Wednesday, March 19, 2008

कैलाश सत्‍यार्थी जी यह पब्लिक है सब जानती है

आशीष (बोल हल्ला ब्लॉग स्पॉट पर)

Thursday, 24 January, 2008

(इस रिपोर्ट को पढ़कर मुझे और मेरे जैसे कई लोगों को थोड़ा दुख हो सकता है। समाज सेवा और इससे जुड़े लोगों की मैं बहुत इज्‍जत करता हूं लेकिन आज जब जनपथ पर यह रिपोर्ट पढ़ा तो कैलाश सत्‍यार्थी से पहली मुलाकात याद आ गई । उनसे पहली बार मैं जयपुर में एक कार्यक्रम में मिला था। दी संडे इंडियन के एक पत्रकार ने एक स्‍टोरी की है जो मशहूर बचपन बचाओ आंदोलन के बारे में है...पता चला है कि इस स्‍टोरी पर संस्‍था के प्रमुख कैलाश सत्‍यार्थी द्वारा उन्‍हें जान से लेकर नौकरी से निकलवाने तक की धमकियां दी जा रही हैं। अब इस रिपोर्ट को पढकर आपकी अपनी राय जरुर देंताकि कैलाश सत्‍यार्थी और इन जैसे समाज सेवा के ठेकेदारों को पता चले कि जनता आपके बारें क्‍या सोचती है। यदि आपको और कुछ जानकारी मिलती है तो इसे बोलहल्‍ला के साथ बांटिएगा जरुर।)

हरेक महान शुरुआत आखिरकार लड़खड़ाने को अभिशप्त होती है। प्रत्येक महान यात्रा कहीं-न-कहीं तो समाप्त होती ही है। - संत औगस्तीन।

भारत के संदर्भ में भी यह बात नई नहीं है, बात आप चाहे जिस भी क्षेत्र की कर लें। यही बात समाज की सेवा के महान उद्देश्य और परोपकार के महान धर्म को ध्यान में रखकर शुरु हुई गैर-सरकारी, सामाजिक या फिर स्वयंसेवी संगठनों के साथ भी लागू होती है। जो विचारक या निर्देशक इनकी शुरुआत करता है। ताजा मामले की बात हम बचपन बचाओ आंदोलन, ग्लोबल मार्च या असोशिएशन फॉर वोलंटरी एक्शन(आवा) से कर सकते हैं. ये तीन नाम इस वजह से क्योंकि इन संस्थाओं का ढांचा ही ऐसा है. सारे एक-दूजे से जुड़े और अलग भी. ऊपर से इस मामले के पेंचोखम इतने कि आम आदमी तो उनको समझने में ही तमाम हो जाए या उसे यह शेर याद आ जाए- जो उलझी थी कभी आदम के हाथों, वो गुत्थी आज तक सुलझा रहा हूं. बहरहाल, मामला अभी टटका और ताजा है. इस पूरे मसले में तमाम नामचीन शख्सियतें उलझीं हैं और साथ ही मीडिया भी अपना अमला पसारे है. पूरे फसाद की जड़ में है दिल्ली-हरियाणा सीमा पर स्थित इब्राहिमपुर में मौजूद बालिका मुक्ति आश्रम. कभी हमसफर रहे दो लोग ही अब एक-दूसरे के खिलाफ मोर्चा खोले बैठे हैं. तलवारें तन चुकी हैं, बखिया उधेड़ी जा रही है, आरोप-प्रत्यारोप लगाए जा रहे हैं और दोनों ही खेमे एक-दूजे के चरित्र हनन पर आमादा हैं.

