Wednesday, June 11, 2008

एड्स पर स्वीकारोक्ति

एड्स एवं एचआईवी ये दो शब्द पिछले करीब दो दशकों से पूरी दुनिया को आतंकित करते रहे हैं। तथाकथित एचआईवी विषाणु से उत्पन्न होने वाले एड्स को लेकर इतना प्रचार हुआ और विश्व स्वास्थ्य संगठन ने इतना व्यापक कार्यक्रम चलाया कि तमाम देशों को अपने स्वास्थ्य ढांचे में परिवर्तन करने को बाध्य होना पडा। पिछले दो दशकों में सबसे ज्यादा किसी एक बीमारी से जुड़े कार्यक्रम पर धन झोंका गया है तो वह एड्स है। हालांकि आरंभ से ही एड्स के भय को अनावश्यक करार देने वाले भी रहे हैं, पर उनकी आवाज नक्कारखाने में तूती बनकर रह गई। अब अपने जीवन का एक बडा हिस्सा एड्स के विरूद्ध लड़ने में बिताने वाले डॉ। केविन डी. कॉक ने कहा है कि एचआईवी विषाणु से होने वाला खतरा बदल गया है। उनके अनुसार यह विषाणु अब केवल समलैंगिकों, नशाखोरों और वेश्याओं व उनके ग्राहकों तक सीमित हो गया है। एड्स को सबसे बड़ी महामारी मानने वालों में डॉ. केबिन अकेले व्यक्ति नहीं हैं जिनकी भाषा बदली है, इसके सबसे बडे प्रचारक संयुक्त राष्ट्र ने ही कुछ महीने पहले कहा था कि विा भर में एचआईवी के मामले घटे हैं। उसने 4 करोड़ से घटकर 3 करोड़ 30 लाख होने का आंकडा भी दिया है। इन दोनों बातों में अभी भी एचआईवी एवं एड्स के खतरे को स्वीकार किया गया है। वास्तव में दुनिया भर में ऐसे लोग अब खड़े हो चुके हैं जो एचआईवी की कल्पना, उसके आधार पर बुनी गई बीमारी एवं उसकी संख्या की भयावह तस्वीर को पूरे मनुष्य समुदाय के लिए धोखाधड़ी करार दे रहे हैं। संयुक्त राष्ट्र अभी भी जो आंकडा दे रहा है वह संदिग्ध है, क्योंकि ये आंकड़े उन एनजीआ॓ द्वारा जुटाए गए हैं जो कि एड्स के नाम पर करोडों का कार्यक्रम चलाते हैं। स्वयं भारत में ही यह साफ हो चुका है कि जितने एचआईवी संक्रमण की संख्या यहां दी गई उतनी है ही नहीं। जिस समय एड्स का नाम अस्तित्व में आया तब यह कहा गया था कि एशिया की आबादी ज्यादा होने के कारण वहां यह बड़ी महामारी होगी। इसमें भारत एवं चीन का नाम लिया गया था। हालांकि ये दोनों बातें गलत साबित हुईं, लेकिन इस बीच एशिया के देशों ने एड्स के नाम पर न जाने कितना धन खर्च किया। स्वयं भारत ने स्वास्थ्य मंत्रालय में अलग से राष्ट्रीय एड्स नियंत्रण संगठन नाम से एक विभाग ही कायम कर दिया। भारत में काम की जो बातें पर्दे के पीछे थीं उसे विज्ञापनों के माध्यम से बच्चों तक पहुंचा दिया गया। कंडोम के विज्ञापन को सामाजिक सेवा बना दिया गया। इससे नैतिक हानि हुई और सामाजिक मर्यादाएं ध्वस्त होने से परंपरागत व्यवस्था की चूलें हिल गयीं। बच्चों को विघालयों में सेक्स शिक्षा देने के पीछे सबसे बडा तर्क एड्स जागरूकता को ही बनाया गया। अब डॉ. केविन कह रहे हैं कि लोगों को जागरूक करने पर धन लगाने से ज्यादा जरूरी है कि खतरे की अधिक संभावना वाले क्षेत्रों को निशाना बनाया जाए। यानी जन जागरूकता के नाम पर जो कुछ किया गया वह व्यर्थ था। अगर एचआईवी वाकई है तो यह सेक्स के मामले में व्यभिचार करने वालों, खतरनाक नशे का सेवन करने वालों को हो ग्रसित करता है। भारत के आम आदमी को परंपरागत रूप से इतनी सीख मिली हुई है।
www.rashtriyasahara.com से साभार

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