Thursday, March 13, 2008

नींद में सपना, सपने में घर

(सतीश जायसवाल की यह कहानी सितम्बर में बीबीसी हिन्दी डॉट कॉम की कहानी पत्रिका में छपी थी। यहाँ हम लेखक तथा बीबीसी हिन्दी के प्रति आभार प्रकट करते हुए इसे इस ब्लॉग के पाठकों के समक्ष प्रस्तुत कर रहे हैं।)


अदालत के फैसले ने हाजी होटल के मालिक के होश उड़ा दिए. सुबह से भरा बैठा था और उसका सारा गुस्सा अख़बार पर था, जिसमें अदालत का फैसला छपा था. छपा था कि जिस होटल में बाल श्रमिक काम पर मिलेंगे उनको प्रत्येक बाल श्रमिक के पीछे 20 हज़ार रुपए जमा करने पड़ेंगे. कहां से आएंगे इतने रुपए? इतने में तो पूरा होटल बिक जाएगा. हाजी होटल के मालिक की सांस ऊपर-नीचे होने लगी. तभी छछूंदर उसके सामने पड़ गया.
हाजी होटल के मालिक ने ही आदम की इस औलाद का नाम छछूंदर रखा था. वह अपने घर से भागा हुआ था. इस नाम की आड़ में उसे छिपने की जगह मिल गई और पेट भरने के लिए हाजी होटल में काम मिल गया. रिश्तेदारों के साथ मिलकर उसे खोजने और घर वापस ले जाने के लिए उसके घर वाले आए थे. लेकिन उसकी तकदीर में तो बाल श्रमिक होना लिखा था.
छछूंदर के सामने न अदालत का फैसला था न फैसले को छापने वाला अख़बार था. होता भी तो क्या होता? न उसे पढ़ना आता, न लिखना. उसके सामने तो आधी रात होती है और पूरा दिन होता है. दिन भर जूठे बर्तन रात को ही मांज-धो कर रखने पड़ते हैं. इसके बिना सोने को नहीं मिलता. सुबह भी जब रात बकाया रहती है तभी उसे उठा दिया जाता है. शुरू के दिनों में तो इस तरह आधी अधूरी नींद से उठा दिए जाने पर वह रोने लगता था. बाद में धीरे-धीरे आदत पड़ गई.
छछूंदर के सामने पड़ते ही हाजी होटल का मालिक उस पर फट पड़ा. उसने हाथ में रखे अख़बार को हवा में लहराया और दहाड़ा, 'इधर आ, शैतान की औलाद'.
छछूंदर का कहीं, कोई कसूर नहीं था. फिर भी उसकी शामत आती दिखी. लेकिन इससे पहले ही वह भाग निकला.
इस बार वह दूसरी बार भाग रहा था. पहली बार वह घर से भाग था और इस बार वह हाजी की होटल से भाग रहा था. रात ठंडी थी और ओस बर्फ की तरह पड़ रही थी. वह अपने को ठंड से बचा रहा था और नींद उस पर हावी हो रही थी.
नींद में सपना था. सपने में घर था. घर, पता नहीं किसका था? फिर भी घर था. वहां मजबूत कद-काठी का एक वृद्ध था. वह पिता की तरह दिख रहा था. किसका पिता? क्या पता. बच्चे भी थे. बच्चे उसे अपने भाई-बहनों की तरह लगे. एक मां भी थी. मालूम नहीं, सगी या सौतेली. फिर भी माँ थी.
घर की फर्श गोबर से लिपी हुई थी. वहां पुआल का गरम बिछौना था और दुबक कर सो जाने के लिए रजाई भी. सपने में वह सब कुछ था, जो उसकी स्मृतियों में रहा होगा.
सपना टूटा तो वह सड़क पर था. वह किसी पराए शहर में था और उस पर धूप पड़ रही थी. वह किसी और की जगह थी जहां वह सो गया था इसलिए वे सबके सब उस पर नाराज थे. वे सबके सब गिरोहबंद थे और छछूंदर एक अकेला था. उसके बीच वह बाहर का था. तभी बाल वेश्या वहां आई और फुटपाथ पर रहने वाले उन गिरोहबंद बच्चों के साथ उसने छछूंदर की दोस्ती करा दी. फिर उसने छछूंदर से पूछा-भूख लगी है कुछ खाएगा?
उसे भूख लग रही थी. लेकिन वह स्नेह में भटक गया. बाल वेश्या किसी माँ की तरह उसका ख्याल रख रही थी. छछूंदर उससे पूछा क्या तू माँ है?
बाल वेश्या ने जवाब दिया - नहीं. अभी मैं छोटी हूं. थोड़े दिन में बन जाऊंगी.
उसने छछूंदर को एक रहस्य की बात बताई- मैं जानती हूं कि माँ कैसे बनती है.
छछूंदर का मन भी उस रहस्य को जानने के लिए हुआ. लेकिन बाल वेश्या ने उसे बताया वहां मेरी फ़िल्म चल रही है.
वहां प्रशासनिक भवन था और उसके सेमिनार हाल में बाल वेश्या की फ़िल्म चल रही थी. फ़िल्म को देखने के लिए दूर-दूर से लोग आए थे. लेकिन छछूंदर को विश्वास नहीं हो रहा था. बाल बेश्या ने जोर देकर कहा-‘भरोसा नहीं हो रहा है ना? तो भीतर जाकर खुद देख ले.’
