Saturday, February 16, 2008

आईएमएफ और विश्वबैंक क्या हैं?

प्रस्तुति- मीनाक्षी अरोड़ा
आईएमएफ और विश्वबैंक दुनिया के सबसे अमीर जी-7 के देशों -अमरीका, ब्रिटेन,जापान,जर्मनी, फ्रांस, कनाडा और इटली की सरकारों द्वारों नियंत्रित होते हैं, इन संस्थाओं के बोर्ड पर 40 फीसदी से भी ज्यादा नियंत्रण धनी देशों का ही रहता है। इनका काम तथाकथित 'तीसरी दुनिया' या ग्लोबल साऊथ के देशों और पूर्व सोवियत ब्लॉक की 'संक्रमणकालीन अर्थव्यवस्था' पर अपनी आर्थिक नीतियों को थोपना है।
एक बार देश इन बाहरी कंर्जो के चुंगल में फंस जाते हैं तो उन्हें फिर कहीं कोई क्रेडिट या कैश नहीं मिलता, जैसे अधिकांश अफ्रीका, एशिया, लातिन अमरीका और कैरेबियाई देश कर्जे में फंसे हैं तो वे इन्हीं अन्तरराष्ट्रीय संस्थाओं के पास जाने के लिये मजबूर हो गए हैं नतीजतन उन्हें वे सब शर्तें माननी पड़ती है, जो बैंक करने के लिये कहता है कोई भी देश कर्जे की समस्याओं से उबर नहीं पाया है, बल्कि बहुत से देशों की हालत तो पहले से भी बदतर हो गई है, विश्वबैंक-आईएमएफ से सहायता लेने के बाद तो कर्ज और भी बढ़ गया है।
ढांचागत समायोजन कार्यक्रम (सैप- स्ट्रक्चरल एडजेस्टमेंट प्रोग्राम)आईएमएफ-विश्वबैंक की शर्तों को ही ''ढांचागत समायोजन कार्यक्रम'' के नाम से जाना जाता है (हालांकि ये संस्थाएं इस शब्द की नकारात्मक स्थिति से बचने की कोशिश में लगे हैं, इसलिये इसका नाम बदलकर 'गरीबी घटाने और विकास का कार्यक्रम' किया गया है!) यह कार्यक्रम देशों को मजबूर करता है कि वे धनी देशों को निर्यात करें और ऊंचे मुनाफे वाले विदेशी निवेश करने की सुविधा दें। अन्तरराष्ट्रीय व्यापार में बढ़ोतरी यानी कारपोरेट ग्लोबलाइजेशल में 1980 के दशक में ढांचागत समायोजन कार्यक्रमों को थोपने की प्रवृत्ति अपनाई गई क्योंकि कम्पनियां और निवेशकों ने अपने अधिकारों और सुरक्षा की मांग की, उनको सरकारों द्वारा सम्पत्ति के जब्त होता या नए नियमों के लादे जाने का खतरा महसूस हो रहा था। इन मांगों के जवाब में ही 1995, में डब्ल्यूटीओ की स्थापना की गई, यह एक ऐसी संस्था है। जिसकी गुप्त एजेंसिया, कंपनियों के अधिकारों के रास्ते में आने वाले हर राष्ट्रीय कानून को गैरकानूनी या निरस्त घोषित कर देती हैं।
सर्वोत्त्तम रूप में विश्वबैंक को एक ऐसी संस्था के रूप में जाना जाता है जो आर्थिक विकास में सहायक बड़ी परियाजनाओं जैसे- बांधों, सड़कों और पावर प्लांटों आदि के लिये वित्तीय सहायता उपलब्ध कराती हैं। लेकिल जो प्राय: पर्यावरणीय विनाश और सामाजिक भटकाव से भी सम्बन्धित है। आईएमएफ और इसकी अधिकांश सहायता उन कार्यक्रमों को जाती हैं जिनमें 'सुधार' के नाम पर आर्थिक नीतियों द्वारा गरीबों का गला घोंटकर कम्पनियों को लूट के लिये छूट दी जाती है। हालांकि पूर्वी एशिया में आए आर्थिक संकट के कारण आईएमएफ की काफी-कुछ आलोचना हुई है(इसने दक्षिण कोरिया, इंडोनेशिया और थाईलैंड पर अपने विकास कार्यक्रम लाद दिये थे) ज्यादा नुकसान अर्जेंटीना में हुआ, फिर भी दोनों संस्थाएं पूरे विश्व की अर्थव्यवस्था पर काबिज होने के लिये लगभग 90 देशों की अर्थव्यवस्थाओं को राजनीतिक और व्यवसायिक एलीट वर्ग के जरिये, नियंत्रित करने में जुटी हुई हैं।
