शुक्रवार, 19 जनवरी, 2007
डॉ. जेकब पुलियन
अब यह स्वीकार किया जा रहा है कि राष्ट्रीय पोलियो उन्मूलन अभियान योजना के मुताबिक नहीं चल पाया है । हममें से कई लागों ने इसे सफल बनाने में दिन-रात एक कर दिए । पोलियो (जो कि मूलत: पानी और स्वच्छता से सम्बंधित समस्या है) पर काबू में करने में बार-बार ओरल (मुंह से दिये जाने वाले) पोलियो टीके के जादुई नुस्खे की नाकामी काफी हद तक पूर्व अनुमानित ही थी । मगर इसके कारण हमारी मायूसी कम नहीं हो जाती । इण्डियन मेडिकल एसोसिएशन की टीकाकरण उपसमिति में इस बात पर काफी बहस हुई कि इस प्रयास की असफलता की बात को सार्वजनिक किया जाए या नहंी । अंतत: अगस्त २००६ में उपसमिति ने फैसला किया कि इस बात को सार्वजनिक करना उसका फ़र्ज है ।
सार्वजनिक करना जरुरी -
राष्ट्रीय ज्ञान आयोग के वर्तमान उपाध्यक्ष डॉ। पुष्पा भार्गव ने १९९९ में यह लेख लिखा था- फाइटिंग दी पोलियो वायरस । यह लेख हिंदू के १२ दिसम्बर १९९९ के अंक में प्रकाशित हुआ था। १९८८ में डॉ. भार्गव एक बैठक में शरीक हुए थे जहां यह फैसला हुआ था कि भारत में पोलियो के इंजेक्शन टीके का उपयोग किया जा चाहिए क्योकि ओरल पोलियो टीके की कारगरता कम है । पोलियो का इंजेक्शन टीका बनाने के लिए गुड़गांव में एक कारखाना भी स्थापित किया गया था। चार वर्षों के बाद १९९२ में , विश्व स्वास्थ्य संगठन की सलाह पर इस योजना को ठंडे बस्ते मंे डाल दिया गया और ओरल पोलियो टीका इस्तेमाल करने का निर्णय ले लिया गया । डॉ. भार्गव ने तत्कालीन प्रधानमंत्री श्री नरसिंह राव , स्वास्थ्य मंत्री तथा स्वास्थ्य सचिव को कई पत्र लिये । डॉ. भार्गव उस निर्णय में शरीक थे जिसमें कहा गया कि ओरल पोलिया टीका भारत के लिये अनुपयुक्त है । लिहाज़ा उन्होंने यह जानना चाहा था कि किन प्रमाणों के आधार पर सरकार ने ओरल टीके का उपयोग करने का निर्णय लिया है । उन्हेांने यह भी जानना चाहा था कि इण्डियन वेक्सीन कॉर्पोरेशन लिमिटेड ने इंजेक्शन टीका उत्पादन के लिये जो ५० करोड़ रुपए का निवेश किया है उसका क्या औचित्य रह जाएगा । उनके पत्रों के जवाब नहीं दिए गए । अंतत: उन्होंने एक लेख लिखा । अपने लेख में उन्होंने निष्कर्ष स्वरुप कहा था- यदि निर्विवाद रुप से यह बताया जा सके कि ओरल पोलियो टीका कारगर रहा है, तो सबसे ज्यादा खुशी व तसल्ली मुझे मिलेगी । बदकिस्मती से आज उपलब्ध प्रमाण इस मत के विरुद्ध जाते हैं । इसलिए संभावना यही दिखती है कि कीमती समय और धन गंवाने के बाद पोलियो की नियति वही होगी जो बीसीजी (टीबी के टीके) की हुई थी। आने वाले दिनों के घटनाक्रम ने इस वक्तव्य की सत्यता को साबित किया है ।
सार्वजनिक जवाबदेही-
उक्त लेख का शुक्र है कि हमारे पास कुछ लिखित इतिहास मौजूद है । ज़रुरत सार्वजनिक जवाबदेही की है और यह बात विश्व स्वास्थ्य संगठन के बेशक्ल अफसरों पर और भारत सरकार के उन अधिकारियों पर भी लागू होती है जिनका ज़िक्र उस लेख में हुआ था । यह तो संभव है कि विवेक के आधार पर लिए गए निर्णय गलत हो सकते हैं मगर जब तक इस बात को स्वीकार नहीं किया जाता तब तक हम ये गलतियां बार -बार दोहराते रहेंगें ।
