Monday, March 31, 2008

जगतीकरण क्या है ? : किशन पटनायक

शुक्रवार, फ़रवरी 09, 2007
सब दल लेकर हैं खड़े , अपने - अपने जाल
हे साधो ! कुछ चेतिए , देश बड़ा बेहाल .(१)
हल्दी ,तुलसी , नीम के , बाद जूट पेटेण्ट
ये भारत की सम्पदा , वो ग्लोबल मर्चेण्ट.(२)
भारत बस बाजार है , विस्तृत और समग्र
सिर्फ मुनाफे के लिए,मल्टीनेशनल व्यग्र.(३)
सम्प्रभुता,गौरव कहाँ,कहाँ आत्मसम्मान
अजी छोड़िए, आइए, करना है उत्थान.(४)
- शिव कुमार 'पराग' के दोहे(साभार-'देश बड़ा बेहाल')
भूमंडलीकरण , वैश्वीकरण ,खगोलीकरण , जगतीकरण आदि कई शब्दों का प्रयोग हो रहा है - अंग्रेजी शब्द , ग्लोबलाइजेशन के लिए । आधुनिक विश्व में तीन प्रकार के जगतीकरण हुए हैं । अठारहवीं और उन्नीसवीं सदी में प्रत्यक्ष साम्राज्यवाद के द्वारा जगतीकरण का एक ढाँचा यूरोपीय देशों ने बनाया । जब यूरोप का बौद्धिक उत्थान हुआ और समुद्र पर उनकी श्रेष्ठता प्रमाणित हो गयी तो यूरोप के लोगों ने पूरी दुनिया से धन संपत्ति बटोरने के लिए समुद्री यात्राएं कीं । अनेक भूखंडों के मूलवासियों को हटाकर वहाँ पर वे खुद बस गये । दूसरे देशों पर उन्होंने अपना प्रत्यक्ष शासन यानि साम्राज्य स्थापित किया । आधुनिक यंत्र विद्या पहली बार साम्राज्य की केन्द्रीय व्यवस्था बनाए रखने में मददगार हुई । उसके पहले के युगों में जो साम्राज्य होते थे उनकी केन्द्रीय व्यवस्था नहीं हो सकती थी और शीघ्र ही वे बिखर जाते थे । सिकंदर और सीजर से लेकर सम्राट अशोक का यह किस्सा है कि थोड़े से समय के लिए धन बटोरा जाता था । लेकिन यंत्र विद्या केवल यूरोपीय साम्राज्यवाद के केन्द्रीकृत ढाँचे के तौर पर टिकी रही और शताब्दियों तक शोषण का अनवरत सिलसिला चलता रहा । कहावत बन गयी कि " ब्रिटिश साम्राज्य में सूर्य कभी डूबता नहीं है । " दूसरे विश्व युद्ध के बाद इस प्रकार के जगतीकरण का अध्याय समाप्त हुआ ।
दूसरे विश्व युद्ध के बाद दो नये प्रकार के जगतीकरण शुरु हुए । उसकी एक धारा संयुक्त राष्ट्र संघ के द्वारा चलायी गयी । संयुक्त राष्ट्र संघ की महा सभा में राष्ट्रों की बराबरी मानी गई थी । इसलिए बहुत सारी बातचीत और लेन-देन राष्ट्रों के बीच बराबरी के आधार पर होती थी। सारे विश्व से साधन इकट्ठा कर दुनिया से भूख , बीमारी , अशिक्षा , नस्लवाद , हथियारवाद आदि मिटाने के लिए महत्त्वपूर्ण पहल और कार्रवाइयाँ हुईं । उस समय की अंतर्राष्ट्रीय व्यापारिक सहयोग की संस्थाओं की कार्य प्रणाली भी अपेक्षाकृत ज्यादा जनतांत्रिक थी । अंकटाड और डंकल प्रस्ताव के पहले की गैट संधि इसका उदाहरण है । संयुक्त राष्ट्र संघ के माध्यम से जिस प्रकार का यह जगतीकरण चला , उससे अमरीका बिलकुल खुश नहीं था।अमरीका ने जब देखा कि उसके साम्राज्यवादी उद्देश्यों में राष्ट्र संघ बाधक बन सकता है , उसने राष्ट्र संघ को चंदा देना बंद कर दिया और राष्ट्र संघ से बाहर ही अंतर्राष्ट्रीय कूटनैतिक कार्यकलापों को बढ़ावा देने लगा । सोवियत रूस के पतन के बाद अमरीका को मौका मिल गया कि राष्ट्र संघ को बिलकुल निष्क्रीय बना दिया जाय । ईराक और युगोस्लाविया पर हमला राष्ट्र संघ की उपेक्षा का ताजा उदाहरण है । राष्ट्र संघ के माध्यम से चलने वाला जगतीकरण इस वक्त पूरी तरह अप्रभावी हो गया है ।
दूसरे विश्वयुद्ध के बाद अमरीका की अपनी बुद्धि से अन्य एक प्रकार का जगतीकरण भी शुरु किया गया था । उसको उन दिनों वामपंथियों ने आर्थिक साम्राज्यवाद कहा , क्योंकि इस बीच अमरीका ने साम्राज्यवाद की अपनी शैली विकसित की थी । उसमें किसी औपनिवेशिक देश पर प्रत्यक्ष शासन करने की जरूरत नहीं होती है । कमजोर और गरीब मुल्कों पर दबाव डालकर उनकी आर्थिक नीतियों को अपने अनुकूल बना लेना उसकी मुख्य कार्रवाई होती है । उन आर्थिक नीतियों के परिणामस्वरूप आत्मनिर्भरता खतम हो जाती है और औपनिवेशिक देश धनी देशों पर पहले से अधिक निर्भर हो जाते हैं । जब कोई बड़ा संकट होता है और धनी देशों की मदद की जरूरत होती है तब धनी देशों के द्वारा नयी शर्तें लगायी जाती हैं जिससे औपनिवेशिक अर्थव्यवस्था को थोड़े समय की राहत मिलती है;लेकिन वह अर्थव्यवस्था अधिक आश्रित हो जाती है,और धनी देशों के द्वारा शोषण के नये रास्ते बन जाते हैं।औपनिवेशिक अर्थव्यवस्था वाला देश आर्थिक रूप से इतना कमजोर और आश्रित होता है कि उसकी राजनीति को भी आसानी से नियंत्रित किया जा सकता है ।उपर्युक्त उद्देश्य से १९४५ में ही विश्वबैंक और अंतर्राष्ट्रीय मुद्राकोष नामक अंतर्राष्ट्रीय आर्थिक संस्थाओं की स्थापना हुई । १९९५ में विश्व व्यापार संगठन बना । ये तीन संस्थायें हैं जो नये जगतीकरण के तीन महत्वपूर्ण स्तंभ हैं । विश्वबैंक विकास के लिए ऋण देकर सहायता करता है और कैसा विकास होना चाहिए उसकी सलाह देता है । कई बार कर्ज लेने वाला देश विश्वबैंक की विकासनीति को अपनी विकास नीति के तौर पर मान लेने के लिए बाध्य होता है । इसलिए सारे गरीब देशों में एक ही प्रकार की विकास नीति प्रचलित हो रही है । यह विश्वबैंक के द्वारा बतायी गयी विकास नीति है ।
अक्सर हम विदेशी मदद की बात सुनते हैं । विश्वबैंक ,मुद्राकोष या धनी देशों की सरकारों से कम ब्याज पर जो ऋण मिलता है , उसी को विदेशी मदद कहा जाता है । विदेशी मदद के साथ-साथ विश्वबैंक की सलाह भी मिलती है कि हम अपने विकास के लिए क्या करें ।उनकी सलाह पर चलने का एक नतीजा होता है कि विदेशी मुद्रा की आवश्यकता बढ़ जाती है और उसकी कमी दिखाई देती है । जब विदेशी मुद्रा का संकट आ जाता है तब हमारा उद्धार करनेवाला अंतर्राष्ट्रीय मुद्राकोष होता है । उसके पास जाना पड़ता है ।वह मदद देते समय शर्त लगाता है। उसकी शर्तें मुख्यत: दो प्रकार की होती हैं ;
(१) आर्थिक विकास के कार्यों मे सरकार की प्रत्यक्ष भागीदारी नहीं होनी चाहिए। किसी उद्योग , व्यापार या कृषि को प्रोत्साहित करने के लिए सरकारी अनुदान ,सबसिडी नहीं दी जाएगी ।
(२) देश की आर्थिक गतिविधियों में हिस्सा लेने के लिए विदेशी पूंजी और विदेशी कंपनियों को अधिक से अधिक छूट देनी होगी ।उन पर और उनकी वस्तुओं पर लगने वाली टिकस कम कर दी जाएगी । यानी विकासशील देश की अर्थव्यवस्था में धनी देशों के पूंजीपतियों का प्रवेश अबाध रूप से होगा ।इसके अलावा मुद्राकोष मदद माँगने वाले देश की मुद्रा का अवमूल्यन कराता है। ताकि हमारा सामान उनके देश में सस्ता हो जाए और उनकी वस्तुओं का दाम हमारे लिए महँगा हो जाए ।
सारे विकासशील देशों की अर्थव्यवस्था विकसित देशों की अर्थव्यवस्था के साथ इस प्रकार जुड़ जाती है । इस प्रकार का जुड़ाव प्रत्यक्ष साम्राज्यवाद के युग में भी था । फर्क यह है कि उस जमाने में हमारी अर्थनीति और विकासनीति का राजनैतिक निर्णय साम्राज्यवादी सरकार करती थी । आज हम खुद अपनी अर्थनीति को धनी देशों की अर्थनीति के साथ जोड़ने का निर्णय कर रहे हैं ।वे लोग सलाह देते हैं , हमारी सरकार उसी सलाह को निर्णय का रूप देती है। इसलिए इसको जगतीकरण कहा जा रहा है ।
१९४५ से १९९५ तक विकासशील देशों की अर्थनीति को धनी देशों की अर्थनीति का पिछलग्गु बनाने के लिए जितने नियम और तरीके बनाये गए थे , उन सारे नियमों को विश्वव्यापार संगठन कानून का रूप देकर अपना रहा है । विश्वबैंक सलाह देता है ;मुद्राकोष शर्त लगाता है और विश्वव्यापार संगठन कानून चलाता है । यहाँ दन्ड का प्रावधान भी है । यह व्यापार के मामले में विश्व सरकार है । लेकिन इस सरकार के निर्णयों को विकासशील देश अपने हित की दृष्टि से प्रभावित नहीं कर पाते हैं । व्यापार की विश्व सरकार में वे केवल दोयम दर्जे के सदस्य हैं ।
विश्वबैंक , मुद्राकोष और विश्वव्यापार संगठन तीनों अपने - अपने ढंग से काम कर रहे हैं। लेकिन ये एक दूसरे के पूरक हैं ।तीनों में इतना मेल है कि तीनों मिलकर विकासशील देशों एक ही रास्ता दिखाते हैं - एक ही दिशा में ढ़केलते रहते हैं । इसलिए सारे विकासशील देशों की समस्याएं एक ही प्रकार की होती जा रही हैं । इससे जो प्रतिक्रिया होगी , जो असन्तोष होगा,उसको हम एक दिशा में ले जा सकेंगे , तब संभवत: एक नयी यानी चौथे प्रकार का जगतीकरण शुरु होगा । क्योंकि तीसरी दुनिया के सारे देशों की समस्याएं सुलझाने के बजाए जटिल होती जा रही हैं , मौजूदा जगतीकरण की व्यवस्था के खिलाफ़ सारे देशों में गुस्सा और विद्रोह होना चाहिए । धनी देशों पर अपनी निर्भरता खतम कर गरीब देश अगर एकल ढंगसे या परस्पर के सहयोग से आत्मनिर्भर होने का लक्ष्य अपना लेंगे तो प्रचलित जगतीकरण के विरुद्ध एक विश्वव्यापी विद्रोह का माहौल बन जाएगा । विकासशील देशों के परस्पर सहयोग से जो अंतर्राष्ट्रीय संबंध बनेगा , उसके आधार पर नये जगतीकरण का आरंभ होगा ।
समतावादी डॉट ब्लॉग स्पॉट से साभार

