह सुनकर हैरानी होगी कि 1921 के अकाल के दौरान भोजन, कपड़े और दवाइयाँ आदि जिनका मूल्य 50 करोड़ डॉलर के लगभग था, बांटने के लिए अमरीका ने अपने गैर सरकारी संगठन रूस में भेजे थे। अमरीकन रिलीफ एडमिनिस्ट्रेशन क्रांति के बाद के रूस में राहत कार्यों में संलिप्त गैर सरकारी संगठनों में सर्वाधिक सक्रिय था। प्रतिक्रान्तिकारियों की मदद करते हुए रूसी क्रांति को नष्ट करने के अमरीकी साम्राज्यवादियों के सभी प्रयास बुरी तरह विफल हो जाने के बाद ही यह किया गया था। पहले विश्वयुद्ध के बाद आस्ट्रिया और हंगरी में क्रांति को आगे बढ़ने से रोकने के लिए और उन्हें बोल्शेविकवाद से दूर रखने के लिए पहले विश्वयुद्ध के बाद अमरीकी गैर सरकारी संगठनों ने खाद्यान्न की आपूर्ति की थी। सोवियत यूनियन और पूर्वी यूरोपीय देशों में गैर सरकारी संगठनों के माध्यम से साम्राज्यवादी सहायता भेजने का उद्देश्य पूंजीवादी शक्तियों को मजबूत करना, उन अर्थव्यवस्थाओं को उदार आर्थिक नीतियों की तरफ़ धकेलना और अमरीकी साम्राज्यवाद के बारे में एक अच्छा प्रभाव पैदा करना था। हालांकि आर्थिक कारण तो थे ही। उदाहरण के लिए एआरए द्वारा रूस में भेजा गया 5,40,000 टन अमरीकी खाद्यान्न अमरीकी बाज़ार में खाद्यान्न की कीमतों को टिकाऊ रखने में सहायक सिद्ध हुआ और बदले में समाज सेवक का तमगा तो मिल ही गया। 'काम के बदले अनाज', 'मध्यान्ह भोजनआदि स्कीमों के माध्यम से तीसरी दुनिया के देशों को अमरीका का अतिरिक्त खाद्यान्न स्थानांतरित करने के लिए अमरीकी गैर सरकारी संगठनों ने एक महत्वपूर्ण माध्यम का काम किया है।
क्रमशः अगले अंक में ...