ये देश इनकी नीतियां अपनाने के लिये मजबूर हैं खासतौर पर लोक कल्याणकारी कार्यों में राज्य की भूमिका कम करने और नियमों को हटाने के लिये बाध्य हैं। इन नीतियों को शुरू करने के साथ ही कमजोर देशों पर विपरीत प्रभाव पड़ने लगे। ''बाजार की सफलता'' की जो कहानियां हमने पढ़ीं कि ये पूंजी पैदा करते हैं, वह तो जनसंख्या के एक छोटे से भाग को ही जाती है और उसमें से भी गरीबी की मार झेल रही हैं, बुनियादी सेवाएं तक उन्हें नहीं मिल पाती, अपनी ही अर्थव्यवस्थाओं पर उनका नियंत्रण खोता जा रहा है।‘सैप’ कारपोरेट और एलीट के लिये काम करता है:आईएमएफ और विश्वबैंक द्वारा बनाए गए ढ़ांचागत समायोजन कार्यक्रम (सैप) क्यों और कैसे बहुराष्ट्रीय कंपनियों की सुविधा के लिये आवश्यक ऐसी परिस्थितियों का निर्माण करते हैं, जिन्होंने दक्षिणी के देशों के ज्यादातर लोगों को उजाड़ दिया है? सैप की परिस्थितियों पर एक नजर डालें तो मालूम होगा कि एक बहुसंख्यक आबादी की कीमत पर धन्नासेठों के हितों का पोषण करने के लिये कैसे आर्थिक 'सलाह' का इस्तेमाल किया जाता है।
सैप के लिये देश हामी क्यों भरते हैं?सैप कई रूपों में प्रजातंत्र -विरोधी हैं। संस्थाएं ठीक ही कहती हैं कि सरकारें इन योजनाओं से सहमत हैं। लेकिन इन योजनाओं में शामिल सरकारी अधिकारी आमतौर पर वित्त मंत्रालय और केन्द्रीय बैंक तक ही सीमित हैं जो रूढ़िवादी, उत्तर में शिक्षित और सरकार के सबसे धनी सदस्यों में से होते हैं- यानी दूसरे शब्दों में कहें तो उनमें से अधिकांश आईएमएफ की आर्थिक नीतियों से सहमत और लाभाविन्त ही होते हैं। दस्तावेजों पर हस्ताक्षर करने वाले आधिकारियों का नजरिया चाहे कुछ भी हो, लेकिन इन सबसे बाध्यता जरूर होती है। शक्ति समीकरण बहुत सरल है: अगर कर्जदार देश ढांचागत समायोजन कार्यक्रम (सैप) योजना से सहमत नहीं है, तो इसे 'ग्लोबल इकॅनोमी ' से अलग कर दिया जाएगा – क्रेडिट (साख), सहायता, कर्ज सब कुछ बंद कर दिया जाएगा- फिर भी दूसरे अन्य कई कर्जदार आईएमएफ और विश्वबैंक का नेतृत्व स्वीकारने की लाइन में लगे हैं।
''शॉर्ट टर्म पेन फॉर लोंग टर्म गेन'' का नारा खोखला लगता है, जब इसे सारी पीढ़ीयों के लिये कहा जाता है। ऐसी बेकार नीतियों के साथ कोई विरली सरकार ही अपने लोगों को ढांचागत समायोजन कार्यक्रम देना चाहेगी, खासतौर पर तब जबकि 25 साल के लम्बे समय में हम देख चुके हैं कि थोड़े समय की यह पीड़ा कभी खत्म नहीं होती और लाभ तो कभी शुरू ही नहीं होते। सैप प्रजातान्त्रिक देशों की प्रतिनिधि सरकारों को ऐसे मानक अपनाने को मजबुर कर अस्थायित्व पैदा कर देते हैं जिससे जनता में सरकार की वैधता कम हो जाए। ऐसा भी तर्क दिया गया है कि आईएमएफ प्रजातान्त्रिक देशों में तानाशाही पसंद करता है क्योंकि तानाशाह सैप को ज्यादा सफलतापूर्वक लागू कर सकते हैं और एक बार नियम लागू हो गए तो डब्ल्यूटीओ प्रजातंत्र पर प्रहार करता है इसके लिये वह कम्पनियों के मुनाफे के अधिकार के रास्ते में आने वाले हर नियम को निरस्त करवा देता है।
यह सच है कि वाशिंगटन में स्थित ये संस्थाएं जो अमरीकी ट्रेजरी डिपार्टमेंट द्वारा नियंत्रित होती हैं पिछले दो दशकों से दुनिया की बहुसंख्यक आबादी को भूखा मार रही हैं। अमरीका के लोग इस सच्चाई से पूरी तरह वाकिफ हैं कि यह अब एक कलंक बन गई है। यह व्यवस्था उनके लिये अच्छी है जिन्हें इससे मुनाफा हो रहा है।
दुनिया में कहीं भी रहने वाले व्यक्ति को यह जानने के लिये कि यह व्यवस्था कैसे काम करती है, पचास सालों का समय बहुत होता है। इस व्यवस्था के अन्याय के खिलाफ आवाज उठाकर हम व्यवस्था को बदल सकते हैं जो अमीर को और ज्यादा अमीर बना रहा है और उजड़े और कमजोर को और ज्यादा मार रहा है।
पीएनएन हिन्दी से साभार

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