एचआईवी: आओ मिलकर एड्स भगाएं

लेख़क - अभिषेक श्रीवास्तव
Sunday, 30 December 2007
एचआईवीएड्स के लिए आ रहे भारी विदेशी अनुदान के लालच में हम इससे ज्यादा खतरनाक व जानलेवा बीमारियों से बचने के उपायों और योजनाओं से विमुख होते जा रहे हैं।क्या आपने पुरुषोत्तमन मुलाली का नाम सुना है? आप जैक के बारे में क्या जानते हैं? जाहिर तौर पर एचआईवीएड्स पर बात करते वक्त ऐसे सवाल घोर अप्रासंगिक जान पड़ेंगे। आप सोचेंगे कि एचआईवीएड्स के क्षेत्र में तो बिल गेट्स से लेकर क्लिंटन और देसी नामों में नाको से लेकर अंजलि गोपालन की किस्में पाई जाती हैं। अगर यूएसएड्स और यूएनएड्स की बात न की जाए तो एड्स पर कोई भी विमर्श अधूरा ही रहेगा। लेकिन शुरुआत एक ऐसे नाम से जिसका कोई अता-पता नहीं है। जी हां, वास्तव में मीडिया की एड्स से जुड़ी तमाम खबरों में यह नाम गुमनाम है। इसी व्यक्ति ने हमें बताया कि इस महीने कर्नाटक में एचआईवीएड्स के भ्रामक आंकड़ों के खिलाफ प्रचार करने और सरकार का विरोध करने वाली एक एचआईवी संक्रमित महिला आंदोलनकारी की हत्या हो गई है। इस महिला ने अपने पीछे 600 एचआईवी संक्रमित महिलाओं को संगठित किया था जो सरकार द्वारा जुलाई में जारी एचआईवीएड्स के आकड़ों की सचाई का पर्दाफाश कर रही थीं।
सवाल उठता है कि ऐसी खबरें हम तक क्यों नहीं आ पाती हैं? इसका कारण पुरुषोत्तमन खुद बताते हैं, 'जाहिर सी बात है कि जो लोग विदेशी अनुदान लेकर एड्स के आंकड़ों को तोड़ते-मरोड़ते हैं, उनके हित बड़ी पूंजी से चलने वाले मीडिया के हितों से जुदा नहीं हैं। दूसरे, न तो मीडिया को और न ही एड्स जागरूकता का दम भरने वाले तमाम एनजीओ और अन्य कार्यकर्ताओं को कोई भी वैज्ञानिक जानकारी है कि एड्स के आंकड़े कैसे निकाले जाते हैं? और यह भी कि आखिर एड्स होता क्या है। जो बताया जाता है उसे मान कर आम सहमति बना लेने की आदत ने इस देश को सौ फीसद बेच डाला है।'आखिर इस शख्स की बातों में कितनी सचाई है? पहले बता दें कि पुरुषोत्तमन मुलाली देश के उन शुरुआती लोगों में से एक हैं जिन्होंने 1986-87 के दौरान भारत में एड्स के आरंभिक मामले सामने आते ही इस पर चिंता जाहिर करते हुए काम करना शुरू कर दिया था। उन्होंने यह शुरुआत ज्वाइंट एक्शन काउंसिल कुन्नूर (जैक) नाम के संगठन से की और आज भी इसी बैनर तले काम जारी रखे हुए हैं। आज एचआईवीए्ड्स के क्षेत्र में जितने चेहरे दिखाई दे रहे हैं सब पुरुषोत्तमन की अगली पीढ़ी के लोग हैं। वह बताते हैं, 'मेरी भी दुकान अच्छी चल रही थी। एड्स के नाम पर सालाना पांच करोड़ का कारोबार था। लेकिन जब मैं इस तंत्र के भीतर घुसा और मैंने देखा कि किस तरह विदेशी अनुदानों और बहुराष्ट्रीय कंपनियों के फायदे के लिए आकड़ों को मनमर्जी तोड़ा-मरोड़ा जाता है और एक बीमारी के बारे में इतने अवैज्ञानिक नजरिए से प्रचार किया जा रहा है तो मैंने दुकान बंद कर दी। कहते हुए शर्म आती है कि मैं पहला और इकलौता व्यक्ति हूं जो एचआईवीएड्स की राजनीति का पर्दाफाश करने के लिए पिछले दस वर्षों से लगा हूं। मेरी जेब में एक पैसा नहीं है लेकिन मैं इन लोगों को छोड़ूंगा नहीं।'
गौरतलब है कि 6 जुलाई 2007 को राष्ट्रीय एड्स नियंत्रण कार्यम के तीसरे चरण का उद्धाटन करते वक्त स्वास्थ्य मंत्री अंबुमणि रामदास ने बड़े उत्साह के साथ घोषणा की थी कि भारत में एक आकलन के मुताबिक एचआईवी ग्र्रस्त लोगों की संख्या में नाटकीय तरीके से गिरावट आई है। उन्होंने कहा था कि पहले के आंकड़े 57 लाख से गिर कर यह संख्या अब 20 लाख तक पहुंच गई है और प्रसार की दर 0.9 फीसद से गिर कर 0.36 फीसद हो गई है। पुरुषोत्तमन हंसते हुए सवाल करते हैं, 'या तो 37 लाख लोगों की मौत हो गई या वे ठीक हो गए। इसके अलावा और कोई रास्ता नहीं हो सकता कि सरकार ऐसे दावे करे।' सरकार का जवाब यह आता है कि इस बार आंकड़ों के आकलन के लिए अपनाई गई प्रणाली को बदल दिया गया है जिससे इतना फर्क दिखाई दे रहा है। रामदास ने खुद कहा था, 'हमने इस आपदा की गंभीरता को कम कर के आंकने की गलती हमेशा से ही की है।' उन्होंने चेतावनी दे डाली कि दोनों वर्षों के आंकड़ों की तुलना संभव नहीं है। उनका कहना था कि यदि हम दोनों ही वर्षों के लिए एक ही प्रविधि अपनाते हैं तो पाते हैं कि प्रसार में न्यूनतम फर्क पड़ा है।
सवाल उठता है कि दो वर्षों में आंकड़े निकालने की प्रविधि को क्यों बदल दिया गया? खैर, निष्कर्ष यही निकलता है कि एचआईवी के मामलों में वास्तव में कोई कमी नहीं आई है। इस तथ्य से हालांकि एचआईवीएड्स पर काम करने वाले कई कार्यकर्ता खुद सहमत हैं लेकिन अनुदानों का इतना दबाव है, खासकर वे अनुदान जो नाको के माध्यम से आते हैं, कि इस क्षेत्र में काम कर रहे लोग और संगठन इसके कारणों की तह में नहीं जाते हैं। सरकार ने अब तक नई प्रविधि का कोई भी विवरण मुहैया नहीं कराया है कि आखिर कैसे वह इस निष्कर्ष पर पहुंची कि संक्रमित व्यक्तियों की संख्या कम हो गई है। दूसरा पक्ष यह भी है कि तमाम एनजीओ इस बात को लेकर सशंकित हैं कि सरकार के इन आंकड़ों से कहीं अनुदानों पर कोई फर्क न पड़ जाए। जाहिर सी बात है कि यदि दानदाता एजेंसियां सरकारी आंकड़ों से सहमत हो जाती हैं तो अनुदानों में कमी आना तय है।
गैरसरकारी संगठनों द्वारा ये चिंताएं भी जताई जा रही हैं कि संशोधित आंकड़ों से बड़ी दवा कंपनियों द्वारा अनिवार्य एड्स दवाओं का पेटेंट कराने की संभावना बढ़ जाती है। पुरुषोत्तमन कहते हैं, 'यदि एक फीसद से ज्यादा आबादी एचआईवीएड्स से प्रभावित होती तभी इसे राष्ट्रीय आपदा घोषित किया जा सकता है। सरकार खुद कहती है कि 0.9 फीसद आबादी अभी इसकी चपेट में है। फिर इस पर एक राष्ट्रीय विधेयक बनाने की जरूरत क्यों आन पड़ी?'