बहरहाल, मामले को समझने के लिए हमें थोड़ा पीछे जाकर इस पूरे घटनाक्रम का इतिहास जानना होगा। बालश्रम को खत्म करने और बंधुआ मजदूरों को बचाने के पवित्र उद्देश्य को ध्यान में रखकर दो महानुभाव इकट्ठा हुए. ये दोनों ही आज काफी नामचीन हैं-स्वामी अग्निवेश और कैलाश सत्यार्थी. 80 के दशक में शुरु हुआ यह सफर काफी मशहूर हुआ और सफल भी. इसका नाम फिलहाल बचपन बचाओ आंदोलन है, पर इसकी शुरुआत बंधुआ मुक्ति मोर्चा ने की थी और उस वक्त संस्था के तौर पर साउथ एशियन कोलिशन अगेंस्ट चाइल्ड सर्विटयूड (साक्स) का निर्माण किया गया. इसमें पेंच केवल एक आया, जब 93-94 में स्वामी अग्निवेश इस आंदोलन से अलग हो गए. बहरहाल स्वामी अग्निवेश से इस मसले पर जब पड़ताल की गई, तो उन्होंने कुछ ऐसा बयान दिया, ''देखिए, असल में बंधुआ मुक्ति मोर्चा(बीएमएम) ने ही इस पूरे आंदोलन की शुरुआत की थी. आप जो आश्रम देखकर आ रहे हैं, वह भी असल में बीएमएम का ही बनाया हुआ था. बाद में मुझे महसूस हुआ कि कैलाश जी उसका और भी कोई इस्तेमाल करना चाह रहे हैं. उसी समय हम दोनों में कुछ बातचीत हुई और मैंने अलग होने का फैसला कर लिया. ''खैर, अब आते हैं तात्कालिक मसले पर. फिलहाल विवाद की जड़ में है बालिका मुक्ति आश्रम और कभी कैलाश सत्यार्थी की करीबी सहयोगी और इसकी संचालिका रहीं सुमन ही खम ठोंककर मैदान में आ खड़ी हुई हैं. लाखों रुपए मूल्य की यह संपत्ति किसी व्यक्ति ने संस्था को दी थी और शायद यही वजह है-तलवारें खिंचने की. मामला तब सुर्खियों में आया, जब पिछले महीने मीडिया में यहां की कुछ लड़कियों के यौन-शोषण की खबरें आईं. वे लड़कियां उत्तर प्रदेश के सोनभद्र से लाई गईं थीं और आश्रम में रह रही थीं. बच्चियों ने मसाज करवाने की बात भी स्वीकारी. साथ ही सुमन और संगीता मिंज(फिलहाल आश्रम की केयरटेकर) पर तो दलाली के भी आरोप लगे. बचपन बचाओ आंदोलन (बीबीए) के राष्ट्रीय महासचिव राकेश सेंगर इसे कुछ ऐसे बयान करते हैं, ''देखिए, हम व्यक्तिगत आरोप नहीं लगाना चाहते, लेकिन आप रांची जाकर पता करें तो इनके खिलाफ कई मामले दर्ज पाएंगे. उन पर तो एफसीआरए के तहत भी आंतरिक कार्रवाई चल रही है. उन्होंने 2004 में अपनी एक अलग संस्था द चाइल्ड ट्रस्ट बनाई और संस्था की संपत्ति को निजी तौर पर इस्तेमाल किया. अपने लिए गाड़ी खरीदी और कई सारी वित्तीय अनियमितताएं की. हमारे पास सारे जरूरी कागजात हैं और आप उनको देक सकते हैं. ''हालांकि सुमन का इस मसले पर कुछ और ही कहना है. वह कहती हैं, ''ये सारे आरोप निराधार और बेबुनियाद हैं. मैं किसी भी जांच के लिए तैयार हूं. दरअसल यह सारा कुछ आश्रम पर कब्जा करने को लेकर है. उन्होंने तो मेरे कमरे को भी हथिया लिया और मेरे सामान को उठा लिया. आप खुद जाकर देख सकते हैं कि आश्रम में सुरक्षा के लिए हमें पुलिस से गुहार करनी पड़ी है. कैलाश जी ने संस्था में अपनी बीवी और बेटे को स्थापित कर यह सारा झमेला खड़ा किया है. अगर मैं इतनी ही बुरी थी तो 22 सालों तक ये चुप क्यों रहे और मुझे बर्दाश्त क्यों करते रहे?''