Tuesday, February 12, 2008

ग़ैर सरकारी संगठनों के मुख्य उद्देश्य

इनकी व्याख्या निम्न ढंग से की जा सकती है-
(१) वे जनता के आक्रोश को सुरक्षा वाल्व का काम करते हुए संवैधानिक , शांतिपूर्ण और हानिरहित रास्ते पर ले जाते हैं।
(२) वे उत्पीड़ित जनता को तबकों और विभिन्न पहचान ग्रुपों में बाँटने की कोशिश करते हैं और इस प्रकार उत्पीड़ित जनता की वर्ग एकता को विकसित होने से रोकते हैं।
(३) केवल पहचान के आधार पर जैसे कि लिंग (महिला), जाति (दलित), नस्ल (आदिवासी), राष्ट्रीयता आदि के आधार पर उत्पीड़क और उत्पीडितों के बीच एकता की वकालत करते हुए वे वर्ग विभाजन को और विभिन्न सामाजिक ग्रुपों और तबकों में फ़र्क को अँधेरे में रखने की और ख़त्म करने की कोशिश करते हैं।
(४) वे उत्पीड़ित जनता में एक झूठा विश्वास भरने की कोशिश करते हैं कि पूँजीवाद का कोई विकल्प नहीं है और पूँजीवाद की अन्तिम विजय हो चुकी है। वे दावा करते हैं कि मार्क्सवाद पुराना पड़ चुका है अतः सिविल सोसाइटी का जनवादीकरण करते हुए और एक मानवीय चेहरे वाले वैश्वीकरण को प्रोत्साहित करते हुए वर्तमान विश्व में ही सुधार लाने के हमें प्रयास करने चाहिए।
(५) वे राजसत्ता विरोधी रुख अख्तियार करते हैं , जो प्रगतिशील लोगों को भी सीधे-सीधे आकर्षित करता है। हालांकि, वे निजीकरण को सूक्ष्म स्तर पर लागू करने की कोशिश करते हैं जबकि उनके मास्टर यही काम स्थूल स्तर (Macro Level) पर करते हैं। यानी अंतर्राष्ट्रीय पूँजी अर्थव्यवस्था को नियंत्रित करने में राज्यों की भूमिका को ख़त्म करने की बात करती है और चाहती है कि बाज़ार बिना राज्य के हस्तक्षेप के मुक्त रूप से चलता रहे (वास्तविकता में यह कितना झूठ है, यह अलग बात है), जबकि ग़ैर सरकारी संगठन स्वयं सहायता , सहयोग, सामुदायिक विकास आदि आदि की बात करते हैं। इस प्रकार राजसत्ताओं को शिक्षा, चिकित्सा सुविधा,पीने का साफ पानी, स्वच्छता, सिंचाई, रोज़गार आदि विषयों में जनता के प्रति उनकी तमाम सामाजिक जिम्मेदारियों से मुक्त कर दिया जाता है और इन विषयों को निजी व्यक्तियों या निजी ग्रुपों के हाथों में सौंप दिया जाता है। अतः ग़ैर सरकारी संगठन निजीकरण के संबंध में साम्राज्यवाद के साथ मिलकर काम करते हैं। वे विशेष तौर पर पिछड़े ग्रामीण क्षेत्रों और शहरी गरीब बस्तियों में गरीबी से जकड़ी जनता के बीच ध्यान केन्द्रित करते हैं। आदिवासियों के पिछड़े इलाकों को उनके तथाकथित सेवार्थ कामों और विकास कार्यक्रमों के लिए प्राथमिकता दी जाती है। इसके माध्यम से वे गरीब जनता के आक्रोश को निष्क्रिय करने की कोशिश करते हैं।
(६) वे ग़ैर पार्टी सक्रियता के तौर पर बात करते हुए जनता का अराजनीतिकरण करने की कोशिश करते हैं। वे दावा करते हैं कि वे ग़ैर राजनीतिक हैं और जनता को सभी राजनीतिक पार्टियों से दूर रहने की सलाह देते हैं, और उन्हें स्वयं सहायता और सहयोग के द्वारा अपनी समस्याओं का खुद समाधान करने की सलाह देते हैं। इस प्रकार एक अराजनीतिक दिखने वाली रणनीति की वकालत करते हुए वास्तव में ग़ैर सरकारी संगठन यथास्थिति को बनाए रखने का और जनता पर शासक वर्गों की विचारधारा और राजनीति के प्रभाव को बनाए रखने का काम करते हैं। वे स्वयं को राजनीतिक पार्टियों के विकल्प के रूप में पेश करते हैं और स्वयं को गरीबों के चैम्पियन के रूप में पेश करते हुए क्रांतिकारी पार्टियों को जनता से दूर रखने की कोशिश करते हैं।
क्रमशः अगले अंक में...

Monday, February 11, 2008

आख़िर क्या बला हैं ये गैरसरकारी संगठन ?