ध्यान देने वाली बात है कि पिछले वर्ष सरकार संसद में एचआईवीएड्स विधेयक 2006 लाने वाली थी जिसके खिलाफ काफी बवाल मचा था। इस मामले में 'जैक' द्वारा राष्ट्रपति और राज्य सभा के महासचिव को एक पत्र भी लिखा गया था। जबकि इस संबंध में दिल्ली के हाई कोर्ट और सुप्रीम कोर्ट में आईपीसी की धारा 377 के तहत दो मामले 2001 से ही लंबित हैं। इसके अलावा संसद के समक्ष एक याचिका डाली गई थी जिसमें स्पष्ट तौर पर कहा गया था कि एचआईवीएड्स पर बनाई गई संसदीय समिति दरअसल यूएनएड्स से संबध्द इकाई है। जाहिर तौर पर यूएनएड्स पर बहुराष्ट्रीय कंपनियों का कब्जा है और वहां चीजें स्वतंत्र रूप से संचालित नहीं होती हैं।
इसी बारे में पुरुषोत्तमन कहते हैं कि बल्ब इस देश में जलता है लेकिन उसका स्विच कहीं और होता है। यह बात दूसरी तमाम विकास परियोजनाओं के बारे में भी उतनी ही सच है जितना एचआईवीएड्स से जुड़ी परियोजनाओं के बारे में। सोचने वाली बात है कि जिस देश में टीबी, हैजा, मलेरिया, डेंगू, खसरा, कैंसर आदि से लोग इतनी आसानी से रोजाना मर-खप जाते हैं वहां एचआईवीएड्स को इतना तूल दिए जाने का क्या अर्थ है? टीबी, मलेरिया और एचआईवीएड्स पर भारत को मिलने वाले वैश्विक अनुदानों की तुलना की जाए तो इस बात को अच्छी तरह से समझा जा सकता है कि इनके बीच कितना भारी अंतर है। यह संयोग नहीं है कि 'नाको' की वेबसाइट पर प्रकाशित रिक्त पदों में एक कम्प्यूटर ऑपरेटर का वेतन मासिक 75000 दिखाया गया है। और यह स्थिति उस देश में है जहां 70 फीसदी आबादी की औसत कमाई एक डॉलर (41रुपए) प्रतिदिन से नीचे है।
इस वर्ष के आल्टरनेटिव इकोनॉमिक सर्वे पर नजर डालें तो यह बात साफ हो जाती है कि देश में जन स्वास्थ्य के क्षेत्र में जितना पैसा खर्च किया जाना चाहिए उतना या उससे ज्यादा सिर्फ एक बीमारी के लिए खर्च किया जा रहा है। ग्रामीण संस्थाओं में चिकित्सकों और चिकित्सकीय कर्मचारियों के वितरण का यह हाल है कि प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्रों पर चिकित्सक 90 फीसद से ज्यादा समय मौजूद नहीं रहते हैं। एक प्राइमरी हेल्थ सेंटर पर ग्रामीण क्षेत्रों में सिर्फ एक चिकित्सक की व्यवस्था है। सरकारी आंकड़े खुद बताते हैं कि 50 फीसदी पुरुष स्टाफ, 21 फीसदी नसर्ें (एएनएम), 34 फीसदी प्रयोगशाला कर्मी और 34 फीसदी फार्मासिस्ट आम तौर पर अपने कार्य स्थलों से गायब रहते हैं। एक बात और ध्यान देने वाली है कि मानव संसाधन यदि पर्याप्त हो भी तो ग्रामीण इलाकों में चिकित्सीय उपकरणों की संख्या का टोटा है।
यदि हम स्वास्थ्य सूचकों पर नजर डालें तो पाएंगे कि शिशु मृत्यु दर, मलेरिया, हैजा जैसे सांमक रोगों का प्रसार खराब ढांचागत व्यवस्था के बावजूद घटा है। इससे सीधा सबक मिलता है कि जो पैसा निजी क्षेत्र में या गैरसरकारी संस्थानों के माध्यम से निवेश किया जा रहा है उसे अगर सार्वजनिक क्षेत्र और जन स्वास्थ्य में लगाया जाए तो स्थितियों के सुधरने की संभावनाएं बढ़ना लाजिमी है। हालांकि सवाल उठाए जाते रहे हैं कि पिछले दो दशकों के दौरान स्वास्थ्य सूचकों में आया सुधार निजी क्षेत्र की बढ़त की वजह से है या सार्वजनिक क्षेत्र की बेहतरी की वजह से। हम आज ऐसी खबरों से रूबरू होते हैं कि मेरठ जैसे शहर में एक एचआईवी रोगी का इलाज करने से चिकित्सक मना कर देते हैं। एम्स जैसे संस्थान में एक मरीज समुचित व्यवस्था न होने के चलते उसके गलियारों में ही दम तोड़ देता है और उसकी लाश को उसके गांव पहुंचाने वाला कोई नहीं होता। उस पर से बर्बर व असंवेदनशील मीडिया इस लाश का ऐसे प्रचार करता है जैसे संवाददाता का इस मौत से कोई संबंध नहीं है।
अन्य बीमारियों को यदि कुछ समय के लिए हम अलग रख दें तो एचआईवीएड्स के साथ एक पक्ष जो बहुत मजबूती से जुड़ा नजर आता है वह सामाजिक विभेद और कलंक का है। आम तौर पर हमारे यहां एचआईवी संक्रमित व्यक्ति को उपेक्षा की दृष्टि से देखा जाता है। इस दिशा में जागरूकता फैलाने के लिए हालांकि कई गैरसरकारी संगठन और सरकारी एजेंसियां कार्यरत हैं लेकिन इसमें भी जो अनुदान प्राप्त होता है वह बुनियादी तौर पर सामंती मानसिकता के खिलाफ इस पूरी लड़ाई को प्रोजेक्ट में बदल कर रख देता है। दिल्ली से ही चलने वाली एक संस्था 'सम्यक' के संजय देव और वरिष्ठ पत्रकार राहुल देव इस संस्था के माध्यम से पिछले कई वर्षों से मीडियाकर्मियों के बीच एचआईवीएड्स को लेकर जागरूकता फैलाने के काम में लगे हैं। इस बीमारी से जुड़ी शब्दावली के अखबारी खबरों में प्रयोग को लेकर कई शहरों में संवाददाताओं और पत्रकारों के साथ कार्यशालाएं की जा चुकी हैं और उन्हें बताया जाता है कि किस तरह से ऐसी भाषा का प्रयोग करें जो असम्मानजनक न हो। हालांकि इस भाषा के बारे में एनजीओ की पुस्तकों के बड़े प्रकाशक विनय आदित्य बहुत स्पष्ट राय रखते हैं, 'यह भाषा सीधे विश्व बैंक और संयुक्त राष्ट्र से आ रही है। ऐसा लगता है जैसे कि अंग्रेजी का हिंदी में तर्जुमा कर दिया गया हो। लोगों को ध्यान ही नहीं रहता कि हिंदी में कितने खूबसूरत शब्द हैं जिन्हें वापस लाया जाना चाहिए।' सलन, आजकल एचआईवी से ग्रस्त मरीजों के लिए एक शब्द चल पड़ा है 'एचआईवी के साथ जी रहे व्यक्ति।' अब यह नाम भले ही संयुक्त राष्ट्र और मानवाधिकार कर्मियों के बीच सम्मानित माना जाता हो लेकिन लिखने और पढ़ने में काफी अटपटा लगता है। भले ही इस तरह की शब्दावली के पैरोकार अपने तर्क दें लेकिन मोटे तौर पर इस संदर्भ में एक बार फिर पुरुषोत्तमन मुलाली की बात मार्के की लगती है, 'एचआईवीएड्स कोई बीमारी नहीं है। यह एक पूरी सभ्यता है। इसीलिए अन्य बीमारियों की तुलना में एचआईवीएड्स को आने वाला अनुदान इतना महत्त्वपूर्ण हो जाता है। यह हमारी भाषा, संस्कृति और जीने की शैली पर सीधे हमला करता है।' तमाम किस्म के दावों, आंकडों और भय के बीच पुरुषोत्तमन के बेलाग बयान हमें ज्यादा आकर्षित करते हैं। जाहिर सी बात है कि हम भी एचआईवीएड्स के भीतरी दांव-पेंचों से तकनीकी तौर पर इतने वाकिफ नहीं लेकिन कहा गया है कि धुआं है तो आग भी कहीं होगी ही। पुरुषोत्तमन हमारे सामने बगैर कोई खुलासा किए सिर्फ इतना ही कहते हैं, 'यह आग आपको मार्च-अप्रैल में दिखाई दे जाएगी। सारे खेल का पर्दाफाश होने में कुछ ही वक्त बाकी है। मैं इसी में लगा हूं।' हम हतप्रभ उनका मुंह देखते रह जाते हैं।


