ग़ैर सरकारी संगठन शब्द वास्तव में स्वनामधारी नहीं है। ग़ैर सरकारी संगठनों को विभिन्न साम्राज्यवादी एजेंसियों, साम्राज्यवादी सरकारों और दलाल शासनों द्वारा वित्तीय सहायता दी जाती है और निर्देशित किया जाता है। वे जनता और सरकार के बीच एक कड़ी का काम करते हैं। वे वो माध्यम हैं जिनके द्वारा शासक वर्ग सिविल सोसाइटी की राय को प्रभावित करता है। वे साम्राज्यवादी पूँजी के सेवक हैं। लगभग सभी ग़ैर सरकारी संगठन साम्राज्यवादियों के अदृश्य हाथों द्वारा निर्देशित होते हैं जो अपने रणनीतिक उद्देश्यों के अनुसार उन्हें खड़ा करते हैं और वित्तीय सहायता देते हैं। अतः विकास, सामाजिक न्याय, मानवाधिकार, जमीनी जनवाद आदि के नाम पर ग़ैर सरकारी संगठनों की जेब में भारीभरकम धनराशि डाल दी जाती है। पिछले दशक में विश्व बैंक और अन्य राष्ट्र संघ एजेंसियाँ इस बात पर ज़ोर डाल रही हैं कि ग़ैर सरकारी संगठनों के माध्यम से ही फंड का इस्तेमाल होना चाहिए। विभिन्न सरकारें ऐसा ही कर रही हैं। इस भारीभरकम धनराशि के साथ ग़ैर सरकारी संगठन कुलीन संगठनों के जैसा काम करते हैं, जो जनता से पूरी तरह कटे हुए होते हैं। इसके बावजूद वे स्वयं को जनता के हित में काम करने वाले के रुप में दिखाते हैं। अनुमान है कि आबंटित साम्राज्यवादी फंड का मुश्किल से १०-१५ प्रतिशत ज़रूरतमंद लोगों के पास पहुँचता है जबकि इसका ज़्यादातर भाग ग़ैर सरकारी संगठनों के रख-रखाव पर और तथाकथित स्वयंसेवक कार्यकर्ताओं के खर्चों को चलाने में ही चला जाता है। गर सरकारी संगठन जिस प्रकार का काम करते हैं उसके आधार पर उन्हें तीन श्रेणियों में बांटा जा सकता है। ग़ैर सरकारी संगठनों की पहली श्रेणी में वे संगठन आते हैं जो युद्ध, प्राकृतिक आपदाओं, दुर्घटनाओं आदि के शिकार व्यक्तियों को फौरी राहत उपलब्ध करवाते हैं। दूसरे विश्वयुद्ध के बाद यूरोपीय पुनर्निर्माण के समय तक इस प्रकार के ग़ैर सरकारी संगठन ही सबसे प्रमुख थे।
गैरसरकारी संगठनों की दूसरी श्रेणी अपना ध्यान दीर्घावधि के सामाजिक और आर्थिक विकास पर केन्द्रित करती है। वे १९६० के दशक में यूरोप में प्रमुख रुप से उभरे। तीसरी दुनिया के देशों में इस प्रकार के ग़ैर सरकारी संगठन तकनीकी प्रशिक्षण देने में, स्कूलों, हस्पतालों, शौचालयों आदि के निर्माण में लगे हुए हैं। वे आत्मनिर्भरता, स्थानीय उत्पादक संसाधनों के विकास को, ग्रामीण बाज़ार के विकास को, विकास गतिविधियों में जनता की भागीदारी को प्रोत्साहित करने का दावा करते हैं। वे स्वयं सहायता समूहों, छोटे पैमाने की क़र्ज़ देनेवाली संस्थाओं आदि को बढ़ावा देते हैं।
ग़ैर सरकारी संगठनों की तीसरी श्रेणी सामाजिक कार्रवाइयों पर ध्यान केन्द्रित करती हैं। वे जनता की क्षमताओं को मजबूत करने की, उनमें अन्तर्निहित संभावनाओं को तलाशने की, जनता की सामाजिक चेतना को बढ़ाने की, पूर्व पूंजीवादी व्यवस्थाओं के प्रभाव से उबरने की बात करते हैं। ये ग़ैर सरकारी संगठन विश्व बैंक, अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष, विश्व व्यापार संगठन और अन्य संयुक्त राष्ट्र की एजेंसियों के साथ समझौता करते हैं और सुधारों की वकालत करते हैं, जनता को शांतिपूर्ण ढंग से लामबंद करते हैं और इन साम्राज्यवादी एजेंसियों तथा सरकारों पर सुधार लाने और नीतियों में बदलाव लाने के लिए दबाव बनाते हैं।
ग़ैर सरकारी संगठनों की पहली श्रेणी में मुख्यतः ईसाई धार्मिक संस्थान जैसे कि चर्च आदि आते हैं। यद्यपि ये ग़ैर सरकारी संगठनों की दूसरी और तीसरी श्रेणी में भी मौजूद रहते हैं। मोटे तौर पर ग़ैर सरकारी संगठनों की पहली श्रेणी को सहायतार्थ संगठन का नाम दे सकते हैं, दूसरी श्रेणी को विकास संगठनों और तीसरी को सामूहिक (पार्टीसिपेटरी) और वैश्विक संगठनों का नाम दे सकते हैं। ग़ैर सरकारी संगठनों की पहली श्रेणी प्रत्यक्ष औपनिवेशिक शासन के काल की विशेषता थी, दूसरी श्रेणी शीतयुद्ध काल की विशेषता थी और तीसरी श्रेणी वैश्वीकरण के युग में सक्रिय है। यद्यपि कुछ ग़ैर सरकारी संगठनों के मामलों में इनके काम मिश्रित हैं, इसके बावजूद इनका श्रेणीकरण इनकी प्रमुख गतिविधि के आधार पर किया गया है।
यह ध्यान में रखने की बात है कि अलग-अलग कालों में ग़ैर सरकारी संगठनों के काम साम्राज्यवादियों की बदलती ज़रूरतों के हिसाब से तय किये जाते रहे हैं।
ग़ैर सरकारी संगठन मुख्यतः २० वीं सदी में नज़र आए, यद्यपि मुट्ठीभर ग़ैर सरकारी संगठन १९ वीं सदी में भी मौजूद थे। पहले विश्व युद्ध के दौरान पश्चिम में 344 ग़ैर सरकारी संगठन मौजूद थे। इन ग़ैर सरकारी संगठनों का मुख्य उद्देश्य उपनिवेशों में औपनिवेशिक शक्तियों की संस्कृति और मूल्यों का प्रचार और फैलाव करना था, इसके साथ-साथ वे आवश्यक सूचनाएं इकट्ठी करने में और खुफिया गतिविधियों में भी संलिप्त रहते थे। अतः उन्हें औपनिवेशिक सरकारों का समर्थन हासिल रहता था। चर्च जैसे मिशनरी संस्थान उस वक्त ग़ैर सरकारी संगठनों का मुख्य स्वरूप होते थे। ये सभी औपनिवेशिक शासकों को हर प्रकार का समर्थन उपलब्ध करवाते थे।
शेष अगले अंक में जारी....
2 comments:
बहुत सही काम शुरू किया भाई.
अच्छी जानकारी है...
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