सेवा में,
श्री प्रशांत झा
रिपोर्टर हिंदुस्तान दैनिक
१८-२०,के जी मार्ग, नई दिल्ली।
महोदय ! आपका लेख "......और यह है बच्चा पार्टी का अपना बैंक "(हिंदुस्तान २ अप्रैल २००८) पढ़ा। यह सही बात है कि सड़क के कामकाजी बच्चों का एक बैंक होना अपने आप में एक आश्चर्य की बात है, लेकिन उतनी नहीं जितने आश्चर्य के साथ आपने लिखा है। आपने अपने लेख में लिखा कि -(१) यह बच्चों का अपना बैंक है ,(२) इस बैंक (बाल विकास बैंक) के मैनेजर ,प्रबंधक कमिटी और जमाकर्ता सड़कों पर जीवनयापन करने वाले बच्चे ही हैं,(३) वे जब चाहें रुपये निकाल सकते हैं और लोन भी ले सकते हैं।
मैं आपको बताना चाहता हूँ कि आपको यह जानकारी जहाँ कहीं से भी मिली हो पूरी हकीकत के साथ नहीं मिली। यह बैंक बच्चों का अपना बैंक है, पर सिर्फ़ इसलिए कि इस तरह का और किसी संस्था के पास बैंक नहीं है। इसलिए संस्था ने इस बैंक को (जिसे ख़ुद संस्था के स्टाफ चलाते हैं)बच्चों के बैंक का नाम दे रखा है।
कागज के रिकार्डों पर ही सिर्फ़ बच्चों की प्रबंधक कमिटी और लोन कमिटी है। हकीकत में बच्चों को प्रबंधक का मतलब भी नहीं मालूम। लोन कमिटी, जिसके सदस्य बच्चे हैं(कागजों पर) , किसी को लोन नहीं दे सकती क्योंकि लोन की स्वीकृति के लिये डॉ सुमन सचदेवा (बैंक डवलपमेंट मैनेजर) की स्वीकृति ज़रूरी है। डॉ सुमन सचदेवा का कहना है कि "बैंक चलाने का मुख्य उद्देश्य बच्चों की शिक्षा के साथ-साथ उनमें बचत की आदत विकसित करना है" मगर संस्था पिछले सात सालों में (२००१ से अबतक) कितने बच्चों को शिक्षित कर पाई है और कितने बच्चों में बचत की आदत विकसित कर पाई है -इसका संतोषजनक जवाब उनके पास नहीं होगा।
आप सोच रहे हैं कि मैं इतनी सारी बातें कैसे जानता हूँ ? महोदय जब बाल विकास बैंक की शुरुआत हुई थी तो मैं उसका पहला बैंक मैनेजर था। बैंक शुरू करने के लिये एन एफ आई (नेशनल फाउनडेशन फॉर इंडिया) ने ५०-५० हजार की किस्तों में दो साल के अन्दर दो लाख रुपये बटरफ्लाइज संस्था को दिए। संस्था की पहले से बचत योजना होने के कारण संस्था ने सोचा कि क्यों न बच्चों का बैंक बना दिया जाए। जबकि एन एफ आई का ऐसा कोई उद्देश्य नहीं था। उनके पैसा देने का कारण था कि सड़क पर रह रहे बच्चों को कुछ काम मिल जाए। मगर जब संस्था ने उसके सामने अपना लुभावना प्रोजेक्ट रखा तो उन्हें पसंद आ गया। एन एफ आई से मिला पैसा (दो लाख रुपये) संस्था ने १० बच्चों को काम के लिये देकर, स्टाफ की तनख्वाह देकर और मीटिंग्स का खर्चा लिखकर खर्च कर दिया। बच्चों को जो काम दिया गया वह सिर्फ़ संस्था की पब्लिसिटी के लिये। इस प्रकार उन दो लाख रुपयों का क्या हुआ पता नहीं चला। हाँ, इस काम से संस्था को शिवा(CIVA) नामक फंडिंग एजेंसी ने पैसा देना शुरू कर दिया था। लेकिन जब उसे संस्था की करतूतों का पता चला तो उसने अपना सारा फंड चाइल्ड होप नामक फंडिंग एजेंसी को दे दिया जो अभी बटरफ्लाइज को बैंक के लिये पैसा दे रही है। लेकिन अभी चाइल्ड होप को भी संस्था की करतूतों का पता चला है इसलिए संस्था मीडिया को माध्यम बनाकर प्रचार करा रही है।
एमिल जोला ने अपने एक प्रसिद्ध लेख में कहा था "यदि सच्चाई छुपाई जायेगी , उसे पोशीदा रखा जाएगा, तो यह इकट्ठी होती जायेगी और जब यह फटेगी तो अपने साथ हर चीज़ को उड़ा देगी। बटरफ्लाईज हकीकत को जितना भी छिपा ले मगर एक दिन तो उसे विस्फोट होना ही है। संस्था अपने बचाव के लिये चाहे जितना भी तर्क दे दे कि कुछ व्यक्ति और युवा उसे बदनाम कर रहे हैं मगर हकीकत एकदम विपरीत है. संस्था को अपनी सच्चाई का बाहर आना बदनामी लग रही है.