खैर, अब जरा पीछे की ओर लौट कर इस पूरे विवाद की जड़ देखें. साक्स से बीबीए की यात्रा में कई पड़ाव आए. संस्था जैसे-जैसे बढ़ती गई, विवाद भी गहराते गए. आखिरकार 2004 में यह तय किया गया कि आवा एक मातृसंस्था रह जाएगी और इसके बैनर तले सेव द चाइल्डहुड फाउंडेशन, बाल आश्रम ट्रस्ट, ग्लोबल मार्च अगेंस्ट चाइल्ड लेबर और द चाइल्ड ट्रस्ट बनाए जाएंगे. यही से पूरा बवाल शुरु हुआ. सुमन का कहना है, ''आप खुद देख सकते हैं कि कैलाश जी ने किस तरह अपने प्रभाव का दुरुपयोग किया. अपनी पत्नी को तो उन्होंने सेव द चाइल्डहुड...का अध्यक्ष बना दिया, तो बेटे को बाल आश्रम...का. ग्लोबल मार्च...के तो वह खुद ही मुख्तार हैं. इसके अलावा उनकी पत्नी के ट्रस्ट में ही उन्होंने सारे संसाधनों का रुख कर दिया. यही सब विवाद की जड़ में है. ''हालांकि इस संवाददाता ने जब बीबीए के वर्तमान अध्यक्ष रमेश गुप्ता से बात की, तो उनका कुछ और ही कहना था. वह बताते हैं, ''हमने तो सुमन को हमेशा ही सम्मान दिया है. लेकिन जब उसकी हरकतें नाकाबिले-बर्दाश्त हो गई तो हमें मामले को उजागर करना ही पड़ा. हमने तो उसे एक खुला पत्र भी लिखा है, उससे आप सारी बातें जान सकते हैं. उसने एक भी निर्णय का सम्मान नहीं किया. कभी भी वित्तीय पारदर्शिता नहीं दिखाई और आवा के संसाधनों का दुरुपयोग कर अपनी खुद की संस्था को पालती-पोसती रही. खुद को तो उसने जैहादी के तौर पर प्रोजेक्ट कर दिया, लेकिन बाकी साथियों का नाम भी नहीं लिया. यह सचमुच अफसोसनाक है. ''राकेश सेंगर तो उनसे भी एक कदम आगे बढ़कर आरोप लगाते हैं कि जबरिया निकालने वगैरह की बात बिल्कुल बेबुनियाद है. बाल आश्रम की लीज तो वैसे भी 31 दिसंबर को खत्म हो रही थी. फिर इस्तीफा भी उनसे जबरन नहीं लिया गया. जब उन्होंने संस्था छोड़ दी तो फिर वैसे ही आश्रम में उनके बने रहने की कोई तुक नहीं थी. जहां तक उनके कमरे से कुछ लेने की बात है, तो यह तो बिल्कुल अनर्गल प्रलाप है. आप खुद ही बताएं किसी स्वयंसेवी संस्था में काम करनेवाली महिला के पास 2 किलो सोना कहां से आ गया? हालांकि, कैलाश सत्यार्थी इस पूरे विवाद से पल्ला झाड़ लेते हैं. वह कहते हैं, ''भई, मेरा तो न बाल आश्रम और न ही बालिका आश्रम से कोई लेना-देना है. वहां से तो मैं डेढ़ साल पहले ही अलग हो गया था. आप मुझसे ग्लोबल मार्च के बारे में पूछें तो कुछ बता सकता हूं.''