संक्षिप्त परिचय
ग़ैर सरकारी संगठन शब्द वास्तव में स्वनामधारी नहीं है। ग़ैर सरकारी संगठनों को विभिन्न साम्राज्यवादी एजेंसियों, साम्राज्यवादी सरकारों और दलाल शासनों द्वारा वित्तीय सहायता दी जाती है और निर्देशित किया जाता है। वे जनता और सरकार के बीच एक कड़ी का काम करते हैं। वे वो माध्यम हैं जिनके द्वारा शासक वर्ग सिविल सोसाइटी की राय को प्रभावित करता है। वे साम्राज्यवादी पूँजी के सेवक हैं। लगभग सभी ग़ैर सरकारी संगठन साम्राज्यवादियों के अदृश्य हाथों द्वारा निर्देशित होते हैं जो अपने रणनीतिक उद्देश्यों के अनुसार उन्हें खड़ा करते हैं और वित्तीय सहायता देते हैं। अतः विकास, सामाजिक न्याय, मानवाधिकार, जमीनी जनवाद आदि के नाम पर ग़ैर सरकारी संगठनों की जेब में भारीभरकम धनराशि डाल दी जाती है। पिछले दशक में विश्व बैंक और अन्य राष्ट्र संघ एजेंसियाँ इस बात पर ज़ोर डाल रही हैं कि ग़ैर सरकारी संगठनों के माध्यम से ही फंड का इस्तेमाल होना चाहिए। विभिन्न सरकारें ऐसा ही कर रही हैं। इस भारीभरकम धनराशि के साथ ग़ैर सरकारी संगठन कुलीन संगठनों के जैसा काम करते हैं, जो जनता से पूरी तरह कटे हुए होते हैं। इसके बावजूद वे स्वयं को जनता के हित में काम करने वाले के रुप में दिखाते हैं। अनुमान है कि आबंटित साम्राज्यवादी फंड का मुश्किल से १०-१५ प्रतिशत ज़रूरतमंद लोगों के पास पहुँचता है जबकि इसका ज़्यादातर भाग ग़ैर सरकारी संगठनों के रख-रखाव पर और तथाकथित स्वयंसेवक कार्यकर्ताओं के खर्चों को चलाने में ही चला जाता है। गर सरकारी संगठन जिस प्रकार का काम करते हैं उसके आधार पर उन्हें तीन श्रेणियों में बांटा जा सकता है। ग़ैर सरकारी संगठनों की पहली श्रेणी में वे संगठन आते हैं जो युद्ध, प्राकृतिक आपदाओं, दुर्घटनाओं आदि के शिकार व्यक्तियों को फौरी राहत उपलब्ध करवाते हैं। दूसरे विश्वयुद्ध के बाद यूरोपीय पुनर्निर्माण के समय तक इस प्रकार के ग़ैर सरकारी संगठन ही सबसे प्रमुख थे।
गैरसरकारी संगठनों की दूसरी श्रेणी अपना ध्यान दीर्घावधि के सामाजिक और आर्थिक विकास पर केन्द्रित करती है। वे १९६० के दशक में यूरोप में प्रमुख रुप से उभरे। तीसरी दुनिया के देशों में इस प्रकार के ग़ैर सरकारी संगठन तकनीकी प्रशिक्षण देने में, स्कूलों, हस्पतालों, शौचालयों आदि के निर्माण में लगे हुए हैं। वे आत्मनिर्भरता, स्थानीय उत्पादक संसाधनों के विकास को, ग्रामीण बाज़ार के विकास को, विकास गतिविधियों में जनता की भागीदारी को प्रोत्साहित करने का दावा करते हैं। वे स्वयं सहायता समूहों, छोटे पैमाने की क़र्ज़ देनेवाली संस्थाओं आदि को बढ़ावा देते हैं।
ग़ैर सरकारी संगठनों की तीसरी श्रेणी सामाजिक कार्रवाइयों पर ध्यान केन्द्रित करती हैं। वे जनता की क्षमताओं को मजबूत करने की, उनमें अन्तर्निहित संभावनाओं को तलाशने की, जनता की सामाजिक चेतना को बढ़ाने की, पूर्व पूंजीवादी व्यवस्थाओं के प्रभाव से उबरने की बात करते हैं। ये ग़ैर सरकारी संगठन विश्व बैंक, अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष, विश्व व्यापार संगठन और अन्य संयुक्त राष्ट्र की एजेंसियों के साथ समझौता करते हैं और सुधारों की वकालत करते हैं, जनता को शांतिपूर्ण ढंग से लामबंद करते हैं और इन साम्राज्यवादी एजेंसियों तथा सरकारों पर सुधार लाने और नीतियों में बदलाव लाने के लिए दबाव बनाते हैं।
ग़ैर सरकारी संगठनों की पहली श्रेणी में मुख्यतः ईसाई धार्मिक संस्थान जैसे कि चर्च आदि आते हैं। यद्यपि ये ग़ैर सरकारी संगठनों की दूसरी और तीसरी श्रेणी में भी मौजूद रहते हैं। मोटे तौर पर ग़ैर सरकारी संगठनों की पहली श्रेणी को सहायतार्थ संगठन का नाम दे सकते हैं, दूसरी श्रेणी को विकास संगठनों और तीसरी को सामूहिक (पार्टीसिपेटरी) और वैश्विक संगठनों का नाम दे सकते हैं। ग़ैर सरकारी संगठनों की पहली श्रेणी प्रत्यक्ष औपनिवेशिक शासन के काल की विशेषता थी, दूसरी श्रेणी शीतयुद्ध काल की विशेषता थी और तीसरी श्रेणी वैश्वीकरण के युग में सक्रिय है। यद्यपि कुछ ग़ैर सरकारी संगठनों के मामलों में इनके काम मिश्रित हैं, इसके बावजूद इनका श्रेणीकरण इनकी प्रमुख गतिविधि के आधार पर किया गया है।
यह ध्यान में रखने की बात है कि अलग-अलग कालों में ग़ैर सरकारी संगठनों के काम साम्राज्यवादियों की बदलती ज़रूरतों के हिसाब से तय किये जाते रहे हैं।
ग़ैर सरकारी संगठन मुख्यतः २० वीं सदी में नज़र आए, यद्यपि मुट्ठीभर ग़ैर सरकारी संगठन १९ वीं सदी में भी मौजूद थे। पहले विश्व युद्ध के दौरान पश्चिम में 344 ग़ैर सरकारी संगठन मौजूद थे। इन ग़ैर सरकारी संगठनों का मुख्य उद्देश्य उपनिवेशों में औपनिवेशिक शक्तियों की संस्कृति और मूल्यों का प्रचार और फैलाव करना था, इसके साथ-साथ वे आवश्यक सूचनाएं इकट्ठी करने में और खुफिया गतिविधियों में भी संलिप्त रहते थे। अतः उन्हें औपनिवेशिक सरकारों का समर्थन हासिल रहता था। चर्च जैसे मिशनरी संस्थान उस वक्त ग़ैर सरकारी संगठनों का मुख्य स्वरूप होते थे। ये सभी औपनिवेशिक शासकों को हर प्रकार का समर्थन उपलब्ध करवाते थे।
शेष अगले अंक में जारी....

