लेख़क - अभिषेक श्रीवास्तव
Sunday, 30 December 2007
एचआईवीएड्स के लिए आ रहे भारी विदेशी अनुदान के लालच में हम इससे ज्यादा खतरनाक व जानलेवा बीमारियों से बचने के उपायों और योजनाओं से विमुख होते जा रहे हैं।क्या आपने पुरुषोत्तमन मुलाली का नाम सुना है? आप जैक के बारे में क्या जानते हैं? जाहिर तौर पर एचआईवीएड्स पर बात करते वक्त ऐसे सवाल घोर अप्रासंगिक जान पड़ेंगे। आप सोचेंगे कि एचआईवीएड्स के क्षेत्र में तो बिल गेट्स से लेकर क्लिंटन और देसी नामों में नाको से लेकर अंजलि गोपालन की किस्में पाई जाती हैं। अगर यूएसएड्स और यूएनएड्स की बात न की जाए तो एड्स पर कोई भी विमर्श अधूरा ही रहेगा। लेकिन शुरुआत एक ऐसे नाम से जिसका कोई अता-पता नहीं है। जी हां, वास्तव में मीडिया की एड्स से जुड़ी तमाम खबरों में यह नाम गुमनाम है। इसी व्यक्ति ने हमें बताया कि इस महीने कर्नाटक में एचआईवीएड्स के भ्रामक आंकड़ों के खिलाफ प्रचार करने और सरकार का विरोध करने वाली एक एचआईवी संक्रमित महिला आंदोलनकारी की हत्या हो गई है। इस महिला ने अपने पीछे 600 एचआईवी संक्रमित महिलाओं को संगठित किया था जो सरकार द्वारा जुलाई में जारी एचआईवीएड्स के आकड़ों की सचाई का पर्दाफाश कर रही थीं।
सवाल उठता है कि ऐसी खबरें हम तक क्यों नहीं आ पाती हैं? इसका कारण पुरुषोत्तमन खुद बताते हैं, 'जाहिर सी बात है कि जो लोग विदेशी अनुदान लेकर एड्स के आंकड़ों को तोड़ते-मरोड़ते हैं, उनके हित बड़ी पूंजी से चलने वाले मीडिया के हितों से जुदा नहीं हैं। दूसरे, न तो मीडिया को और न ही एड्स जागरूकता का दम भरने वाले तमाम एनजीओ और अन्य कार्यकर्ताओं को कोई भी वैज्ञानिक जानकारी है कि एड्स के आंकड़े कैसे निकाले जाते हैं? और यह भी कि आखिर एड्स होता क्या है। जो बताया जाता है उसे मान कर आम सहमति बना लेने की आदत ने इस देश को सौ फीसद बेच डाला है।'आखिर इस शख्स की बातों में कितनी सचाई है? पहले बता दें कि पुरुषोत्तमन मुलाली देश के उन शुरुआती लोगों में से एक हैं जिन्होंने 1986-87 के दौरान भारत में एड्स के आरंभिक मामले सामने आते ही इस पर चिंता जाहिर करते हुए काम करना शुरू कर दिया था। उन्होंने यह शुरुआत ज्वाइंट एक्शन काउंसिल कुन्नूर (जैक) नाम के संगठन से की और आज भी इसी बैनर तले काम जारी रखे हुए हैं। आज एचआईवीए्ड्स के क्षेत्र में जितने चेहरे दिखाई दे रहे हैं सब पुरुषोत्तमन की अगली पीढ़ी के लोग हैं। वह बताते हैं, 'मेरी भी दुकान अच्छी चल रही थी। एड्स के नाम पर सालाना पांच करोड़ का कारोबार था। लेकिन जब मैं इस तंत्र के भीतर घुसा और मैंने देखा कि किस तरह विदेशी अनुदानों और बहुराष्ट्रीय कंपनियों के फायदे के लिए आकड़ों को मनमर्जी तोड़ा-मरोड़ा जाता है और एक बीमारी के बारे में इतने अवैज्ञानिक नजरिए से प्रचार किया जा रहा है तो मैंने दुकान बंद कर दी। कहते हुए शर्म आती है कि मैं पहला और इकलौता व्यक्ति हूं जो एचआईवीएड्स की राजनीति का पर्दाफाश करने के लिए पिछले दस वर्षों से लगा हूं। मेरी जेब में एक पैसा नहीं है लेकिन मैं इन लोगों को छोड़ूंगा नहीं।'