हालांकि अपने परिवार के बारे में पूछने पर वह बिफर पड़े. इस संवाददाता को धमकी भरे लहजे में कैलाश जी ने कहा, ''अगर मेरा बेटा या पत्नी किसी संस्था का नेतृत्व करने लायक हैं तो इसमें गलत क्या है? वैसे भी वे दूसरे संस्थानों से जुड़े हैं. आप बेबुनियाद बातें न करें, वरना आपका करियर भी खतरे में पड़ सकता है. '' हालांकि इसके ठीक उलट राकेश सेंगर का कहना है कि अगर कैलाश जी के बेटे की बात साबित हो जाए तो वह सामाजिक जीवन ही छोड़ देंगे. बहरहाल, आरोपों की इस झड़ी में नुकसान सबसे ज्यादा तो उन बच्चों का हो रहा है, जिनका जीवन सुधारने के मकसद से इस आंदोलन की शुरुआत हुई है. साथ ही कुछ सवाल ऐसे हैं, जिनके जवाब खोजने होंगे. मसलन, वे लड़कियां अब कहां हैं, जिन्होंने मीडिया के सामने आकर मसाज की बात कबूल की थी? फिर मीडिया पर भी कुछ उंगलियां उठेंगी. जैसे, क्या हरेक रिपोर्टर ने इब्राहिमपुर जाकर पड़ताल की थी?जब यह संवाददाता बालिका आश्रम में पहुंचा, तो नजारा कुछ और ही था. वहां बाकायदा सारे काम सामान्य तौर पर ही हो रहे थे. फिलहाल वहां 25 बच्चियां हैं. जिसमें से चार वयस्क हैं. वहां सात-आठ बच्चियों के अभिभावक भी थे. जब हमने बच्चियों से बात की तो उन्होंने सारी बातों से इंकार किया. उनके अभिभावकों ने भी सुर में सुर मिलाते हुए आश्रम के काम की तारीफ ही की. जब उनसे पूछा गया कि क्या उन पर किसी तरह का दबाव है, तो उन्होंने नकारात्मक जवाब दिया. वहां की एक कर्मचारी बबली ने बताया, ''मीडिया ने एकतरफा रपटें छापी और दिखाई है. हमारा पक्ष किसी ने जानने की भी कोशिश नहीं की. आप खुद बताएं अगर यहां मसाज जैसे काम होते रहे हैं, तो क्या दूसरे लोग भी अपराधी नहीं सिध्द होते? फिर महिला आयोग ने जिन बच्चियों को निर्मल छाया भेजा, आप खुद उनके कागजात देख सकते हैं. उनके साथ उनके अभिभावकों ने भी अपनी सहमति से जाने की बात लिख कर दी है. यहां आप खुद आए, तो हालात आपके सामने हैं.''बहरहाल, जब इस संवाददाता ने बाल आश्रम जाकर चीजें देखने का फैसला किया, तो उसे अंदर घुसने की अनुमति नहीं दी गई. सवाल कई हैं, जवाब अधूरे या मुकम्मल नहीं हैं. वैसे, यह कहानी किसी एक गैर-सरकारी संगठन की नहीं है. बटरफ्लाई नाम की एक संस्था में भी एक कर्मचारी के लैंगिक -शोषण और दुर्व्यवहार का मामला सामने आया है. साथ ही वहां अचानक कई कर्मचारियों की बर्खास्तगी भी विवाद का विषय है.इसी तरह ह्यूमन राइट्स लॉ नेटवर्क नाम की संस्था में एक महिला कर्मी के यौन-शोषण का मामला सामने आया है. इसी तरह जंगपुरा में (जो दिल्ली की महंगी जगहों में से एक है) भी करोड़ों रुपए की संपत्ति को लेकर एक संस्था में खींचतान जारी है. यहां विलियम केरी स्टडी एंड रिसर्च सेंटर और क्रिश्चियन इंस्टीटयूट फॉर स्टडी एंड रिलीजन के बीच तलवारें खिंची हैं. हालांकि दोनों संस्थाएं मूल रूप से एक ही हैं और एक ही व्यक्ति इनका जनक भी था. मामला यहां भी संपत्ति का ही है.बहरहाल, तालाब की सारी मछलियां गंदी ही नहीं, पर ऐसे उदाहरण इस क्षेत्र के महान उद्देश्य पर सवालिया निशान तो खड़ा कर ही देते हैं. यक्ष प्रश्न तो बचा ही रहता है, क्या ये स्वयंसेवी संगठन अपने मूल की ओर वापस लौटेंगे? क्या लोगों के कल्याण हेतु बनी संस्थाएं उसी काम में लगेंगी? या फिर, यह सिरफुटव्वल जारी रहेगी?(साभार - दी संडे इंडियन)