Friday, February 8, 2008

A Stigma on the civil society

Aaj yah diwar pardon ki tarah hilne lagi,
Shart lekin thi ki ye buniyaad hilni chahiye !

To evolve is too human; but few evolve to be beasts. This applies to one of another endeavor which aimed at an agalitarian, beautiful and democratic world of children. This endeavor is known as "Butterflies" a Delhi based NGO. that is non governmental organization which monks for "street" children in the age group of 7-16 years. the great /good 'name ' that organization is attracting would even compel 'flies' not to hour ones butterflies for this , the institution itself has marked so hard . this was the institution which 'used' its staff in repressing the dutiful right and demands of the children for which it always professed that it 'monks' for. The 'administration' of this institution since beginning has declined human values and rights.

This institution has always perceived 'children' as number, as statistics which could be sold or flashed around for 'funds'. This institution has never cared that what probably would be the future of these children (if they have any 'present' in butterflies) after age of 16 years. This institution had many talented students, which when asked for their rights, were shown the doors rather the same street.

This institution 'uses' children as 'commodity' to generate funds to finance the whims, fancies, desires and perversions of its administration .this institution boasts that is has more than 1200 students in its so called educational program where as the member in reality less than 400 and for these they have the monthly fund of 40 lakhs !! With this statistics they are spending ten thousand rupees per month per child with this much expenditure these children can get 'quality 'education in elite boarding school of India.
But they have nothing to the show. In last 20 years this organization has received crores of rupees as funds can they answer what contribution they have made, except false statistics on paper this money was laundered amongst people on senior position and child on the street is virtually getting gutted to the street 'gutter', below the street.
You will not be surprised to know that these is so called Children Development Bank which children of the street put their hardly earned hard money. To manage the Development Manager of this "bank" receives salary of Eighty thousand rupees!!

We are becoming egalitarian. they have one more programme of community kitchen where they are providing free food to 400 children, you guess right , the number in reality is quite less ; so the phrase of 'there is nothing like free lunch in this world ' is not applicable to butterflies administration .this system is providing lots of butter to these socialite 'flies'.
We as concerned beings are raising our noice; these is no dear of finance for both the goi and these NGO;s but what lacked the government system was will power and what lacks in this NGO is the power of will selected. Few were need to revive ourselves .we do not want ruckus, but me can not be meek spectators, we want change.

Hume manzoor nahin nazme gulistan badlo !
Dum ghuta jata hai, kanune – shabishta badlo !!


Civil Society Scanner

A Black Spot on the Civil Society

Dear Friends and comrades,

It is a matter of concern and shame for all of us as to what is happening in the civil society of the capital city of India. To be precise and brief, it has become known that a serious offence of exploitation has taken place in a deemed organisation of Delhi named "Butterflies". It must be noted that this organisation was set up by some senior members of PCC- CPI(ML). It has a rich experience and legacy of working with the dispossessed and homeless children equipping them with basic tenets of life.