समकाल डॉट कॉम से साभार

Wednesday, March 19, 2008

कैलाश सत्‍यार्थी जी यह पब्लिक है सब जानती है

आशीष (बोल हल्ला ब्लॉग स्पॉट पर)

Thursday, 24 January, 2008

(इस रिपोर्ट को पढ़कर मुझे और मेरे जैसे कई लोगों को थोड़ा दुख हो सकता है। समाज सेवा और इससे जुड़े लोगों की मैं बहुत इज्‍जत करता हूं लेकिन आज जब जनपथ पर यह रिपोर्ट पढ़ा तो कैलाश सत्‍यार्थी से पहली मुलाकात याद आ गई । उनसे पहली बार मैं जयपुर में एक कार्यक्रम में मिला था। दी संडे इंडियन के एक पत्रकार ने एक स्‍टोरी की है जो मशहूर बचपन बचाओ आंदोलन के बारे में है...पता चला है कि इस स्‍टोरी पर संस्‍था के प्रमुख कैलाश सत्‍यार्थी द्वारा उन्‍हें जान से लेकर नौकरी से निकलवाने तक की धमकियां दी जा रही हैं। अब इस रिपोर्ट को पढकर आपकी अपनी राय जरुर देंताकि कैलाश सत्‍यार्थी और इन जैसे समाज सेवा के ठेकेदारों को पता चले कि जनता आपके बारें क्‍या सोचती है। यदि आपको और कुछ जानकारी मिलती है तो इसे बोलहल्‍ला के साथ बांटिएगा जरुर।)

हरेक महान शुरुआत आखिरकार लड़खड़ाने को अभिशप्त होती है। प्रत्येक महान यात्रा कहीं-न-कहीं तो समाप्त होती ही है। - संत औगस्तीन।

भारत के संदर्भ में भी यह बात नई नहीं है, बात आप चाहे जिस भी क्षेत्र की कर लें। यही बात समाज की सेवा के महान उद्देश्य और परोपकार के महान धर्म को ध्यान में रखकर शुरु हुई गैर-सरकारी, सामाजिक या फिर स्वयंसेवी संगठनों के साथ भी लागू होती है। जो विचारक या निर्देशक इनकी शुरुआत करता है। ताजा मामले की बात हम बचपन बचाओ आंदोलन, ग्लोबल मार्च या असोशिएशन फॉर वोलंटरी एक्शन(आवा) से कर सकते हैं. ये तीन नाम इस वजह से क्योंकि इन संस्थाओं का ढांचा ही ऐसा है. सारे एक-दूजे से जुड़े और अलग भी. ऊपर से इस मामले के पेंचोखम इतने कि आम आदमी तो उनको समझने में ही तमाम हो जाए या उसे यह शेर याद आ जाए- जो उलझी थी कभी आदम के हाथों, वो गुत्थी आज तक सुलझा रहा हूं. बहरहाल, मामला अभी टटका और ताजा है. इस पूरे मसले में तमाम नामचीन शख्सियतें उलझीं हैं और साथ ही मीडिया भी अपना अमला पसारे है. पूरे फसाद की जड़ में है दिल्ली-हरियाणा सीमा पर स्थित इब्राहिमपुर में मौजूद बालिका मुक्ति आश्रम. कभी हमसफर रहे दो लोग ही अब एक-दूसरे के खिलाफ मोर्चा खोले बैठे हैं. तलवारें तन चुकी हैं, बखिया उधेड़ी जा रही है, आरोप-प्रत्यारोप लगाए जा रहे हैं और दोनों ही खेमे एक-दूजे के चरित्र हनन पर आमादा हैं.