at 4:10 PM

5 आपकी राय:
अनिल पाण्डेय said...
jankari kabile gaur hai.
24 January, 2008 4:22 PM
कमल शर्मा said...
बेहतर रिपोर्ट। पहले मीडिया पर...मेरे ख्‍याल से सारे मीडिया वाले आश्रम नहीं गए होंगे और दिल्‍ली में ही दूसरी जगह पर बैठकर या फोन पर बात कर रिपोर्ट बनाई होगी क्‍योंकि आजकल टीवी में तो हर रिपोर्टर घोड़े पर सवार है सो उसके पास कहीं जाने का वक्‍त ही नहीं है।अब आश्रम पर। ज्‍यादातर समाजसेवक और समाज नेता आर्थिक भ्रष्‍टाचार और सेक्‍स में डूबे हुए हैं। समाजसेवा के नाम पर हर तरह से हाथ फेरने में ये लोग माहिर हो चुके हैं। सरकार को चाहिए कि जरुरतमंद लोगों का ध्‍यान रखने के लिए वह खुद संस्‍थाएं बनाएं और उनके मानक तय करें। निजी संस्‍थाओं के कर्ताधर्ता इसी तरह लड़ते हैं, पैसे खाते हैं और यौन कार्य में लिप्‍त रहते हैं। इन लोगों के बारे में यह पता लगाना चाहिए कि इनका घर कैसे चलता है जब ये कहीं नौकरी नहीं करते। केवल संस्‍थाएं चलाते हैं। हमें तो लगता है कि एक महीना नौकरी न करे तो अगले महीने घर नहीं चला पाएंगे लेकिन ये निखट्टू तो जिंदगी भर नौकरी या कारोबार नहीं करते और ऐशों आराम की जिंदगी जीते हैं। इन मक्‍कारों की आय और आयकर के बारे में जांच होनी चाहिए।
24 January, 2008 4:39 PM
उमाशंकर मिश्र said...
ashish ji , yeh ek mahtavpurn shoochna di hai aapne.... iski aur bhi padtal ki jayegi.... desh bahr me jis tarah se ngo's ki fauj khadi ho rahi hai achhi baat kahi ja sakti hai, lekin vidambana hai ki kabhi swaal nahi pooche jaate ki kya ye sansthayen apna kaam bakhoobhi nibhati hai. bundelkhand me bhi log marne lage hain.....kanha thi ye samajsevi sansthayen....iss tarah ke swaalon se ye samjsewi tilmila jate hain.... ho sakta hai... ab bundelkhand me marte huye logo ko jilane ke naam par kuchh aur ngo's ban jayen... sarkari rahnaumaon ne bhi iss field ko durgandh se bhar diya hai aur smaaj sewa ka jajba upekshit hua hai.....sharm sharm sharm
24 January, 2008 4:43 PM
राजीव जैन Rajeev Jain said...
निश्चित रूप से कुछ न कुछ घालमेल है वहां पर। अब यह छिपा हुआ नहीं है कि समाजसेवा की आड में क्‍या क्‍या होता है। कल ही हिंदुस्‍तान ने अपने ही मित्र अजीत सिंह की एक खबर प्रकाशित की है किफर्जी समाज सेवा में यूपी नंबर वन मेरठ। सत्ता प्रतिष्ठान को समाजसेवा की घुट्टी पिलाने वाली गैर सरकारी संस्थाओं का एक चेहरा यह भी है और यह है प्रोजेक्ट में अनियमितता और सरकारी धन का दुरुपयोग। इसमें उत्तर प्रदेश की संस्थाएं सबसे आगे हैं । महिला एवं बाल विकास मंत्रालय ने देश की दो हजार से ज्यादा एनजीओ को ब्लैक लिस्टेड किया है । इनमें सबसे ज्यादा 332 संस्थाएं उप्र की हैं । इन संस्थाओं पर सरकारी फंड के दुरुपयोग और दिए गए