यह उल्लेखनीय है कि दक्षिण एशिया के संदर्भ में जाति प्रथा सामंतवाद का महत्वपूर्ण तत्व है। सामंती तथा साम्राज्यवादी दोनों ताकतें अपने फायदे में जाति व्यवस्था का इस्तेमाल करती हैं। सामंती ताकतें जाति व्यवस्था को धर्मों को आपस में तथा धर्म के भीतर वर्गों को आपस में लड़ाने के लिए इस्तेमाल करती हैं। साम्राज्यवादी ताकतें दलित मुद्दे का इस्तेमाल उत्पीड़ित जनता को विभाजित करने में करती हैं। वे जाति व्यवस्था को अक्षुण्ण रखते हुए इसे पृथक पहचान रूप में रेखांकित करती हैं और आर्थिक उदारीकरण को सभी समस्याओं का हल बताती हैं।उत्पीड़क शासक वर्ग शोषितों की तुलना में बहुत ज्यादा वर्ग चेतन होते हैं क्योंकि उन्हें एक विशाल आबादी पर शासन करना होता है। ऐसा वे शोषित वर्गों को बांट कर तथा उनमें से कुछ को एनजीओ के माध्यम से रोटी का टुकड़ा फेंककर करते हैं। जो समुदाय जितना ज्यादा गरीब होता है, उनके लिए एनजीओ को उतना ही ज्यादा फंड आवंटित कराया जाता है। इसलिए दलित मुद्दे तथा दलितों के भीतर दलित औरतों के मुद्दे एनजीओ तथा अंतर्राष्ट्रीय एनजीओ के लिए खूब बिकाऊ होते हैं। इन सभी योजनाओं का उद्देश्य दलितों के वर्गीय चेतना को कुंद करने के लिए क्रांतिकारी कम्युनिस्टों को उनसे दूर रखना होता है। ऐसा करने के उनके विभिन्न तरीके हैं।दलितों को ब्राह्मण-विरोधी, मनु-विरोधी तथा ओबीसी-विरोधी के रूप में इतना ज्यादा प्रचारित किया जाता है कि दलित पहचान संकीर्णतावादी चरित्र ग्रहण कर लेता है। ब्राह्मण संस्कृति से लड़ने के नाम पर वह दलित ब्राह्मणवाद व्यवहृत करने लगता है जिसके तहत अपनी पहचान खोने के डर से दलित स्त्री -पुरूषों को दूसरी जातियों, धर्मों तथा समुदायों में विवाह करने से रोकते हैं। उत्पादन संबंधों एवं दलितों-गैर-दलितों के बीच सांस्कृतिक संबंधों के सामंती चरित्र पर चोट करने की जगह राष्ट्रीय/अंतर्राष्ट्रीय एनजीओ गैर-दलितों के साथ झगड़ों से बचने के नाम पर अलग पानी का नल, मंदिर, समुदायिक भवन आदि बनाकर उनके अलगाव को और ज्यादा बढ़ावा देते हैं। दलितों में एकता मजबूत करने के लिए विभिन्न दलित जातियों का जमात बनाने की जगह वे अलग-अलग दलित जाति का अलग संगठन बनाने के लिए प्रोत्साहित करते हैं और फिर ज्यादा-से-ज्यादा फंड पाने के लिए उनमें प्रतियोगिता पैदा करते हैं। इसका परिणाम होता है कि अपेक्षाकृत शिक्षित और उन्नत दलित जातियां ज्यादा फंड पाने में सफल होती हैं, जिससे दलितों के बीच विभाजन होता है। इस पूरी प्रक्रिया के दौरान मध्यवर्गीय अवसरवादी दलित नेता भी तैयार किये जाते हैं जिनका इस्तेमाल संसदीय राजनीति के तहत वर्गीय शासन को चलायमान रखने के लिए किया जाता है।कई राष्ट्रीय अंतर्राष्ट्रीय एनजीओ हिन्दू फासिस्टों के साथ मिलकर साम्प्रदायिक दंगे भी भड़काते हैं। भारत में गुजरात के गोधरा में २००२ में हिन्दू-मुसलमानों के बीच जो दंगे हुए वह इसका एक उदाहरण है। ऐसा पाया गया कि कई हिन्दू फासिस्ट एनजीओ दलित पहचान के संकट को उनमें मुसलमानों से भय तथा उनके खिलाफ हिंसा करने के लिए प्रेरित करने में इस्तेमाल करते हैं।
सीपीएन (माओवादी) के मुखपत्र "द वर्कर" की लेखमाला "जन युद्ध और दलित प्रश्न" के जन विकल्प द्वारा अनूदित एवं प्रकाशित आलेख से कुछ अंश साभार
Saturday, April 26, 2008
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