मैं संस्था के अन्दर १९९५ से २००५ तक रहा यानि पूरे दस साल. आठ साल की उम्र में मैंने अपना घर छोड़ा था. जब दिल्ली आया तो सड़क पर रहकर कबाड़ चुनता था और पढ़ाई करता था. संस्था ने दस साल तक विदेशी लोगों के सामने मुझे हीरो बनाकर पेश किया और जब मैं बड़ा हो गया तो यह कहकर कि अब तुम बड़े हो गए हो- संस्था से बाहर निकल दिया. सिर्फ़ मुझे ही नहीं इन दस सालों के अन्दर संस्था ने सैकड़ों बच्चों का अपने फायदे के लिये इस्तेमाल कर बाहर फेंक दिया. हमे इस बात का दुःख नहीं है कि हम संस्था से बाहर निकल दिए गए, दुःख इस बात का है कि संस्था ने पहले हमे सपने दिखाए और फ़िर अचानक उन सपनों को चूर-चूर कर दिया. हमारा सपना था कि हम भी संस्था के अन्दर रहकर अपना विकास करेंगे और अपने जैसे बच्चों के लिये कुछ कर पाएंगे, मगर हमे क्या पता था कि ऐसी संस्थाएं सिर्फ़ पैसों के लिये काम करती हैं और वास्तव में बच्चों के विकास से इन्हें कोई मतलब नहीं होता. इन बातों पर गहराई से सोचने के बाद हमने तय किया कि हम बच्चे और युवा मिलकर एक अख़बार निकालेंगे . आज हम बाल मजदूर की आवाज नाम से बच्चों का एक अखबार निकलते हैं।
महोदय हम चाहते हैं कि आप पूरी हकीकत के साथ लिखें और यदि सम्भव हो तो आप मिलकर बटरफ्लाईज संस्था के बारे में और भी जानकारी हमसे ले सकते हैं.आज बाल मजदूरी एक ऐसा मुद्दा बन गया है जिसे अपनी रोटी सेंकने के लिये हर कोई इस्तेमाल करने लगा है. जितना पैसा बाल मजदूरी ख़त्म करने के लिये भारत में आता है यदि वो पैसा एक तय योजना के साथ खर्च किया जाए तो जरूर कुछ नतीजा निकल सकता है मगर संस्था के माध्यम से आने वाला पैसा क्या सही मायनों में बच्चों पर खर्च हो रहा है? सच्चाई क्या है सब जानते हैं पर कोई आगे बढ़कर सवाल नहीं करता. सरकार इन बातों पर क्यों खामोश है क्या इस बात को समझ पाना इतना मुश्किल है?
अगर आप हमसे बात करके एक रिपोर्ट लिख सकें तो हमे अच्छा लगेगा.
भवदीय,
अनुज चौधरी
प्रतिलिपि- श्रीमती मृणाल पण्डे जी,प्रधान संपादक हिंदुस्तान.