प्रोजेक्ट में अनियमितताएं बरतने का आरोप है । बार-बार चेतावनी देने के बाद भी इन अनियमितताओं पर लगाम लगती न देख महिला एवं बाल विकास मंत्रालय ने इन्हें ब्लैक लिस्टेड किया है । इन संस्थाओं के नाम मंत्रालय की वेबसाइट में डाले गए हैं । मिली जानकारी के मुताबिक सेंट्रल सोशल वेलफेयर बोर्ड इन ब्लैक लिस्टेड एनजीओ के मामलों की सुनवाई क रे गा। सुनवाई में अगर संस्थाएं खुद को सही साबित करती हैं तो उसका नाम काली सूची से बाहर निकाला जा सक ता है । ब्लक लिस्टेड एनजीओ के मामलों में राजस्थान और हिप्र की स्थिति बेह तर है । राजस्थान से 89 और हिमाचल प्रदेश से 53 एनजीओ काली सूची में हैं। मेरठ और अलीगढ¸ की 13 एनजीओज् महिला एवं बाल विकास मंत्रालय की ओर से जारी सूची के मुताबिक मेरठ की छह और अलीगढ¸ की सात एनजीओ को काली सूची में डाला गया है । इन संस्थाओं में मेरठ की सर्व इंडिया, ग्रामीण विकास मंडल, गामोद्योग विकास मंडल, ग्रामीण उत्थान संस्थान, नवीन जनकल्याण संस्थान, शीतल कौर नारी उत्थान संस्थान शामिल हैं। गौरतलब है कि हाल ही में ग्रामीण विकास पर अनुदान देने वाले संगठन के पार्टनर मेरठ की संकल्प और भोर संस्था के खिलाफ कार्रवाई क रने के निर्देश दिए थे। पिछले महीने मेरठ में ही जिला पंचायत के निर्माण कायर्ों में कोताही बरतने वाली एक संस्था के खिलाफ सिविल लाइन थाने में एफ आईआर दर्ज की गई थी। भ्रष्ट एनजीओ के टॉप फाइव गढ¸ उत्तर प्रदेश 332 मेघालय 323 तमिलनाड 304 आन्ध्र प्रदेश 287 पंजाब 223* स्‍त्रोत-महिला एवं बाल विकास मंत्रालय
24 January, 2008 5:09 PM
आशेन्द्र सिंह said...
समाज सेवा के नाम पर मसीहा बनने और राजनीति में प्रवेश करने का औजार हमारे देश में कई लोगों ने अपनाया है . कैलाश जी भी उन्ही में से एक हैं. मैंने भी उनके और उनकी श्रीमती जी के उपदेशात्मक इंटरव्यू लिये और छापे हैं ,लेकिन जब हकीकत से वाकिफ हुआ तो तथ्यगत जानकारी को आधार बना कर पानी उतरने में भी कसर नहीं छोड़ी. आप देशबंधु भोपाल (19 अप्रेल 2004 ) के सरोकार पेज पर ' ग्लोबल एक्शन वीक : बच्चों के नाम पर एक और जलसा ' पढ़ सकते हैं .

3 comments:

Ashish Maharishi said...

एनजीओ विरोधी मोर्चा के संचालक साहब
यदि इस िरपोर्ट को अपने ब्‍लॉग पर लगाने से पहले पूछ लेते तो मुझे और बोलहल्‍ला समूह को अच्‍छा लगता

शुिक्रया

आशीष महर्षि

anuradha srivastav said...

जो कुछ भी हो रहा है वो शर्मनाक है।

इष्ट देव सांकृत्यायन said...

गलती एन जी ओ की नहीं, उनकी ही जो उसका बेजा इस्तेमाल कर रहे हैं. बेजा इस्तेमाल हमारे देश में संसद और संविधान तक का हो रहा है. तोता क्या हम उनके अस्तित्व का ही विरोध करने लगें? आपका यह शीर्षक एनजीओ विरोधी मोर्चा ऐसा लगता है जैसे आप एनजीओ के होने के ही ख़िलाफ़ हैं. वैसे यह मुद्दा आपने ठीक उठाया है.

बच्‍चे उन्‍हें बसंत बुनने में मदद देते हैं !