बहरहाल, मामले को समझने के लिए हमें थोड़ा पीछे जाकर इस पूरे घटनाक्रम का इतिहास जानना होगा। बालश्रम को खत्म करने और बंधुआ मजदूरों को बचाने के पवित्र उद्देश्य को ध्यान में रखकर दो महानुभाव इकट्ठा हुए. ये दोनों ही आज काफी नामचीन हैं-स्वामी अग्निवेश और कैलाश सत्यार्थी. 80 के दशक में शुरु हुआ यह सफर काफी मशहूर हुआ और सफल भी. इसका नाम फिलहाल बचपन बचाओ आंदोलन है, पर इसकी शुरुआत बंधुआ मुक्ति मोर्चा ने की थी और उस वक्त संस्था के तौर पर साउथ एशियन कोलिशन अगेंस्ट चाइल्ड सर्विटयूड (साक्स) का निर्माण किया गया. इसमें पेंच केवल एक आया, जब 93-94 में स्वामी अग्निवेश इस आंदोलन से अलग हो गए. बहरहाल स्वामी अग्निवेश से इस मसले पर जब पड़ताल की गई, तो उन्होंने कुछ ऐसा बयान दिया, ''देखिए, असल में बंधुआ मुक्ति मोर्चा(बीएमएम) ने ही इस पूरे आंदोलन की शुरुआत की थी. आप जो आश्रम देखकर आ रहे हैं, वह भी असल में बीएमएम का ही बनाया हुआ था. बाद में मुझे महसूस हुआ कि कैलाश जी उसका और भी कोई इस्तेमाल करना चाह रहे हैं. उसी समय हम दोनों में कुछ बातचीत हुई और मैंने अलग होने का फैसला कर लिया. ''खैर, अब आते हैं तात्कालिक मसले पर. फिलहाल विवाद की जड़ में है बालिका मुक्ति आश्रम और कभी कैलाश सत्यार्थी की करीबी सहयोगी और इसकी संचालिका रहीं सुमन ही खम ठोंककर मैदान में आ खड़ी हुई हैं. लाखों रुपए मूल्य की यह संपत्ति किसी व्यक्ति ने संस्था को दी थी और शायद यही वजह है-तलवारें खिंचने की. मामला तब सुर्खियों में आया, जब पिछले महीने मीडिया में यहां की कुछ लड़कियों के यौन-शोषण की खबरें आईं. वे लड़कियां उत्तर प्रदेश के सोनभद्र से लाई गईं थीं और आश्रम में रह रही थीं. बच्चियों ने मसाज करवाने की बात भी स्वीकारी. साथ ही सुमन और संगीता मिंज(फिलहाल आश्रम की केयरटेकर) पर तो दलाली के भी आरोप लगे. बचपन बचाओ आंदोलन (बीबीए) के राष्ट्रीय महासचिव राकेश सेंगर इसे कुछ ऐसे बयान करते हैं, ''देखिए, हम व्यक्तिगत आरोप नहीं लगाना चाहते, लेकिन आप रांची जाकर पता करें तो इनके खिलाफ कई मामले दर्ज पाएंगे. उन पर तो एफसीआरए के तहत भी आंतरिक कार्रवाई चल रही है. उन्होंने 2004 में अपनी एक अलग संस्था द चाइल्ड ट्रस्ट बनाई और संस्था की संपत्ति को निजी तौर पर इस्तेमाल किया. अपने लिए गाड़ी खरीदी और कई सारी वित्तीय अनियमितताएं की. हमारे पास सारे जरूरी कागजात हैं और आप उनको देक सकते हैं. ''हालांकि सुमन का इस मसले पर कुछ और ही कहना है. वह कहती हैं, ''ये सारे आरोप निराधार और बेबुनियाद हैं. मैं किसी भी जांच के लिए तैयार हूं. दरअसल यह सारा कुछ आश्रम पर कब्जा करने को लेकर है. उन्होंने तो मेरे कमरे को भी हथिया लिया और मेरे सामान को उठा लिया. आप खुद जाकर देख सकते हैं कि आश्रम में सुरक्षा के लिए हमें पुलिस से गुहार करनी पड़ी है. कैलाश जी ने संस्था में अपनी बीवी और बेटे को स्थापित कर यह सारा झमेला खड़ा किया है. अगर मैं इतनी ही बुरी थी तो 22 सालों तक ये चुप क्यों रहे और मुझे बर्दाश्त क्यों करते रहे?''खैर, अब जरा पीछे की ओर लौट कर इस पूरे विवाद की जड़ देखें. साक्स से बीबीए की यात्रा में कई पड़ाव आए. संस्था जैसे-जैसे बढ़ती गई, विवाद भी गहराते गए. आखिरकार 2004 में यह तय किया गया कि आवा एक मातृसंस्था रह जाएगी और इसके बैनर तले सेव द चाइल्डहुड फाउंडेशन, बाल आश्रम ट्रस्ट, ग्लोबल मार्च अगेंस्ट चाइल्ड लेबर और द चाइल्ड ट्रस्ट बनाए जाएंगे. यही से पूरा बवाल शुरु हुआ. सुमन का कहना है, ''आप खुद देख सकते हैं कि कैलाश जी ने किस तरह अपने प्रभाव का दुरुपयोग किया. अपनी पत्नी को तो उन्होंने सेव द चाइल्डहुड...का अध्यक्ष बना दिया, तो बेटे को बाल आश्रम...का. ग्लोबल मार्च...के तो वह खुद ही मुख्तार हैं. इसके अलावा उनकी पत्नी के ट्रस्ट में ही उन्होंने सारे संसाधनों का रुख कर दिया. यही सब विवाद की जड़ में है. ''हालांकि इस संवाददाता ने जब बीबीए के वर्तमान अध्यक्ष रमेश गुप्ता से बात की, तो उनका कुछ और ही कहना था. वह बताते हैं, ''हमने तो सुमन को हमेशा ही सम्मान दिया है. लेकिन जब उसकी हरकतें नाकाबिले-बर्दाश्त हो गई तो हमें मामले को उजागर करना ही पड़ा. हमने तो उसे एक खुला पत्र भी लिखा है, उससे आप सारी बातें जान सकते हैं. उसने एक भी निर्णय का सम्मान नहीं किया. कभी भी वित्तीय पारदर्शिता नहीं दिखाई और आवा के संसाधनों का दुरुपयोग कर अपनी खुद की संस्था को पालती-पोसती रही. खुद को तो उसने जैहादी के तौर पर प्रोजेक्ट कर दिया, लेकिन बाकी साथियों का नाम भी नहीं लिया. यह सचमुच अफसोसनाक है. ''राकेश सेंगर तो उनसे भी एक कदम आगे बढ़कर आरोप लगाते हैं कि जबरिया निकालने वगैरह की बात बिल्कुल बेबुनियाद है. बाल आश्रम की लीज तो वैसे भी 31 दिसंबर को खत्म हो रही थी. फिर इस्तीफा भी उनसे जबरन नहीं लिया गया. जब उन्होंने संस्था छोड़ दी तो फिर वैसे ही आश्रम में उनके बने रहने की कोई तुक नहीं थी. जहां तक उनके कमरे से कुछ लेने की बात है, तो यह तो बिल्कुल अनर्गल प्रलाप है. आप खुद ही बताएं किसी स्वयंसेवी संस्था में काम करनेवाली महिला के पास 2 किलो सोना कहां से आ गया? हालांकि, कैलाश सत्यार्थी इस पूरे विवाद से पल्ला झाड़ लेते हैं. वह कहते हैं, ''भई, मेरा तो न बाल आश्रम और न ही बालिका आश्रम से कोई लेना-देना है. वहां से तो मैं डेढ़ साल पहले ही अलग हो गया था. आप मुझसे ग्लोबल मार्च के बारे में पूछें तो कुछ बता सकता हूं.''हालांकि अपने परिवार के बारे में पूछने पर वह बिफर पड़े. इस संवाददाता को धमकी भरे लहजे में कैलाश जी ने कहा, ''अगर मेरा बेटा या पत्नी किसी संस्था का नेतृत्व करने लायक हैं तो इसमें गलत क्या है? वैसे भी वे दूसरे संस्थानों से जुड़े हैं. आप बेबुनियाद बातें न करें, वरना आपका करियर भी खतरे में पड़ सकता है. '' हालांकि इसके ठीक उलट राकेश सेंगर का कहना है कि अगर कैलाश जी के बेटे की बात साबित हो जाए तो वह सामाजिक जीवन ही छोड़ देंगे. बहरहाल, आरोपों की इस झड़ी में नुकसान सबसे ज्यादा तो उन बच्चों का हो रहा है, जिनका जीवन सुधारने के मकसद से इस आंदोलन की शुरुआत हुई है. साथ ही कुछ सवाल ऐसे हैं, जिनके जवाब खोजने होंगे. मसलन, वे लड़कियां अब कहां हैं, जिन्होंने मीडिया के सामने आकर मसाज की बात कबूल की थी? फिर मीडिया पर भी कुछ उंगलियां उठेंगी. जैसे, क्या हरेक रिपोर्टर ने इब्राहिमपुर जाकर पड़ताल की थी?जब यह संवाददाता बालिका आश्रम में पहुंचा, तो नजारा कुछ और ही था. वहां बाकायदा सारे काम सामान्य तौर पर ही हो रहे थे. फिलहाल वहां 25 बच्चियां हैं. जिसमें से चार वयस्क हैं. वहां सात-आठ बच्चियों के अभिभावक भी थे. जब हमने बच्चियों से बात की तो उन्होंने सारी बातों से इंकार किया. उनके अभिभावकों ने भी सुर में सुर मिलाते हुए आश्रम के काम की तारीफ ही की. जब उनसे पूछा गया कि क्या उन पर किसी तरह का दबाव है, तो उन्होंने नकारात्मक जवाब दिया. वहां की एक कर्मचारी बबली ने बताया, ''मीडिया ने एकतरफा रपटें छापी और दिखाई है. हमारा पक्ष किसी ने जानने की भी कोशिश नहीं की. आप खुद बताएं अगर यहां मसाज जैसे काम होते रहे हैं, तो क्या दूसरे लोग भी अपराधी नहीं सिध्द होते? फिर महिला आयोग ने जिन बच्चियों को निर्मल छाया भेजा, आप खुद उनके कागजात देख सकते हैं. उनके साथ उनके अभिभावकों ने भी अपनी सहमति से जाने की बात लिख कर दी है. यहां आप खुद आए, तो हालात आपके सामने हैं.''बहरहाल, जब इस संवाददाता ने बाल आश्रम जाकर चीजें देखने का फैसला किया, तो उसे अंदर घुसने की अनुमति नहीं दी गई. सवाल कई हैं, जवाब अधूरे या मुकम्मल नहीं हैं. वैसे, यह कहानी किसी एक गैर-सरकारी संगठन की नहीं है. बटरफ्लाई नाम की एक संस्था में भी एक कर्मचारी के लैंगिक -शोषण और दुर्व्यवहार का मामला सामने आया है. साथ ही वहां अचानक कई कर्मचारियों की बर्खास्तगी भी विवाद का विषय है.इसी तरह ह्यूमन राइट्स लॉ नेटवर्क नाम की संस्था में एक महिला कर्मी के यौन-शोषण का मामला सामने आया है. इसी तरह जंगपुरा में (जो दिल्ली की महंगी जगहों में से एक है) भी करोड़ों रुपए की संपत्ति को लेकर एक संस्था में खींचतान जारी है. यहां विलियम केरी स्टडी एंड रिसर्च सेंटर और क्रिश्चियन इंस्टीटयूट फॉर स्टडी एंड रिलीजन के बीच तलवारें खिंची हैं. हालांकि दोनों संस्थाएं मूल रूप से एक ही हैं और एक ही व्यक्ति इनका जनक भी था. मामला यहां भी संपत्ति का ही है.बहरहाल, तालाब की सारी मछलियां गंदी ही नहीं, पर ऐसे उदाहरण इस क्षेत्र के महान उद्देश्य पर सवालिया निशान तो खड़ा कर ही देते हैं. यक्ष प्रश्न तो बचा ही रहता है, क्या ये स्वयंसेवी संगठन अपने मूल की ओर वापस लौटेंगे? क्या लोगों के कल्याण हेतु बनी संस्थाएं उसी काम में लगेंगी? या फिर, यह सिरफुटव्वल जारी रहेगी?(साभार - दी संडे इंडियन)

