1८-0७-2००७, दिल्ली
वरुण और मेरे अजीज़ दोस्तो,
नमस्कार।दो दिनों पहले जितेन्द्र की दुखद मौत की सूचना मिली. व्यक्तिगत रूप से मैंने क्या खोया है यह बता पाना मेरे लिये मुश्किल है. उन अभागे और शर्मसार कर देने वाले दो-तीन लोगों मे मैं भी शामिल था जिन्होंने पहले पहल एल एन जे पी हॉस्पिटल मे जितेन्द्र को दाखिल करते हुए उसे यह भरोसा दिलाने का अपराध किया था कि हम टीबी से उसके अनथक संघर्ष मे हमेशा उसके साथ खड़े होंगे. हालांकि तब मुझे बिल्कुल भी गुमान नही था कि अपने खून-पसीने से सींचकर जिस अभियान की हम बुनियाद रख रहे हैं उसका केवल गुम्बद ही प्रकाशमान हो रहा है और रोशनी को नीचे तक लाने के लिये बेताब हाथों को जड़ से अलग कर देने की वसीयत है ।
धूमिल ने " अकाल" शीर्षक कविता मे एक जगह लिखा है.......".बच्चे हमे बसंत बुनने मे मदद देते हैं"......सचमुच बच्चे एक बहुत बड़े बाज़ार का हिस्सा हैं. सभी उनकी संभावनाओं की तस्करी करने मे लगे हैं . एक बड़ी जमात है जो सीधे बच्चों का व्यापार कर रही है तो दूसरी तरफ़ एक उससे भी बड़ी और ज़्यादा खतरनाक जमात है जो उनका संरक्षण करने के नाम पर उनका व्यापार कर रही है .भयानक बात यह है कि ये जमात ज़्यादा संगठित, आर्थिक रूप से ज़्यादा समृद्ध है और सभ्यता के महान आदर्शों एवं नैतिकता के सबसे आक्रामक और चकाचौंध पैदा करने वाले नारों-दावों और उदघोष के साथ बच्चों के ऊपर जैसे टूट पड़ी है..............बच्चे उन्हें बसंत बुनने मे मदद देते हैं।
प्यारे दोस्तो, मुझे माफ़ करना, कि मैं पहले से ही भयानक हालातों मे फँसे (या पाब्लो नेरुदा के शब्दों मे - "पत्थर और पत्थर के बीच") बच्चों की जिंदगियों को और कठिन......और असहनीय बना देने वाली उस साजिश मे शामिल था जो दिल से के नाम पर चल रहा था और जारी है. यह सच है कि मैंने वास्तविकता को अनुभव करते ही ख़ुद को अभियान से अलग कर लिया था पर क्या इससे ही मैं उन तमाम अपराधों से मुक्त हो जाऊंगा जिनकी काली छाया हमेशा अपने वजूद के इर्द-गिर्द मैं महसूस करता हूँ ? मेरी तरह ही क्या मेरे और दोस्तों का अंतर्मन उन्हें इस बात के लिये नहीं कचोटता होगा कि क्यों हमने उन बच्चों के दिलों मे ऐसी उम्मीदें जगाईं जिन्हें पूरा कर सकने की कुव्वत हममे कभी थी ही नही . क्या हमे अपने दिल पर हाथ रख कर एक बार यह नही कबूल करना चाहिए कि ..............प्यारे बच्चो हम जिन्हें तुमने टूटकर प्यार किया-हम असल मे झूठे, मक्कार और अव्वल दर्जे के चालाक लोग थे......और ये हमीं हैं....जिन्होंने जितेन्द्र को सड़क से उठाकर हॉस्पिटल-हॉस्पिटल से उठाकर सराय बस्ती- सराय बस्ती से उठाकर किंग्सवे कैंप लाते ले जाते रहे.........ठीक वैसे ही जैसे कोई पौकिट्मार पॉकेट से पर्स निकालने के बाद तबतक उस पर्स को ढोता रहता है जबतक उस पर्स को वह पूरी तरह खाली नही कर लेता.........और इस बीच जितेन्द्र के हालात बदले नही क्योंकि यह हमारा सरोकार भी नही था ............क्योंकि हमारा ज़्यादा ध्यान उन देशी-विदेशी धनकुबेरों की तरफ़ था जिनकी कृपादृष्टि से हम रातों-रात मालामाल होते रहते हैं.........आख़िर इसी दिन के लिये तो हम हर रोज़ हर पल अपनी आत्माओं को मारते रहते हैं.......
जितेन्द्र ट्रैक के बीच लेटा मौत की बाट जोह रहा था , वह क्यों सराय बस्ती मे मरना तक नही चाहता था.....कोई पूछे भाषा के बाजीगरों से, जो दुनिया के लुप्त हो रहे शब्दकोष के सबसे कोमल और लगभग पिघला देनेवाले शब्दों को भी अपने कुत्सित इरादों के लिये इस्तेमाल कर ले रहे हैं........जो भयानकतम अपराध कर चुकने के बाद भी निडर और निर्भीक होकर कहने का माद्दा रखते हैं कि वे तो बिल्कुल पाक-साफ हैं..... कि उनके अलावा इस दुनिया मे और कोई भला कैसे निर्दोष हो सकता है.....वे इतने निर्दोष होते हैं.......कि हमेशा अनजान ही रह जाते हैं......या खुदा. वरुण मेरे भाई, अपने को कमज़ोर न होने दें . जितेन्द्र की मौत का कोई रहस्य नही है..........जो हालात थे सबके सामने थे- जो हालत हैं वे भी सबके सामने हैं.....हाँ कुछ लोग इस मौत को एक रहस्य की तरह पेश करेंगे........ऐसे लोगों की पहचान करने और उनकी नज़रों मे नज़रें डालकर उनके छिपे हुए दांत और नाखून बाहर निकालने का यही वक्त है ताकि फ़िर कोई जितेन्द्र हर बढे हुए हाथ को मौत का हाथ न समझ ले. जितेन्द्र कोई पहला नही था.........कितने ही थे और हैं भी जिन्हें बचाना होगा मौत के सौदागरों से.....हमे अपने दम पर ही आगे बढ़ना चाहिए. इस मुश्किल घड़ी मे मैं हर क़दम पर आपके और उन सबके भी जो सचमुच बच्चों के पक्ष मे खड़े हैं ,साथ हूँ।
आपका अपना,
राजेश चंद्र
Tuesday, April 15, 2008
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