Around a dozen workers of Butterflies have raised their voices collectively against the tyranny of a loyal and senior worker of this organisation Mr. P.N. Rai with reference to the harassment of a music teacher by him two months back. It must be noted down what the teacher had quoted in her complaint to the director Ms. Rita Panikkar: "When I reached the Fatehpuri Shelter on 23 rd of October '07, my senior Mr. P.N. Rai stopped me in an indecent way to get in the premises. When I asked her the reason behind this, I was intimidated of being kicked out. He spoke categorically that no one can challenge his decision in this organisation."

It is more shocking that when the victim with the support of her more than a dozen colleagues complained the incident to the director, she was asked not to make an issue of that and give a written apology that this act would not be repeated. Although, she refused to give the apology but no action was taken for the next one month as it was awaited. A written apology letter, which was rather more of a clarification, was given by the accused to the victim after one month just before a review meeting of the incident and the whole proceedings of the meeting were carried out in English which was illegible for the victim as she hails from the Hindi belt. This was not taken care of the least, knowing this fact in advance.

Now, the director has finally ordered an inquiry into the matter by a two member external committee headed by Aparna Bhatt of Human Rights Law Network. To remind you, this HRLN is the same organisation where a case of sexual harassment had occurred a few months back by a peon loyal to the director. The result was the termination of the victim rather any action over the accused peon. The recent information is that, the victim has to give her statement in front of this committee on 15 th of this month.

The director has clearly said in one of her letters to the victim that this incident does not relate to the sexual harassment at work place policies. In this regard, we can note down some points as stated by the honorable Supreme Court in its Vishakha legislation:

"Sexual harassment includes such unwelcome sexually determined behavior as physical contacts and advance, sexually coloured remarks, showing pornography and sexual demands, whether by words or actions. Such conduct can be humiliating and may constitute a health and safety problem; it is discriminatory when the woman has reasonable grounds to believe that her objection would disadvantage her in connection with her employment, including recruiting or promotion, or when it creates a hostile working environment ."

Further, Supreme court has stated:

"It is clear violation of the rights under Articles 14, 15 and 21 of Constitution. One of the logical consequences of such an incident is also the violation of the victim's fundamental right under Article 19(1)(g) 'to practice any profession or to carry out any occupation, trade or business' . Such violations, therefore, attract the remedy under Article 32 for the enforcement of these fundamental rights of women. This class action under Article 32 of the Constitution is for this reason. A writ of mandamus in such a situation, if it is to be effective, needs to be accompanied by directions for prevention; as the violation of fundamental rights of this kind is a recurring phenomenon. The fundamental right to carry on any occupation, trade or profession depends on the availability of a "safe" working environment. Right to life means life with dignity. The primary responsibility fro ensuring such safety and dignity through suitable legislation, and the creation of a mechanism for its enforcement, is of the legislature and the executive. When, however, instances of sexual harassment resulting in violation of fundamental rights of women workers under Articles 14, 19 and 21 are brought before us for redress under Article 32, an effective redressal requires that some guidelines should be laid down for the protection of these rights to fill the legislative vacuum."

We can refer to some of the constitutional sections for this matter:
Section 509: Uttering any word or making any gesture intended to insult the modesty of a womanPunishment: Imprisonment for 1 year, or fine, or both. (Cognizable and bailable offense)
A 'hostile working environment' type of argument can be made under this act. Section 7 (Offences by Companies) - holds companies where there has been 'indecent representation of women' (such as the display of pornography) on the premises guilty of offenses under this act.
Punishment: Minimum sentence of two years

About more than a dozen employees of Butterflies have approached PUDR (People's Union for Democratic Rights) in this regard. Their case has been heard but no action has yet been taken.
We appeal all the concerned civil society members to mobilise in support of the victim and demand the immediate termination of the accused. Apart from that, we demand an independent inquiry into the matter by the senior democratic rights and women activists. This is because of the fact that the committee headed by Aparna Bhatt is in close confidence of the director Rita Panikkar who is helping the matter to get freezed and has not taken any action against the accused after two months of this shameful incident.
Please raise your voices against this shameful incident!!!

Concerned citizens of Civil Society Scanner

बच्‍चे उन्‍हें बसंत बुनने में मदद देते हैं !