at 4:10 PM

5 आपकी राय:
अनिल पाण्डेय said...
jankari kabile gaur hai.
24 January, 2008 4:22 PM
कमल शर्मा said...
बेहतर रिपोर्ट। पहले मीडिया पर...मेरे ख्‍याल से सारे मीडिया वाले आश्रम नहीं गए होंगे और दिल्‍ली में ही दूसरी जगह पर बैठकर या फोन पर बात कर रिपोर्ट बनाई होगी क्‍योंकि आजकल टीवी में तो हर रिपोर्टर घोड़े पर सवार है सो उसके पास कहीं जाने का वक्‍त ही नहीं है।अब आश्रम पर। ज्‍यादातर समाजसेवक और समाज नेता आर्थिक भ्रष्‍टाचार और सेक्‍स में डूबे हुए हैं। समाजसेवा के नाम पर हर तरह से हाथ फेरने में ये लोग माहिर हो चुके हैं। सरकार को चाहिए कि जरुरतमंद लोगों का ध्‍यान रखने के लिए वह खुद संस्‍थाएं बनाएं और उनके मानक तय करें। निजी संस्‍थाओं के कर्ताधर्ता इसी तरह लड़ते हैं, पैसे खाते हैं और यौन कार्य में लिप्‍त रहते हैं। इन लोगों के बारे में यह पता लगाना चाहिए कि इनका घर कैसे चलता है जब ये कहीं नौकरी नहीं करते। केवल संस्‍थाएं चलाते हैं। हमें तो लगता है कि एक महीना नौकरी न करे तो अगले महीने घर नहीं चला पाएंगे लेकिन ये निखट्टू तो जिंदगी भर नौकरी या कारोबार नहीं करते और ऐशों आराम की जिंदगी जीते हैं। इन मक्‍कारों की आय और आयकर के बारे में जांच होनी चाहिए।
24 January, 2008 4:39 PM
उमाशंकर मिश्र said...
ashish ji , yeh ek mahtavpurn shoochna di hai aapne.... iski aur bhi padtal ki jayegi.... desh bahr me jis tarah se ngo's ki fauj khadi ho rahi hai achhi baat kahi ja sakti hai, lekin vidambana hai ki kabhi swaal nahi pooche jaate ki kya ye sansthayen apna kaam bakhoobhi nibhati hai. bundelkhand me bhi log marne lage hain.....kanha thi ye samajsevi sansthayen....iss tarah ke swaalon se ye samjsewi tilmila jate hain.... ho sakta hai... ab bundelkhand me marte huye logo ko jilane ke naam par kuchh aur ngo's ban jayen... sarkari rahnaumaon ne bhi iss field ko durgandh se bhar diya hai aur smaaj sewa ka jajba upekshit hua hai.....sharm sharm sharm
24 January, 2008 4:43 PM
राजीव जैन Rajeev Jain said...
निश्चित रूप से कुछ न कुछ घालमेल है वहां पर। अब यह छिपा हुआ नहीं है कि समाजसेवा की आड में क्‍या क्‍या होता है। कल ही हिंदुस्‍तान ने अपने ही मित्र अजीत सिंह की एक खबर प्रकाशित की है किफर्जी समाज सेवा में यूपी नंबर वन मेरठ। सत्ता प्रतिष्ठान को समाजसेवा की घुट्टी पिलाने वाली गैर सरकारी संस्थाओं का एक चेहरा यह भी है और यह है प्रोजेक्ट में अनियमितता और सरकारी धन का दुरुपयोग। इसमें उत्तर प्रदेश की संस्थाएं सबसे आगे हैं । महिला एवं बाल विकास मंत्रालय ने देश की दो हजार से ज्यादा एनजीओ को ब्लैक लिस्टेड किया है । इनमें सबसे ज्यादा 332 संस्थाएं उप्र की हैं । इन संस्थाओं पर सरकारी फंड के दुरुपयोग और दिए गए प्रोजेक्ट में अनियमितताएं बरतने का आरोप है । बार-बार चेतावनी देने के बाद भी इन अनियमितताओं पर लगाम लगती न देख महिला एवं बाल विकास मंत्रालय ने इन्हें ब्लैक लिस्टेड किया है । इन संस्थाओं के नाम मंत्रालय की वेबसाइट में डाले गए हैं । मिली जानकारी के मुताबिक सेंट्रल सोशल वेलफेयर बोर्ड इन ब्लैक लिस्टेड एनजीओ के मामलों की सुनवाई क रे गा। सुनवाई में अगर संस्थाएं खुद को सही साबित करती हैं तो उसका नाम काली सूची से बाहर निकाला जा सक ता है । ब्लक लिस्टेड एनजीओ के मामलों में राजस्थान और हिप्र की स्थिति बेह तर है । राजस्थान से 89 और हिमाचल प्रदेश से 53 एनजीओ काली सूची में हैं। मेरठ और अलीगढ¸ की 13 एनजीओज् महिला एवं बाल विकास मंत्रालय की ओर से जारी सूची के मुताबिक मेरठ की छह और अलीगढ¸ की सात एनजीओ को काली सूची में डाला गया है । इन संस्थाओं में मेरठ की सर्व इंडिया, ग्रामीण विकास मंडल, गामोद्योग विकास मंडल, ग्रामीण उत्थान संस्थान, नवीन जनकल्याण संस्थान, शीतल कौर नारी उत्थान संस्थान शामिल हैं। गौरतलब है कि हाल ही में ग्रामीण विकास पर अनुदान देने वाले संगठन के पार्टनर मेरठ की संकल्प और भोर संस्था के खिलाफ कार्रवाई क रने के निर्देश दिए थे। पिछले महीने मेरठ में ही जिला पंचायत के निर्माण कायर्ों में कोताही बरतने वाली एक संस्था के खिलाफ सिविल लाइन थाने में एफ आईआर दर्ज की गई थी। भ्रष्ट एनजीओ के टॉप फाइव गढ¸ उत्तर प्रदेश 332 मेघालय 323 तमिलनाड 304 आन्ध्र प्रदेश 287 पंजाब 223* स्‍त्रोत-महिला एवं बाल विकास मंत्रालय
24 January, 2008 5:09 PM
आशेन्द्र सिंह said...
समाज सेवा के नाम पर मसीहा बनने और राजनीति में प्रवेश करने का औजार हमारे देश में कई लोगों ने अपनाया है . कैलाश जी भी उन्ही में से एक हैं. मैंने भी उनके और उनकी श्रीमती जी के उपदेशात्मक इंटरव्यू लिये और छापे हैं ,लेकिन जब हकीकत से वाकिफ हुआ तो तथ्यगत जानकारी को आधार बना कर पानी उतरने में भी कसर नहीं छोड़ी. आप देशबंधु भोपाल (19 अप्रेल 2004 ) के सरोकार पेज पर ' ग्लोबल एक्शन वीक : बच्चों के नाम पर एक और जलसा ' पढ़ सकते हैं .

Friday, March 14, 2008

एड्स नियंत्रण का अनकहा सच

(एड्स नियंत्रण के नाम पर इस देश में जितने बड़े पैमाने पर गोरखधंधा चल और फल-फूल रहा है इसकी दूसरी कोई मिसाल शायद ही ढूँढने पर मिले। यह किस्सा इस वक़्त के बहुचर्चित ब्लॉग मोहल्ला पर तीन किस्तों में आया था। दिलीप मंडल के इस रहस्योद्घाटन को हम यहाँ आभार सहित रख रहे हैं क्योंकि ज्यादातर लोग साम्राज्यवाद प्रायोजित प्रचार के घटाटोप में सच देख नहीं पा रहे।)

गन्दा है पर धंधा है ये
दिलीप मंडल
( एड्स खतरनाक बीमारी है। इस बात को आप अपने निजी अनुभव, आस-पास रिश्तेदारी, दोस्तों, मोहल्ले, कस्बे, अपार्टमेंट में होने वाली मौतों से बेशक महसूस न कर पाएं, लेकिन सरकार से लेकर तमाम एनजीओ और विश्वभर की संस्थाएं आपको यही समझाने की कोशिश कर रही हैं। आइए जानते हैं कुछ तथ्यों के बारे में। ये सारे तथ्य भारत सरकार ने संसद में लिखित रूप में रखे हैं। ये सबसे ताजा उपलब्ध आंकड़े है। इन सबके लिंक दे रहा हूं, ताकि निष्कर्ष पर विवाद हो तो भी स्रोत सामग्री की विश्वसनीयता बनी रहे। - दिलीप मंडल)

एड्स से भारत में हर साल कितने लोग मरते हैं?भारत सरकार कहती है कि 2004-5 में 1678, 2005-2006 में 1624 और 2006-2007 में 1786 लोग एड्स की वजह से मौत के शिकार हुए। स्वास्थ्य मंत्रालय ने ये आंकड़ा 7 सितंबर 2006 को संसद में पेश किया। ये उस सरकार के नतीजे हैं जो एड्स को देश की सबसे बड़ी स्वास्थ्य समस्या मानती है और कॉमन मिनिमम प्रोग्राम में जिस एक बीमारी का जिक्र है वो एड्स ही है।टीबी और कैंसर से हर साल कितने लोग मरते हैं?भारत सरकार ने संसद को बताया है कि कि हर साल 18 लाख से ज्यादा लोगों को टीबी होता है और साल में 3 लाख 70 हजार से ज्यादा लोग टीबी से मरते हैँ। दुनिया में टीबी के कुल केस का 20 परसेंट सिर्फ भारत में दर्ज होता है। यानी दुनिया में टीबी का हर पांचवां मरीज भारतीय है।कैंसर की बात करें तो आईसीएमआर के जरिए राष्ट्रीय कैंसर रजिस्ट्री में हर साल 7 से 9 लाख नए कैंसर मरीजों के मामले हर साल दर्ज होते हैं और हर साल 4.4 लाख लोग कैंसर से मरते हैं। कैंसर भारत में मौत की चौथी सबसे बड़ी वजह है। ये आंकड़े आप संसद की साइट पर देख सकते हैं।