इण्डियन मेडिकल एसोसिएशन की उपसमिति के सामने भी वही दुविधा थी जो डॉ. भार्गव के सामने थी । उपसमिति वेक्सीन - प्रेरित पोलिया के मामलों की बढ़ती संख्या (पिछले साल १६००) से चिंतित थी। ये मामले पोलियो टीके की बार-बार दी जाने वाली खुराकों के कारण सामने आ रहे थे । इससे भी ज्यादा चिंता की बात यह थी कि २७००० बच्चे पोलियोनुमा लकवे के शिकार हुए थे जिनमें मल में पोलियो वायरस का संवर्धन नहंी हुआ था । सरकार तो यह जांच करवाने को भी तैयार नहीं थी कि इन बच्चों में से कितनों में अपंगता शेष रही थी। इस बात के पुख्ता प्रमाण थे कि कई ऐसे बच्चों को पोलियोजनित लकवा हो रहा है जिनका टीकाकरण हो चुका है । इससे जाहिर था कि टीका कारगर नहीं है । जब अफसरशाही ऐसी हो जो समस्या के वजूद को भी मानने से इंकार करे, तो उपसमिति के सामने इस मखौल का भंडाफोड़ करने के अलावा काई चारा न था ।
यह अच्छी बात है कि इस सरकार ने खबरची को बुरा-भला कहने और इण्डियन मेडिकल एसोसिएशन को नीचा दिखाने के प्रयास शुरु नहंी किए । मगर बदकिस्मती से सरकार की प्रतिक्रिया यह रही कि उसने एक और कार्यक्रम शुरु कर दिया है जो इस स्थिति को सुधारने के बजाए और बिगाड़ेगा ।इस लेख का समापन हम इस तरह के हवाई किले से बचने का उपाय सुझाने के साथ करेंगें ।
बड़े मुद्दों पर जाने से पहले पाठक शायद उस बीमारी को समझना चाहें जिसके कारण यह गोरखधंधा शुरु हुआ था । पोलियो एक वायरस है जो लकवा पैदा कर सकता है । यह वायरस आंतों में पलता बढ़ता है और दूषित पानी के माध्यम से फैलता है । पानी और शौच व्यवस्था की स्थिति में सुधार से इस बीमारी पर काबू पाया जा सकताह । इसके अलावा सामान्य टीकाकरण से इसके उन्मूलन में मदद मिलेगी। सामान्य टीकाकरण के साथ पोलिया नियंत्रण कार्यक्रम बढ़िया चल रहा था । १९८८ में पोलियो का प्रकोप २४००० था जो १९९४ में घटकर ४८०० रह गया था । यह पल्स पोलियो शुरु होने से बहुत पहले की बात है ।
१९९८ में विश्व स्वास्थ्य संगठन और अन्य अंतर्राष्ट्रीय संस्थाआें ने पोलियो टीका बार-बार पीलाकर दुनिया भर में इस बीमारी का सफाया करने की योजना लागू की । शुरुआती फंडिंग, करीब ४०० करोड़ रुपए, अंतर्राष्ट्रीय संस्थाओं (रोटरी अंतर्राष्ट्रीय समेत) से आया था । यह तो जैसे अपरिहार्य था कि कार्यक्रम शुरु होने के दो साल बाद इन संस्थाआें ने दानदाता थकान (डोनर फटीग) की दुहाई देकर फंडिंग बंद कर दिया । पिछले वर्ष भारत सरकार ने इस कार्यक्रम पर १००० करोड़ रुपए खर्च किए थे । शेष समस्त टीकाकरण (पांच बीमारियांे के लिये) पर खर्च ३०० करोड़ रहा। यह विदेशी फंडिंग काएक पेटर्न सा है ।
अंतर्राष्ट्रीय फंडिंग मिल रही हो और सरकार अपने लोगों के लिए पेश किए जा रहे दान को लेने से इंकार करे तोयह बेवकूफी सी नजर आती है । एक बार विदेशी फंडिंग के आधार पर कार्यक्रम शुरु होन जाने पर विदेशी सहायता रोक दी जाती है ।गरीब देश इस चाल में फंस जाते हैं और बगैर जरुरी लाभ-लागत आकलन के ही टीके देना शुरु हो जाता है ।