गौरतलब है कि 6 जुलाई 2007 को राष्ट्रीय एड्स नियंत्रण कार्यम के तीसरे चरण का उद्धाटन करते वक्त स्वास्थ्य मंत्री अंबुमणि रामदास ने बड़े उत्साह के साथ घोषणा की थी कि भारत में एक आकलन के मुताबिक एचआईवी ग्र्रस्त लोगों की संख्या में नाटकीय तरीके से गिरावट आई है। उन्होंने कहा था कि पहले के आंकड़े 57 लाख से गिर कर यह संख्या अब 20 लाख तक पहुंच गई है और प्रसार की दर 0.9 फीसद से गिर कर 0.36 फीसद हो गई है। पुरुषोत्तमन हंसते हुए सवाल करते हैं, 'या तो 37 लाख लोगों की मौत हो गई या वे ठीक हो गए। इसके अलावा और कोई रास्ता नहीं हो सकता कि सरकार ऐसे दावे करे।' सरकार का जवाब यह आता है कि इस बार आंकड़ों के आकलन के लिए अपनाई गई प्रणाली को बदल दिया गया है जिससे इतना फर्क दिखाई दे रहा है। रामदास ने खुद कहा था, 'हमने इस आपदा की गंभीरता को कम कर के आंकने की गलती हमेशा से ही की है।' उन्होंने चेतावनी दे डाली कि दोनों वर्षों के आंकड़ों की तुलना संभव नहीं है। उनका कहना था कि यदि हम दोनों ही वर्षों के लिए एक ही प्रविधि अपनाते हैं तो पाते हैं कि प्रसार में न्यूनतम फर्क पड़ा है।
सवाल उठता है कि दो वर्षों में आंकड़े निकालने की प्रविधि को क्यों बदल दिया गया? खैर, निष्कर्ष यही निकलता है कि एचआईवी के मामलों में वास्तव में कोई कमी नहीं आई है। इस तथ्य से हालांकि एचआईवीएड्स पर काम करने वाले कई कार्यकर्ता खुद सहमत हैं लेकिन अनुदानों का इतना दबाव है, खासकर वे अनुदान जो नाको के माध्यम से आते हैं, कि इस क्षेत्र में काम कर रहे लोग और संगठन इसके कारणों की तह में नहीं जाते हैं। सरकार ने अब तक नई प्रविधि का कोई भी विवरण मुहैया नहीं कराया है कि आखिर कैसे वह इस निष्कर्ष पर पहुंची कि संक्रमित व्यक्तियों की संख्या कम हो गई है। दूसरा पक्ष यह भी है कि तमाम एनजीओ इस बात को लेकर सशंकित हैं कि सरकार के इन आंकड़ों से कहीं अनुदानों पर कोई फर्क न पड़ जाए। जाहिर सी बात है कि यदि दानदाता एजेंसियां सरकारी आंकड़ों से सहमत हो जाती हैं तो अनुदानों में कमी आना तय है।
गैरसरकारी संगठनों द्वारा ये चिंताएं भी जताई जा रही हैं कि संशोधित आंकड़ों से बड़ी दवा कंपनियों द्वारा अनिवार्य एड्स दवाओं का पेटेंट कराने की संभावना बढ़ जाती है। पुरुषोत्तमन कहते हैं, 'यदि एक फीसद से ज्यादा आबादी एचआईवीएड्स से प्रभावित होती तभी इसे राष्ट्रीय आपदा घोषित किया जा सकता है। सरकार खुद कहती है कि 0.9 फीसद आबादी अभी इसकी चपेट में है। फिर इस पर एक राष्ट्रीय विधेयक बनाने की जरूरत क्यों आन पड़ी?'