बाल मजदूर की आवाज से साभार
Friday, June 13, 2008
Wednesday, June 11, 2008
एड्स पर स्वीकारोक्ति
एड्स एवं एचआईवी ये दो शब्द पिछले करीब दो दशकों से पूरी दुनिया को आतंकित करते रहे हैं। तथाकथित एचआईवी विषाणु से उत्पन्न होने वाले एड्स को लेकर इतना प्रचार हुआ और विश्व स्वास्थ्य संगठन ने इतना व्यापक कार्यक्रम चलाया कि तमाम देशों को अपने स्वास्थ्य ढांचे में परिवर्तन करने को बाध्य होना पडा। पिछले दो दशकों में सबसे ज्यादा किसी एक बीमारी से जुड़े कार्यक्रम पर धन झोंका गया है तो वह एड्स है। हालांकि आरंभ से ही एड्स के भय को अनावश्यक करार देने वाले भी रहे हैं, पर उनकी आवाज नक्कारखाने में तूती बनकर रह गई। अब अपने जीवन का एक बडा हिस्सा एड्स के विरूद्ध लड़ने में बिताने वाले डॉ। केविन डी. कॉक ने कहा है कि एचआईवी विषाणु से होने वाला खतरा बदल गया है। उनके अनुसार यह विषाणु अब केवल समलैंगिकों, नशाखोरों और वेश्याओं व उनके ग्राहकों तक सीमित हो गया है। एड्स को सबसे बड़ी महामारी मानने वालों में डॉ. केबिन अकेले व्यक्ति नहीं हैं जिनकी भाषा बदली है, इसके सबसे बडे प्रचारक संयुक्त राष्ट्र ने ही कुछ महीने पहले कहा था कि विा भर में एचआईवी के मामले घटे हैं। उसने 4 करोड़ से घटकर 3 करोड़ 30 लाख होने का आंकडा भी दिया है। इन दोनों बातों में अभी भी एचआईवी एवं एड्स के खतरे को स्वीकार किया गया है। वास्तव में दुनिया भर में ऐसे लोग अब खड़े हो चुके हैं जो एचआईवी की कल्पना, उसके आधार पर बुनी गई बीमारी एवं उसकी संख्या की भयावह तस्वीर को पूरे मनुष्य समुदाय के लिए धोखाधड़ी करार दे रहे हैं। संयुक्त राष्ट्र अभी भी जो आंकडा दे रहा है वह संदिग्ध है, क्योंकि ये आंकड़े उन एनजीआ॓ द्वारा जुटाए गए हैं जो कि एड्स के नाम पर करोडों का कार्यक्रम चलाते हैं। स्वयं भारत में ही यह साफ हो चुका है कि जितने एचआईवी संक्रमण की संख्या यहां दी गई उतनी है ही नहीं। जिस समय एड्स का नाम अस्तित्व में आया तब यह कहा गया था कि एशिया की आबादी ज्यादा होने के कारण वहां यह बड़ी महामारी होगी। इसमें भारत एवं चीन का नाम लिया गया था। हालांकि ये दोनों बातें गलत साबित हुईं, लेकिन इस बीच एशिया के देशों ने एड्स के नाम पर न जाने कितना धन खर्च किया। स्वयं भारत ने स्वास्थ्य मंत्रालय में अलग से राष्ट्रीय एड्स नियंत्रण संगठन नाम से एक विभाग ही कायम कर दिया। भारत में काम की जो बातें पर्दे के पीछे थीं उसे विज्ञापनों के माध्यम से बच्चों तक पहुंचा दिया गया। कंडोम के विज्ञापन को सामाजिक सेवा बना दिया गया। इससे नैतिक हानि हुई और सामाजिक मर्यादाएं ध्वस्त होने से परंपरागत व्यवस्था की चूलें हिल गयीं। बच्चों को विघालयों में सेक्स शिक्षा देने के पीछे सबसे बडा तर्क एड्स जागरूकता को ही बनाया गया। अब डॉ. केविन कह रहे हैं कि लोगों को जागरूक करने पर धन लगाने से ज्यादा जरूरी है कि खतरे की अधिक संभावना वाले क्षेत्रों को निशाना बनाया जाए। यानी जन जागरूकता के नाम पर जो कुछ किया गया वह व्यर्थ था। अगर एचआईवी वाकई है तो यह सेक्स के मामले में व्यभिचार करने वालों, खतरनाक नशे का सेवन करने वालों को हो ग्रसित करता है। भारत के आम आदमी को परंपरागत रूप से इतनी सीख मिली हुई है।
www.rashtriyasahara.com से साभार
www.rashtriyasahara.com से साभार
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