हम नहंी जानते कि विदेशी फंडिंग की पेशकश ने इस निर्णय पर कितना असर डाला था मगर तथ्य यह है कि परिणाम यह रहा कि भारत सरकार को एक ऐसे कार्यक्रम के लिए अभूतपूर्व वित्त व्यवस्था करनी पड़ी है, जिसकी नाकामी तय थी ।
सबक नहीं सीखे गए
मगर दु:ख की बात यह है कि हमने अपनी गलतियों से कोई नसीहत नहीं ली है । ओरल पोलियो टीके पर आधारित पोलियो उन्मूलन रणनीति के नाकाम रहने के बाद सरकार ने एक और विदेशी पेशकश स्वीकार कर ली है जिसमें उच्च प्रकोप वाले क्षेत्रों के लिये इंजेक्शन टीका मुफ्त दिया जाएगा ।
यह आयातित इंजेक्शन टीका ओरल टीके से २५ गुना ज़्यादा महंगा है। लगभग अवसान (एक्सपायरी) की तारीख वाले टीकों की एक खेप मुफ्त दी जा रही है मगर हम अपना राष्ट्रीय टीकाकरण कार्यक्रम इसके आधार पर तो नहीं चला सकते । इसके अलावा इस टीके को घर-घर जाकर लगाने की लागत भयावह होगीं यदि यह पैसा उन क्षेत्रों में पेयजल व शौच व्यवस्था को सुधारने में लगाया जाए तो इस समस्या का स्थायी समाधान निकल सकता है । इंजेक्शन टीका सब बच्चों को देना जरुरी होगा । जब हम ओरल टीका शत प्रतिशत बच्चों को नहीं दे सके हैं, तो इंजेक्शन का प्रतिशत तो और भी कम रहेगा । यानी एक बार फिर असफलता शर्तिया है ।
दरअसल, इंडियन मेडिकल एसोसिएशन की उपसमिति ने सुझाव दिया है कि सरकार इस पूरे अभियान को थोड़ा धीमा करे और सामान्य टीकाकरण को सुदढ़ करने के अलावा प्रभावित क्षेत्रों में पानी व शौच व्यवस्था में सुधार के कदम उठाए । टीकों को शामिल करने या न करने के बारे में पेचीदा निर्ण तक पहुंचने के लिए हमें कोई स्थायी व्यवस्था बनानी होगी । यह व्यवस्था यू.के. के नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ क्लिनिकल एक्सलेंस जैसी कोई स्वतंत्र संस्था हो सकती है । स्वास्थ्य पेशेवरों, तकनीकी विशेषज्ञों, स्वास्थ्य के अर्थशास्त्रियांे और जनप्रतिनिधियों की एक पेशेवर संस्था बनाई जानी चाहिए । सरकार विचाराधीन टीके का प्रचार करे । मरीजों के समूह, स्वास्थ्य पेशेवर, अकादमिक संस्थान, टीका उद्योग, ट्रेड यूनियन्स और विश्व स्वास्थ्य संगठन व ग्लोबल वेक्सीन इनिशिएटिव जैसे सारे हितधारी अपने-अपने हित सामने रखें ।
उक्त संस्था को टीके से संबंधित चिकित्सकीय प्रमाण और उसके लाभों के आर्थिक पक्ष का आकलन करके दिशानिर्देशों का मसौदा तैयार करना चाहिए, जिसका आकलन सारे पंजीकृत हितधारी और एक नागरिक परिषद द्वारा किया जाना चाहिए । इनकी राय के आधार पर निकाय को दिशानिर्देशों में संशोधन करना चाहिए। अंतत: एक स्वतंत्र पैनल को इन्हें देखकर यह तसल्ली कर लेना चहिए कि सारे हितधारियों के हितों को इनमंे स्थान मिल गया है । इसके बाद अंतिम दिशानिर्देश जारी किए जाएं ताकि सरकार को निष्पक्ष सलाह मिल सके जिसके आधार पर वह निर्णय कर सके ।
पर्यावरण डाइजेस्ट से साभार
Friday, April 4, 2008
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1 comment:
बन्धुवर बढिया काम कर रहे हो, शुभकामनायें.
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