एक मौत 1.29 करोड़ रुपए की और दूसरी मौत 3,181 रुपए की
(मौत को रुपए में आंकने से बुरी बात क्या हो सकती है। लेकिन बात इतनी कड़वी है कि इसे मीठे अंदाज में पेश करना मुश्किल है। बात एड्स के अर्थशास्त्र और राजनीति की हो रही है। एड्स सचमुच एक अद्भुत बीमारी है। इसे लेकर पढ़ने बैठा तो जानकारियों को पिटारा खुलता चला गया। आप भी इस चर्चा में हिस्सेदार बनें। आखिर ये आपकी सेहत का मामला है - दिलीप मंडल)


पांच साल में 11,585 करोड़ रुपए। आपको एड्स न हो जाए, इसके लिए ये रकम पांच साल में खर्च की जाएगी। पैसा सरकार भी खर्च कर रही है और दुनिया भर से बरस भी रहा है। और देश में मची है इस पैसे की लूट। इस लूट में कई हिस्सेदार हैं। लूट तो देश-दुनिया में और भी कई किस्म की हो रही है, लेकिन भारत जैसे गरीब देश में जहां 30-40 रुपए के आयरन टैबलेट न मिलने के कारण न जाने कितनी गर्भवती महिलाएं और नवजात बच्चे दम तोड़ देते हैं, वहां ये लूट मानवता के खिलाफ अपराध है। देखिए एड्स के लिए आ रहे पैसे का ऑफिशियल लेखाजोखा :बिल और मिलेंडा गेट्स फाउंडेशन से आएंगे 1425 करोड़ रुपए।ग्लोबल फंड टू फाइड एड्स, ट्यूबरकलोसिस एंड मलेरिया से मिलेंगे 1787 करोड़ रुपए।वर्ल्ड बैंक देगा 1125 करोड़ रुपए।डीएफआईडी से आएंगे 862 करोड़ रुपए।क्लिंटन फाउंडेशन ज्यादा पैसे नहीं दे रहा है, वहां से आएंगे 113 करोड़ रुपए।यूएसएड से 675 करोड़ रुपए आ रहे हैं।यूरोपियन यूनियन को भी भारत के एड्स पीड़तों से हमदर्दी है और वो 77 करोड़ रुपए दे रहा है।संयुक्त राष्ट्र की अलग अलग एजेंसियों 323 करोड़ रुपए दे रही हैं।दूसरे विदेशी स्रोतों से 741 करोड़ रुपए आ रहे हैं, जिसमें अमेरिकी सरकार से मिलने वाले 450 करोड़ रुपए शामिल हैं।भारत सरकार के बजटीय आवंटन को जोड़ दें तो ये रकम हो जाती है 11,585 करोड़ रुपए।ये वो रकम है जो पांच साल के राष्ट्रीय एड्स कंट्रोल प्रोग्राम फेज-3 पर खर्च होनी है। प्रधानमंत्री की सलाहकार समिति के एक प्रेजेंटेशन के पेज 44-45 पर आप पूरा हिसाब देख सकते हैं। संसद की साइट पर भी विदेश से आने वाले पैसे का हिसाब किताब आपको इस लिंक पर दिखेगा। वैसे ये तो सीधा साधा हिसाब हैं वरना राष्ट्रीय ग्रामीण स्वास्थ्य मिशन जैसे कार्यक्रम में भी फोकस एड्स पर ही कर दिया गया है।

कंडोम बांटते एनजीओ और एड्स का कारोबार
(पिछली दो पोस्ट में आपने पढ़ा कि किस तरह एड्स से साल में 2000 से कम लोग मरते हैं और मरने वालों की संख्या बढ़ भी नहीं रही है, लेकिन एड्स से लड़ने के नाम पर आने वाला पैसा लगातार बढ़ता जा रहा है। आपने ये भी पढ़ा कि एड्स की एक मौत को टालने पर सवा करोड़ रुपए खर्च होते हैं जबकि कैंसर जैसी बीमारियों से होने वाली मौत से निबटने के लिए औसत खर्च 3181 रुपए है। पैसा किन स्रोत से आ रहा है इसकी भी बात हो चुकी है। अब जानते हैं ये पैसा जा कहां रहा है। - दिलीप मंडल)एड्स के नाम पर आ रहे अंधाधुंध पैसे का सबसे बड़ा हिस्सा (73%) खर्च किया जा रहा है लोगों को अवेयर बनाने के लिए। यानी पोस्टर, पर्चे, नुक्कड़ नाटक, बुकलेट, विज्ञापन आदि पर। प्रधानमंत्री की राष्ट्रीय सलाहकार परिषद को दिए प्रेजेंटेशन में नेशनल एड्स कंट्रोल ऑर्गनाइजेशन यानी नैको ने बताया है कि एड्स जागरूकता के विज्ञापन 2006 में 19,250 बार टेलीविजन चैनलों पर दिखाए गए।इसी प्रेजेंटेशन में बताया गया है कि नेशनल रूरल हेल्थ मिशन के तहत 2007 से 2012 के बीच सरकार देश में 2031 करोड़ रुपए के कंडोम बांटेगी। ये रकम तो सिर्फ एनएचआरएम के तहत कंडोम खरीदने पर खर्च होनी है। नेशनल एड्स कंट्रोल प्रोग्राम (एनएसीपी) का खर्च इससे अलग है। एनएसीपी के तहत देश में कंडोम की कुल खपत 3।5 अरब सालाना पर ले जाने का इरादा है। देश की कुल जनसंख्या में आधी आबादी और बच्चों और बूढ़ों के साथ उन लोगों की संख्या घटा दें जो अपना कंडोम खुद खरीदतें हैं, तो प्रति व्यक्ति कंडोम की खपत का रोचक आंकड़ा निकलेगा। एड्स के नाम पर हो रहे खर्च में चूंकि अस्पतालों की खास भूमिका नहीं है (क्योंकि मरीज कहां से आएंगे)। ये खर्च हो रहा है एनजीओ के माध्यम से। एड्स की जागृति फैलाने में एक लाख बीस हजार सेल्फ हेल्प ग्रुप को ट्रेनिंग दी जा रही है। आप इससे अंदाजा लगा सकते हैं कि एड्स के लिए पैसा आता रहे और स्वास्थ्य पर खर्च की प्राथमिकताएं न बदलें इसमें कितने लोगों का स्वार्थ जोड़ दिया गया है।संख्या का हिसाब देखें तो अभी पौने तीन लाख लोग फील्ड वर्कर के तौर पर एड्स की जागरूकता फैला रहे हैं। नेशनल एड्स कंट्रोल प्रोग्राम के तहत 2012 तक इनकी संख्या बढ़ाकर साढ़े तीन लाख करने का इरादा है। एडस कंट्रोल कार्यक्रम से एक लाख तेरह हजार डॉक्टरों और लगभग एक लाख नर्सों को भी जोड़ा जा हा है। यानी हमारे देश में एड्स बेशक बड़ी बीमारी नहीं है लेकिन ये बहुत बड़ा रोजगार जरूर है। ये सरकारी आंकड़े तो बता रहे हैं कि एड्स से मिलने वाला रोजगार बीपीओ सेक्टर के रोजगार से भी ज्यादा है।

Thursday, March 13, 2008

नींद में सपना, सपने में घर

(सतीश जायसवाल की यह कहानी सितम्बर में बीबीसी हिन्दी डॉट कॉम की कहानी पत्रिका में छपी थी। यहाँ हम लेखक तथा बीबीसी हिन्दी के प्रति आभार प्रकट करते हुए इसे इस ब्लॉग के पाठकों के समक्ष प्रस्तुत कर रहे हैं।)