ध्यान देने वाली बात है कि पिछले वर्ष सरकार संसद में एचआईवीएड्स विधेयक 2006 लाने वाली थी जिसके खिलाफ काफी बवाल मचा था। इस मामले में 'जैक' द्वारा राष्ट्रपति और राज्य सभा के महासचिव को एक पत्र भी लिखा गया था। जबकि इस संबंध में दिल्ली के हाई कोर्ट और सुप्रीम कोर्ट में आईपीसी की धारा 377 के तहत दो मामले 2001 से ही लंबित हैं। इसके अलावा संसद के समक्ष एक याचिका डाली गई थी जिसमें स्पष्ट तौर पर कहा गया था कि एचआईवीएड्स पर बनाई गई संसदीय समिति दरअसल यूएनएड्स से संबध्द इकाई है। जाहिर तौर पर यूएनएड्स पर बहुराष्ट्रीय कंपनियों का कब्जा है और वहां चीजें स्वतंत्र रूप से संचालित नहीं होती हैं।
इसी बारे में पुरुषोत्तमन कहते हैं कि बल्ब इस देश में जलता है लेकिन उसका स्विच कहीं और होता है। यह बात दूसरी तमाम विकास परियोजनाओं के बारे में भी उतनी ही सच है जितना एचआईवीएड्स से जुड़ी परियोजनाओं के बारे में। सोचने वाली बात है कि जिस देश में टीबी, हैजा, मलेरिया, डेंगू, खसरा, कैंसर आदि से लोग इतनी आसानी से रोजाना मर-खप जाते हैं वहां एचआईवीएड्स को इतना तूल दिए जाने का क्या अर्थ है? टीबी, मलेरिया और एचआईवीएड्स पर भारत को मिलने वाले वैश्विक अनुदानों की तुलना की जाए तो इस बात को अच्छी तरह से समझा जा सकता है कि इनके बीच कितना भारी अंतर है। यह संयोग नहीं है कि 'नाको' की वेबसाइट पर प्रकाशित रिक्त पदों में एक कम्प्यूटर ऑपरेटर का वेतन मासिक 75000 दिखाया गया है। और यह स्थिति उस देश में है जहां 70 फीसदी आबादी की औसत कमाई एक डॉलर (41रुपए) प्रतिदिन से नीचे है।
इस वर्ष के आल्टरनेटिव इकोनॉमिक सर्वे पर नजर डालें तो यह बात साफ हो जाती है कि देश में जन स्वास्थ्य के क्षेत्र में जितना पैसा खर्च किया जाना चाहिए उतना या उससे ज्यादा सिर्फ एक बीमारी के लिए खर्च किया जा रहा है। ग्रामीण संस्थाओं में चिकित्सकों और चिकित्सकीय कर्मचारियों के वितरण का यह हाल है कि प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्रों पर चिकित्सक 90 फीसद से ज्यादा समय मौजूद नहीं रहते हैं। एक प्राइमरी हेल्थ सेंटर पर ग्रामीण क्षेत्रों में सिर्फ एक चिकित्सक की व्यवस्था है। सरकारी आंकड़े खुद बताते हैं कि 50 फीसदी पुरुष स्टाफ, 21 फीसदी नसर्ें (एएनएम), 34 फीसदी प्रयोगशाला कर्मी और 34 फीसदी फार्मासिस्ट आम तौर पर अपने कार्य स्थलों से गायब रहते हैं। एक बात और ध्यान देने वाली है कि मानव संसाधन यदि पर्याप्त हो भी तो ग्रामीण इलाकों में चिकित्सीय उपकरणों की संख्या का टोटा है।
यदि हम स्वास्थ्य सूचकों पर नजर डालें तो पाएंगे कि शिशु मृत्यु दर, मलेरिया, हैजा जैसे सांमक रोगों का प्रसार खराब ढांचागत व्यवस्था के बावजूद घटा है। इससे सीधा सबक मिलता है कि जो पैसा निजी क्षेत्र में या गैरसरकारी संस्थानों के माध्यम से निवेश किया जा रहा है उसे अगर सार्वजनिक क्षेत्र और जन स्वास्थ्य में लगाया जाए तो स्थितियों के सुधरने की संभावनाएं बढ़ना लाजिमी है। हालांकि सवाल उठाए जाते रहे हैं कि पिछले दो दशकों के दौरान स्वास्थ्य सूचकों में आया सुधार निजी क्षेत्र की बढ़त की वजह से है या सार्वजनिक क्षेत्र की बेहतरी की वजह से। हम आज ऐसी खबरों से रूबरू होते हैं कि मेरठ जैसे शहर में एक एचआईवी रोगी का इलाज करने से चिकित्सक मना कर देते हैं। एम्स जैसे संस्थान में एक मरीज समुचित व्यवस्था न होने के चलते उसके गलियारों में ही दम तोड़ देता है और उसकी लाश को उसके गांव पहुंचाने वाला कोई नहीं होता। उस पर से बर्बर व असंवेदनशील मीडिया इस लाश का ऐसे प्रचार करता है जैसे संवाददाता का इस मौत से कोई संबंध नहीं है।