दोनों को मालूम था कि भीतर नहीं जा सकते. भीतर बड़े लोग थे और बड़ी बातें हो रही थीं. बाल वेश्या बाहर थी और भीतर उसकी फ़िल्म दिखाई जा रही थी. बाल बेश्या अपनी कहानी बता रही थी. फ़िल्म में जो दिखाया जा रहा था वह उसके साथ सचमुच में हुआ था.
प्रशासनिक भवन के भीतर चल रहे सेमिनार में बाल अधिकारों पर चर्चा हो रही थी. इसलिए वहाँ दिखाई जा रही फ़िल्म में भी बाल वेश्या थी. वे सबके सब बाल वेश्या के लिए चिंताएं कर रहे थे. लेकिन बाल वेश्या सबकी चिंता कर रही थी. फुटपाथ पर वाले उन सबके साथ छछूंदर की भी चिंता कर रही थी. छछूंदर उनके बीच नया था और भूखा था. बाल वेश्या ने उसे धीरज बंधाया-थोड़ा रूक. जब ये लोग खाकर चले जाएंगे तो हमको खाना मिलेगा.’
वहां भोजन था और बाल वेश्या को पता था कि भीतर, उसकी फ़िल्म देख रहे और उस पर चिंता कर रहे लोग खाते कम हैं और छोड़ते अधिक हैं.
पता नहीं वे लोग खाने के लिए कब आएंगे?
फुटपाथ पर रहने वाले बच्चों को भूख लग रही थी. अपनी भूख को भुलाने के लिए उन सबने मिलकर एक खेल खोज लिया. वहां पोस्टरों की सजावट थी और पोस्टरों में दुनिया भर के बाल श्रमिकों के चित्र थे. फुटपाथ पर रहने वाले बच्चों ने पहले तो इन चित्रों की खिल्ली उड़ाई. लेकिन जब उधर से कोई प्रतिक्रिया नहीं हुई तो इधर से दोस्ती की पहल हुई. इस पर भी जब कोई बात नहीं बनी तो वे सब मिलकर गालियां बकने लगे.
छछूंदर को कुछ समझ में नहीं आया कि ऐसे में उसे क्या करना चाहिए. अब तक तो उसने गालियां सुनी भर थी. लेकिन अब वह गालियां बकने वालों की तरफ था. फिर भी वह अलग था. तभी एक अक्षर यात्री उधर से गुजरा. उसके कंधे पर अक्षर छाप झोला था और वह साक्षरता कार्यक्रम का एक स्वयंसेवक था.
सेवा के बदले में उसे एक अक्षर छाप झोला और अक्षर यात्री का नाम मिला था. वह एक प्रतिबद्ध कार्यकर्ता था और निरक्षरों को साक्षर बनाने का काम उसने धर्म-भाव से अपनाया था. उसने अक्षरों के साथ अनाचार होते देखा तो वहीं रुक गया. उसे लगा कि यहां उसकी ज़रूरत है. उसने नारा लगाया-‘जय अक्षर.’
थोड़ी देर पहले गालियां बक रहे, फुटपाथ के बच्चों ने उसके साथ मिलकर नारा लगाया- जय अक्षर...’
उनको कुतूहल हो रहा था कि अक्षर की भी जैकार की जा सकती है? उन्होंने मिलकर दोहराया जय अक्षर...’
अक्षर यात्री का काम हो रहा था. लेकिन भीतर विघ्न पड़ने लगा. भीतर से स्टेट प्रोग्राम डायरेक्टर निकलकर बाहर आए. उन्हें आशंका हुई कि कोई ऐसी बात तो नहीं, जिसे बाहर से भीतर नहीं जाना चाहिए? उनकी नजर अक्षर यात्री पर पड़ी और वे संतुष्ट हो गए कि चिंता की कोई बात नहीं. उन्होंने अक्षर यात्री से पूछा- स्ट्रीट एज्युकेटर हो?
अक्षर यात्री ने जवाब दिया - वह तो आप देख ही रहे हैं. आप यह भी देख रहे हैं कि मैं क्या काम कर सकता हूँ.’ अब उसने काम की बात की- मैं भी सेवा करना चाहता हूं. विश्व के बाल श्रमिकों के लिए कुछ करना चाहता हूँ.
स्टेट प्रोग्राम डायरेक्टर ने कहा – देखेंगे. फंड आने वाला है. तब तक इसे देखो और पढ़ो.’
उन्होंने बाल श्रमिकों की रिपोर्ट अक्षर यात्री के हाथ में रख दी और बताया-‘यह बच्चों के अधिकार का धर्म-ग्रंथ है. इसके अनुसार दुनिया के बाल श्रमिक सभी निरक्षर होते हैं.
अक्षर यात्री ने आंखें मूंदकर उस धर्म-ग्रंथ को माथे लगाया. फिर उसने आंखें खोलकर देखा. धर्म-ग्रंथ की जिल्द पर एक बाल श्रमिक का चित्र है. चित्र में ढेर सारी गेंदें हैं और उनके बीच एक बाल श्रमिक- आंखे मूंदे सो रहा है. ये गेंदे अक्षर यात्री को बारूद के ऐसे गोलों की तरह लगीं जिनमें अब बारूद नहीं है. तभी तो, इनके बीच एक बाल-श्रमिक इतना निशंक और सुरक्षित है.
छछूंदर को वह बाल-श्रमिक बिल्कुल अपनी तरह लगा. छछूंदर को लगा कि वह भी अपने घर से भागा हुआ होगा और भूखा होगा. हो सकता है कि वह भी कोई सपना देख रहा हो. सपने में घर हो, खाना हो और नींद हो...

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