अदालत के फैसले ने हाजी होटल के मालिक के होश उड़ा दिए. सुबह से भरा बैठा था और उसका सारा गुस्सा अख़बार पर था, जिसमें अदालत का फैसला छपा था. छपा था कि जिस होटल में बाल श्रमिक काम पर मिलेंगे उनको प्रत्येक बाल श्रमिक के पीछे 20 हज़ार रुपए जमा करने पड़ेंगे. कहां से आएंगे इतने रुपए? इतने में तो पूरा होटल बिक जाएगा. हाजी होटल के मालिक की सांस ऊपर-नीचे होने लगी. तभी छछूंदर उसके सामने पड़ गया.
हाजी होटल के मालिक ने ही आदम की इस औलाद का नाम छछूंदर रखा था. वह अपने घर से भागा हुआ था. इस नाम की आड़ में उसे छिपने की जगह मिल गई और पेट भरने के लिए हाजी होटल में काम मिल गया. रिश्तेदारों के साथ मिलकर उसे खोजने और घर वापस ले जाने के लिए उसके घर वाले आए थे. लेकिन उसकी तकदीर में तो बाल श्रमिक होना लिखा था.
छछूंदर के सामने न अदालत का फैसला था न फैसले को छापने वाला अख़बार था. होता भी तो क्या होता? न उसे पढ़ना आता, न लिखना. उसके सामने तो आधी रात होती है और पूरा दिन होता है. दिन भर जूठे बर्तन रात को ही मांज-धो कर रखने पड़ते हैं. इसके बिना सोने को नहीं मिलता. सुबह भी जब रात बकाया रहती है तभी उसे उठा दिया जाता है. शुरू के दिनों में तो इस तरह आधी अधूरी नींद से उठा दिए जाने पर वह रोने लगता था. बाद में धीरे-धीरे आदत पड़ गई.
छछूंदर के सामने पड़ते ही हाजी होटल का मालिक उस पर फट पड़ा. उसने हाथ में रखे अख़बार को हवा में लहराया और दहाड़ा, 'इधर आ, शैतान की औलाद'.
छछूंदर का कहीं, कोई कसूर नहीं था. फिर भी उसकी शामत आती दिखी. लेकिन इससे पहले ही वह भाग निकला.
इस बार वह दूसरी बार भाग रहा था. पहली बार वह घर से भाग था और इस बार वह हाजी की होटल से भाग रहा था. रात ठंडी थी और ओस बर्फ की तरह पड़ रही थी. वह अपने को ठंड से बचा रहा था और नींद उस पर हावी हो रही थी.
नींद में सपना था. सपने में घर था. घर, पता नहीं किसका था? फिर भी घर था. वहां मजबूत कद-काठी का एक वृद्ध था. वह पिता की तरह दिख रहा था. किसका पिता? क्या पता. बच्चे भी थे. बच्चे उसे अपने भाई-बहनों की तरह लगे. एक मां भी थी. मालूम नहीं, सगी या सौतेली. फिर भी माँ थी.
घर की फर्श गोबर से लिपी हुई थी. वहां पुआल का गरम बिछौना था और दुबक कर सो जाने के लिए रजाई भी. सपने में वह सब कुछ था, जो उसकी स्मृतियों में रहा होगा.
सपना टूटा तो वह सड़क पर था. वह किसी पराए शहर में था और उस पर धूप पड़ रही थी. वह किसी और की जगह थी जहां वह सो गया था इसलिए वे सबके सब उस पर नाराज थे. वे सबके सब गिरोहबंद थे और छछूंदर एक अकेला था. उसके बीच वह बाहर का था. तभी बाल वेश्या वहां आई और फुटपाथ पर रहने वाले उन गिरोहबंद बच्चों के साथ उसने छछूंदर की दोस्ती करा दी. फिर उसने छछूंदर से पूछा-भूख लगी है कुछ खाएगा?
उसे भूख लग रही थी. लेकिन वह स्नेह में भटक गया. बाल वेश्या किसी माँ की तरह उसका ख्याल रख रही थी. छछूंदर उससे पूछा क्या तू माँ है?
बाल वेश्या ने जवाब दिया - नहीं. अभी मैं छोटी हूं. थोड़े दिन में बन जाऊंगी.
उसने छछूंदर को एक रहस्य की बात बताई- मैं जानती हूं कि माँ कैसे बनती है.
छछूंदर का मन भी उस रहस्य को जानने के लिए हुआ. लेकिन बाल वेश्या ने उसे बताया वहां मेरी फ़िल्म चल रही है.
वहां प्रशासनिक भवन था और उसके सेमिनार हाल में बाल वेश्या की फ़िल्म चल रही थी. फ़िल्म को देखने के लिए दूर-दूर से लोग आए थे. लेकिन छछूंदर को विश्वास नहीं हो रहा था. बाल बेश्या ने जोर देकर कहा-‘भरोसा नहीं हो रहा है ना? तो भीतर जाकर खुद देख ले.’
दोनों को मालूम था कि भीतर नहीं जा सकते. भीतर बड़े लोग थे और बड़ी बातें हो रही थीं. बाल वेश्या बाहर थी और भीतर उसकी फ़िल्म दिखाई जा रही थी. बाल बेश्या अपनी कहानी बता रही थी. फ़िल्म में जो दिखाया जा रहा था वह उसके साथ सचमुच में हुआ था.
प्रशासनिक भवन के भीतर चल रहे सेमिनार में बाल अधिकारों पर चर्चा हो रही थी. इसलिए वहाँ दिखाई जा रही फ़िल्म में भी बाल वेश्या थी. वे सबके सब बाल वेश्या के लिए चिंताएं कर रहे थे. लेकिन बाल वेश्या सबकी चिंता कर रही थी. फुटपाथ पर वाले उन सबके साथ छछूंदर की भी चिंता कर रही थी. छछूंदर उनके बीच नया था और भूखा था. बाल वेश्या ने उसे धीरज बंधाया-थोड़ा रूक. जब ये लोग खाकर चले जाएंगे तो हमको खाना मिलेगा.’
वहां भोजन था और बाल वेश्या को पता था कि भीतर, उसकी फ़िल्म देख रहे और उस पर चिंता कर रहे लोग खाते कम हैं और छोड़ते अधिक हैं.
पता नहीं वे लोग खाने के लिए कब आएंगे?
फुटपाथ पर रहने वाले बच्चों को भूख लग रही थी. अपनी भूख को भुलाने के लिए उन सबने मिलकर एक खेल खोज लिया. वहां पोस्टरों की सजावट थी और पोस्टरों में दुनिया भर के बाल श्रमिकों के चित्र थे. फुटपाथ पर रहने वाले बच्चों ने पहले तो इन चित्रों की खिल्ली उड़ाई. लेकिन जब उधर से कोई प्रतिक्रिया नहीं हुई तो इधर से दोस्ती की पहल हुई. इस पर भी जब कोई बात नहीं बनी तो वे सब मिलकर गालियां बकने लगे.
छछूंदर को कुछ समझ में नहीं आया कि ऐसे में उसे क्या करना चाहिए. अब तक तो उसने गालियां सुनी भर थी. लेकिन अब वह गालियां बकने वालों की तरफ था. फिर भी वह अलग था. तभी एक अक्षर यात्री उधर से गुजरा. उसके कंधे पर अक्षर छाप झोला था और वह साक्षरता कार्यक्रम का एक स्वयंसेवक था.
सेवा के बदले में उसे एक अक्षर छाप झोला और अक्षर यात्री का नाम मिला था. वह एक प्रतिबद्ध कार्यकर्ता था और निरक्षरों को साक्षर बनाने का काम उसने धर्म-भाव से अपनाया था. उसने अक्षरों के साथ अनाचार होते देखा तो वहीं रुक गया. उसे लगा कि यहां उसकी ज़रूरत है. उसने नारा लगाया-‘जय अक्षर.’
थोड़ी देर पहले गालियां बक रहे, फुटपाथ के बच्चों ने उसके साथ मिलकर नारा लगाया- जय अक्षर...’
उनको कुतूहल हो रहा था कि अक्षर की भी जैकार की जा सकती है? उन्होंने मिलकर दोहराया जय अक्षर...’
अक्षर यात्री का काम हो रहा था. लेकिन भीतर विघ्न पड़ने लगा. भीतर से स्टेट प्रोग्राम डायरेक्टर निकलकर बाहर आए. उन्हें आशंका हुई कि कोई ऐसी बात तो नहीं, जिसे बाहर से भीतर नहीं जाना चाहिए? उनकी नजर अक्षर यात्री पर पड़ी और वे संतुष्ट हो गए कि चिंता की कोई बात नहीं. उन्होंने अक्षर यात्री से पूछा- स्ट्रीट एज्युकेटर हो?
अक्षर यात्री ने जवाब दिया - वह तो आप देख ही रहे हैं. आप यह भी देख रहे हैं कि मैं क्या काम कर सकता हूँ.’ अब उसने काम की बात की- मैं भी सेवा करना चाहता हूं. विश्व के बाल श्रमिकों के लिए कुछ करना चाहता हूँ.
स्टेट प्रोग्राम डायरेक्टर ने कहा – देखेंगे. फंड आने वाला है. तब तक इसे देखो और पढ़ो.’
उन्होंने बाल श्रमिकों की रिपोर्ट अक्षर यात्री के हाथ में रख दी और बताया-‘यह बच्चों के अधिकार का धर्म-ग्रंथ है. इसके अनुसार दुनिया के बाल श्रमिक सभी निरक्षर होते हैं.
अक्षर यात्री ने आंखें मूंदकर उस धर्म-ग्रंथ को माथे लगाया. फिर उसने आंखें खोलकर देखा. धर्म-ग्रंथ की जिल्द पर एक बाल श्रमिक का चित्र है. चित्र में ढेर सारी गेंदें हैं और उनके बीच एक बाल श्रमिक- आंखे मूंदे सो रहा है. ये गेंदे अक्षर यात्री को बारूद के ऐसे गोलों की तरह लगीं जिनमें अब बारूद नहीं है. तभी तो, इनके बीच एक बाल-श्रमिक इतना निशंक और सुरक्षित है.
छछूंदर को वह बाल-श्रमिक बिल्कुल अपनी तरह लगा. छछूंदर को लगा कि वह भी अपने घर से भागा हुआ होगा और भूखा होगा. हो सकता है कि वह भी कोई सपना देख रहा हो. सपने में घर हो, खाना हो और नींद हो...

बच्‍चे उन्‍हें बसंत बुनने में मदद देते हैं !