अन्य बीमारियों को यदि कुछ समय के लिए हम अलग रख दें तो एचआईवीएड्स के साथ एक पक्ष जो बहुत मजबूती से जुड़ा नजर आता है वह सामाजिक विभेद और कलंक का है। आम तौर पर हमारे यहां एचआईवी संक्रमित व्यक्ति को उपेक्षा की दृष्टि से देखा जाता है। इस दिशा में जागरूकता फैलाने के लिए हालांकि कई गैरसरकारी संगठन और सरकारी एजेंसियां कार्यरत हैं लेकिन इसमें भी जो अनुदान प्राप्त होता है वह बुनियादी तौर पर सामंती मानसिकता के खिलाफ इस पूरी लड़ाई को प्रोजेक्ट में बदल कर रख देता है। दिल्ली से ही चलने वाली एक संस्था 'सम्यक' के संजय देव और वरिष्ठ पत्रकार राहुल देव इस संस्था के माध्यम से पिछले कई वर्षों से मीडियाकर्मियों के बीच एचआईवीएड्स को लेकर जागरूकता फैलाने के काम में लगे हैं। इस बीमारी से जुड़ी शब्दावली के अखबारी खबरों में प्रयोग को लेकर कई शहरों में संवाददाताओं और पत्रकारों के साथ कार्यशालाएं की जा चुकी हैं और उन्हें बताया जाता है कि किस तरह से ऐसी भाषा का प्रयोग करें जो असम्मानजनक न हो। हालांकि इस भाषा के बारे में एनजीओ की पुस्तकों के बड़े प्रकाशक विनय आदित्य बहुत स्पष्ट राय रखते हैं, 'यह भाषा सीधे विश्व बैंक और संयुक्त राष्ट्र से आ रही है। ऐसा लगता है जैसे कि अंग्रेजी का हिंदी में तर्जुमा कर दिया गया हो। लोगों को ध्यान ही नहीं रहता कि हिंदी में कितने खूबसूरत शब्द हैं जिन्हें वापस लाया जाना चाहिए।' सलन, आजकल एचआईवी से ग्रस्त मरीजों के लिए एक शब्द चल पड़ा है 'एचआईवी के साथ जी रहे व्यक्ति।' अब यह नाम भले ही संयुक्त राष्ट्र और मानवाधिकार कर्मियों के बीच सम्मानित माना जाता हो लेकिन लिखने और पढ़ने में काफी अटपटा लगता है। भले ही इस तरह की शब्दावली के पैरोकार अपने तर्क दें लेकिन मोटे तौर पर इस संदर्भ में एक बार फिर पुरुषोत्तमन मुलाली की बात मार्के की लगती है, 'एचआईवीएड्स कोई बीमारी नहीं है। यह एक पूरी सभ्यता है। इसीलिए अन्य बीमारियों की तुलना में एचआईवीएड्स को आने वाला अनुदान इतना महत्त्वपूर्ण हो जाता है। यह हमारी भाषा, संस्कृति और जीने की शैली पर सीधे हमला करता है।' तमाम किस्म के दावों, आंकडों और भय के बीच पुरुषोत्तमन के बेलाग बयान हमें ज्यादा आकर्षित करते हैं। जाहिर सी बात है कि हम भी एचआईवीएड्स के भीतरी दांव-पेंचों से तकनीकी तौर पर इतने वाकिफ नहीं लेकिन कहा गया है कि धुआं है तो आग भी कहीं होगी ही। पुरुषोत्तमन हमारे सामने बगैर कोई खुलासा किए सिर्फ इतना ही कहते हैं, 'यह आग आपको मार्च-अप्रैल में दिखाई दे जाएगी। सारे खेल का पर्दाफाश होने में कुछ ही वक्त बाकी है। मैं इसी में लगा हूं।' हम हतप्रभ उनका मुंह देखते रह जाते हैं।
समकाल डॉट कॉम से साभार
Monday, March 31, 2008
Subscribe to:
Post Comments (Atom)
No comments:
Post a Comment